अंक 30वर्ष 4जुलाई 2011

पिछले अंक से जारी..........

राधा

--कृष्ण धरावासी

किसी ने कहा - 'धन्य हो ! इस सन्दूक में कुछ द्रव्य होता तो हम बहुत कुछ जानने से वंचित रह जाते। अब तो कुछ न कुछ यह लिखत बताएगा ही।"

एकएक करके पत्तियों को अलग किया गया। वे एक आपस में चिपक गई थीं । पत्तियाँ टूटने का और अक्षर मिट जानेका खतरा भी था। कुछ देर बाद उद्वव जी ने पत्तियों को एक-एक करके अलग किया। पास में खड़े प्रमुख जिला अधिकारी टीकाराम अर्याल ने अपनी अधैर्यताका परिचय देते हुए, एक पत्ती हात में लेकर पढ़ना चाहा लेकिन पढ़ नहीं पाए। उन्हें लिपि समझ नहीं आई। दूर से देखने पर देवनागरी लिपि जैसी ही दिखती थी लेकिन पाससे कुछ पढ़ा नहीं जा रहा था। इस बात से लोगों की गहमागहमी में थोडी शिथिलता आ गई। कई निराश भी दिखते थे। हम पत्रकार भी उतना मजा नहीं ले पाए। अच्छी रपट और फिचर लेख की इच्छा भी कुंठित होने लगी थी।

उस लिपि को अलग अलग नाम दिया जाने लगा। लेकिन कोई भी दावे के साथ 'यही लिपि है' नहीं कह पा रहा था। सभी यों हो भटके से लग रहे थे।

उद्वव जी ने कहा - 'अब, इसे काठमांडू ले जाकर विशेषज्ञोंद्वारा अनुवाद कराना होगा।'

फिर धातु के पत्तियों को सन्दूक में सुरक्षित रखने की तैयारियाँ होने लगी तो मुझे एक खयाल आया। मैंने प्रमुख जिला अधिकारी से कहा - "सर ! उस मंदिर के बरामदे में एक अनूठा साधू बैठा है। किसी से बोलता भी नहीं है। आठ दस दिन से वहीं पड़ा है। कहीं भीक्षाटन के लिए भी नहीं जाता, गाँववाले जो फल बगैरा लाकर देते हैं उसी से गुजारा कर लेता है। कौन है, कहाँ से आया है, किसी को मालूम नहीं। उम्र ज्यादा होने पर भी हट्टा-कट्टा और तंदुरूस्त दिखता है। मुझे नहीं लगता वह साधू कोई ऐरागैरा है या यों ही गृहस्थी से विरक्त होकर चला है। ऐसे लोग तो ज्ञानी होते हैं। क्यों न एकबार ये पत्तियाँ उनको दिखाया जाए। शायद वह समझ पाए।

वह कुछ देर के लिए चुप हो गए। फिर बोले - ''कृष्ण जी ने ठीक कहा। ऐसे महात्मा ज्ञानी हो सकते हैं। चलो एकबार उन्हें दिखाया जाए।"

प्रमुख जिला अधिकारी से मंजूरी लेकर मैं और लेखनाथ उस साधू के पास पहुँचे। मैंने हिन्दी में कहा - 'महात्मा जी, आपको सी.डी.ओ. साहब बुला रहे हैं। क्या आप कष्ट करेंगे।'

उन्होंने शुद्ध नेपाली में कहा - 'क्यों नहीं, चलिए।' मैं शर्म से लाल हो गया। वे उठे और हमारे पिछे हो लिए। कई दिन से वे सब गतिविधियाँ देख रहे थे। लोगों की बातें भी सुन रहे थे। लोगों को लगता वे कुछ समझ नहीं पाएँगे, इसलिए वे जो जी में आए बोले जा रहे थे। मौन साधक साधूकी बोली और उनके व्यवहार से मुझे लगा वे साधारण इनसान नहीं है।

मैंने थोड़ा आगे खिसककर टीकाराम अर्यालजी को साधू के बारेमें कुछ बताया। और यह भी कह दिया कि ये नेपाली हैं। पास पधारे साधू को नमस्कार करते हुए अर्यालजी ने कहा - "स्वामीजी यहाँ कुछ अनूठी चीज मिल गई है। ये अक्षर हम पढ़ नहीं पा रहे हैं। लिपि अलग लगती है। यदि आप पढ़ पाए तो बड़ी कृपा होगी।"

साधू ने एक पत्ती उठाई, कुछ देर ध्यान से देखा और पढ़ने लगे। वे जिस भाषा में बोल रहे थे वह हमें समझ नहीं आ रहा था। क्योंकि वे पढ़ पा रहे थे इसलिए हम खुसी से झूम उठे। प्रमुख जिला अधिकारी तो चकित थे। बोले - "कृष्ण जी आपने बहुत बढ़िया सुझाव दिया, धन्यवाद।"

फिर उन्होंने महात्मा से कहा - "स्वामीजी, अब कृपया इन में जो कुछ लिखा है, उसका अर्थ हमें बताएँ।"

साधू ने कुछ देर के लिए गंभीरता ओढ़ ली। कुछ देर के लिए आँखें मूँद ली। फिर 'हाँ' की स्वीकृति में शिर हिलाया।

अचानक लोगों में खुसी छा गई। तालियों की गड़गड़ाहट से कीचकवध परिसर गूंज उठा। साधू सबके केंद्र में आ गए थे। कुछ देर पहले तक उपेक्षित से साधू अब सभी के लिए महत्वपूर्ण हो गए थे। लोगों ने प्रमुख जिला अधिकारी और शिवकुमार खड्का तक को नजर अंदाज दिया।

मंदिर परिसर को खाली किया गया। गाँवसे बैठने के लिए, पुराने बोरे, चादर, गद्दे आदि लाए गए। फिर एक पलंग और उसके उसपर बिछाने एक कालीन की व्यवस्था की गई। कुछ कुर्सियाँ भी लाए गए। पल भर में ही वहाँ पुराण वाचन स्थल जैसा वातावरण छा गया। महिलाओं और पुरुषों की अलग झुंड तयार होकर दो तरफ बैठ गए । प्रमुख जिला अधिकारी और एस.एस.पी साथ कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए अलग कुर्सियाँ लगवाई गईं। हम पत्रकार भी एकतरफ हो लिए।

स्वामीजी पलंगपर बीछी कालीन पर पलथी मारकर बैठ गए। कुछ देर तक आँखें मूंदकर गहरी साँसें खींची, रहे जैसे प्राणायाम कर रहे हों। उतने लोग जमा हो गए थे लेकिन कोई कुछ भी नहीं बोल रहा था। दूर खेतों में काम कर रहे लोग भी दौड़कर रहे थे।

दो आदमियों ने स्वामीजी के सामने लोहे का संदूक रख दिया। उसी संदूक पर धातु के पत्तियों को रखा गया। स्वामी जी ने आँखें खोली। सामने हजारों नरनारी भक्तिपूर्ण भाव से उनकी तरफ ध्यान केंद्रित किए हुए थे। एक वृद्धा ने दो हाथों में फूल लेकर उन पत्तियों पर रख दिया और दण्डवत किया। कोई मंदिर से अगरबत्ती जला लाया और स्वामी जी के सामने केले पर धँसा दिया।

स्वामीजी उसी समझ में न आने वाली भाषा में मन्त्रोच्चारण करने लगे। टीकाराम अर्याल जी ने जी तोड़ कोशिश की, मन्त्र की भाषा समझने के लिए, लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाए। संस्कृत साहित्य में आचार्य कर चुके अर्याल जी के लिए साधू का बोलना अबोध्य था।

कोई स्वामी जी के सामने टैपरिकार्डर रख गया । माधव विद्रोही ने भी अपना रिकार्डर निकाला।

मैंने कहा - 'माधव जी, इसके लिए तो बहुत सारे कैसेट चाहिए न !'

तुरंत सलाह जुट गई। एक आदमीको कैसेट लेने मोटर साइकिल में भद्रपुर भेजा गया। मुझे लग रहा था इस पाठका पूरा भाग रिकार्ड किया जाय। माधव जी ने सहायता की तो मैं खुस हो गया।

गंभीर आवाज में स्वामीजी बोले - 'उपस्थित मान्यजन ! मैं अचानक एक कष्टपूर्ण कार्य का जिम्मेदारी ले बैठा हूँ। यह काम बहुत मुश्किलका काम है। बहुत पहले की बात है यह। हजारों साल पहले की बात। बहुत से अक्षर मिट गए हैं। फिर भी मैं कोशिश करता हूँ कि इसे पढ़ सकूँ। अगर आपलोग आवाज किए बगैर ध्यान से सुनें तब ही यह संभव हो पाएगा।'

लोग पहली बार स्वामीजी की आवाज सुन रहे थे। उनकी आवाज गहरे कुएँ से आई प्रतीत होती लेकिन दूर तक सुनाई देती थी। उनका चेहरा अचानक चमक उठा। अब वे कोई महान व्यक्ति लगने लगे थे।

उन्होंने आहिस्ता से पहली पत्ती उठाई, उसे ललाटपर लगाकर कुछ देर तक दण्डवत की मुद्रा में रहे और कुछ मन्त्र पाठ किए। चेहरा गंभीर हो गया। बोले - "अब मैं इसे आपकी भाषा में पढ़ रहा हूँ, ध्यान से सुनिए।'

हम सब कलम और कापी लेकर तैयार बैठे थे, जैसे क्लास में प्राध्यापक के नोट लिखने के लिए तैयार होते हैं।

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कृष्ण बहुत चंचल और नटखट थे। सदा कुछ न कुछ गड़बड़ करते रहते थे। एक दिन मैं सखियों के साथ यमुना तट पर निकली थी। एक महीने का 'ईश्वरी व्रत' का समापन कार्य था। पूजा के लिए सब सामान तैयार कर लिए गए थे। स्नान के बाद पूजा होनी थी। हम सबने अपने कपड़े खोलकर नदी किनार पर रख दिए। उतावली सखियों के बहकावे में आकर मैं भी निर्वस्त्र हो गई। नदी किनार के उस एकांत में कोई आएगा इस का हमें जरा भी आभाष नहीं हुआ। सभी पानी में उतरने के बाद दिल्लगी करते हुए देर तक खेलते रहे। बहुत देर बाद जब हम पानी से बाहर निकले तो हमारी पूजा सामग्री और हमारे कपड़े नदारद थे। हमारे होश उड़ गए। हम लोगों ने बहुत बड़ी गलती की थी। हम जैसी जवान युवतियों को दिन दहाड़े निर्वस्त्र होकर नदी में प्रवेश नहीं करना चाहिए था।

कृष्ण ज्यादातर पीतांबर पहनते थे। उनके गले में मालती माला घुटने तक लटकती मिलती। शरीर को सुगंधित चंदन से सुशोभित करते थे। आँखें शरद ऋतु के चंद्रमा समान शांत और आकर्षक लगती थीं। शिर में अनेक रत्‍न जड़ित मुकुट होता था। दाँत भी अनार के दानें की भाँति चमकिले और मिले हुए नजर आते थे। हात में हरदम बंसी हुआ करती। जब भी देखो उनके होठों में मंद मुसकान हुआ करती थी। हर किसी को आकर्षक और प्रिय लगते थे कृष्ण।

कृष्ण ने हमें जब निर्वस्त्र देखा तो हम शर्म से गढ़ गए। मेरी सखियाँ सब कृष्णके प्रति आसक्त थीं। मेरे अलग-थलग रहने पर भी वे सदा उन्हीं के साथ नाचती-खेलती थीं। मुझे लगता कहीं कृष्ण गोपियों के साथ बहक न जाएँ, यदि ऐसा हुआ तो मैं क्या करती ? कहने को तो वे मुझे अपनी प्राण ही कहते लेकिन उनके व्यवहार से पता लगता वे मुझे सिर्फ दिलाशा दे रहे हैं। हमने पूजा के बाद कृष्ण और उनके साथियों को प्रसाद दिया। तब कृष्ण सभी सखियों को संबोधित कर बोले - 'तुम सबलोग मेरे प्राणप्रिय हो। तुम सभीके पास मेरा प्यार जीवंत है।'

कृष्ण की बात सुनकर मेरा दिल बैठ गया लेकिन मैं कुछ बोली नहीं। फिर नजाने क्या सोचकर अपने गलेका सुंदर और मूल्यवान् क्रीडाकमल और मालती की माला उतारकर मेरे गले में पहना दिया। मैं भाव विभोर हो गई। आँखें मूंदकर चुपचाप खड़ी रही। गोपियाँ यह दृश्य देखकर चौंक गई थीं। लगता था कहीं मेरी खुशी का प्याला भरकर छलक न जाए। मेरे मन में कृष्ण के प्रति जो शंकाएँ थीं वे निर्मूल हो गईं थी। लेकिन मेरी खुसी तब जाती रही जब वे गोपियों को अपने गले से दूसरी मालाएँ उतारकर एक-एक कर पहनाने लगे। मेरी आँखें नम हो आईं पर मैंने उन्हें किसी तरह छुपाया।

कृष्ण ने फिर सभीको संबोधन करते हुए कहा - 'तीन महीने बाद मैं एक बड़ा बन-भोजका आयोजन करूँगा, उस वक्त सबसे मुलाकात होगी। हम वृन्दावन के उस सुरम्य बन में रातभर रासक्रीड़ा करेंगे। तुम सभी आओगी, मैं यही आशा करता हूँ।'

कृष्ण की बात सुनकर सभी गोपियाँ खुसी से चमकने लगीं लेकिन मैं मुरझा सी गई। कृष्ण के साथ एकांत में बैठने के लिए मैं तड़पती थी, लेकिन उस सामुहिक रासक्रीड़ा की बात से मुझे धक्का लगा। फिर जाते जाते कहने लगे - 'सुनों गोपियों ! तुममें और मुझ में कुछ भेद नहीं है। मै जैसा हूँ, तुम भी वैसी ही हो। तुमलोग मेरे प्राण हो। मैं जन्मजन्मांतर से तुम्हारा हूँ।'

कृष्ण की पिछली बात सुनकर मुझे लगा मैं उसी जगह धँस रही हूँ जहाँ खड़ी हूँ। चक्कर आने लगे। अपने प्रिय साथी सब दुश्मन लगने लगे।

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तीन महीने बाद चैत्रशुक्ल त्रयोदशी की रात आकाश में चाँद चमक रहा था। वृंदावन में अनेक फूल खिले हुए थे और पूरा जंगल सुगंधित हो गया था। उस मनोहर, और मदमस्त प्राकृतिक वातावारण में कृष्ण ने हम लोगों को रात के बन-भोज के लिए बुलाया था। रात को घर छोड़कर जंगल विहार पर जाने कि अनुमति हमें कतई नहीं मिलनेवाली थी और कृष्ण का बुलावा अनसुना करने की हिम्मत भी नहीं थी। ब्रज के राजा वृषभानु की बेटी होने के नाते सेविका जैसी सखियाँ मेरी जिम्मेदारी बनती थीं। अगर किसी को कुछ होता तो उसका जवाब मुझे देना होता था।

कृष्ण की चतुरता और छल का पता इस बात से लग जाता कि उन्होंने हम लड़कियों के अलावा किसी और को नहीं बुलाया था। फिर रात को जंगल के बीचोंबीच आयोजित बन-भोज को कोई सहज रूपसे नहीं देख सकता था। मुझे उनपर विश्वास था और मैं तय भी कर चुकी थी। मेरे अंतिम लक्ष वही थे। मन ही मन यह जीवन उन्हीं को सौंप चुकी थी। इसलिए मुझे लगता मेरे घर की बाधाएँ वही दूर कर सकते हैं। मुझे मेरी सखियों की चिंता थी। मन में कहीं डर भी छिपा हुआ था। कृष्ण बहुत चंचल है। कहीं भी, किसी के साथ भी आसानी से आकर्षित हो सकते हैं। मेरी कितनी ही सखियाँ मुझसे अच्छी और सुंदर हैं। वे मेरे कृष्ण को जब अपने वश में करने की जब कोशिश करतीं तो मेरे हृदय में अग्निशूल चूभता था। मैं चाहती थी - कृष्ण सिर्फ मुझे एकांत में बुलाएँ, सिर्फ मेरे साथ नाचें, गाएँ, मन की बात करें, मनोरंजन करें। लेकिन वे मेरी इस बात की पर्वाह नहीं करते थे। मानो कोई मतलब ही नहीं। लेकिन जब भी मैं एकांत में टोह ले रही होती होती, वे पास आकर दिल्लगी करते हुए गहरा प्रेम प्रदर्शित करते और मेरे सारे भ्रम दूर करते। ऐसे में मैं आँखों में आँसू भरकर उन्हें टकटकी बाँधे देखती रहती।

मन में द्विविधा लिए मैं चुपके से घर से निकल गई। चारों ओर सन्नाटा था। लोग सोने की तैयारी में लगे हुए थे। दिन में तय किए अनुसार गाँव के बाहर पीपल के पेड़ तले हम सखियाँ एक-एक करके जमा होने लगीं। जब पूरी सैंतीस सखियाँ जमा हो गईं तो हम ने जंगल की तरफ कूच कर दिया।

सुशीला घबराई हुई थी। रास्ते भर मुझसे खुसरपुसर करती रही। आ पाई, इसलिए खुश थी लेकिन आने पर पश्चाताप भी हो रहा था। कल माँ-बाप अगर पूछें कि रातभर कहाँ थी तो क्या जवाब देगी? समाज के सामने कौन सा चेहरा दिखाएगी ? एक कृष्ण के लिए क्यों हम इतनी लड़कियाँ मर मिट रही हैं ? लोक क्या कहेगा ? ऐसे ही सवाल उसे खाए जा रहे थे।

सुशीला सुंदर ही नहीं बरन बुद्धिमान् भी थी। वह बातें बहुत जल्दी समझ लेती थी। मेंरी सबसे प्रिय सखी भी थी और लगता वह मेरी प्रतिस्पर्धी भी है। मेरे दिल में उसके प्रति कहीं ईर्ष्या जगती और मैं सशंकित हो जाती। वह मुझसे सुंदर थी। हंसने पर जो सुंदरता उसके होठों और दातों पर खिलती थी, उसकी तुलना शायद तीनों लोकों में संभव नहीं थी। मेरे अंदर कहीं सौतेला भाव जन्म लेता। इतना होते हुए भी मैं उसे एकपल के लिए भी नहीं छोड़ सकती थी। कारण यह था कि वह कृष्ण के बारे में मीठी बातें किया करती थी। मेरी पंसद की बातें कर वह हमेशा मुझे अपनी तरफ आकर्षित करती थी। वह जानती थी मैं कृष्ण को दिलो-जान से चाहती हूँ। मेरे प्रेम की प्रशंसा कर वह अपने प्रेम की बातें करती थी।

मन में लाज, डर और द्विविधा लिए हम जंगल की तरफ जा रहे थे। आकाश में चाँद बहुत ही सुंदरता से चमक रहा था। बादलका एक टुकड़ा कहीं नहीं दिख रहा था। शिर के ऊपर नीला आकाश गहरे समुद्र की भांति फैला था। मन बहलाने वाले उस वातावरण नें हमें सम्मोहित कर रखा था। जब हम बन के मध्य में पहुँचे तो वहाँ की तैयारियाँ देखकर आश्चर्यचकित हो गए। कृष्ण अकेले वहाँ उपस्थित थे लेकिन लगता सौसे ज्यादा लोगों ने बड़ी मेहनत के साथ उस स्थान को सजाया है।

अनेक किस्म के फूल महक रहे थे। सारा जंगल वंसत ऋतु के नए पत्तों में उग आया था मानो नई नवेली माँ बच्चा जनने के बाद नहा धोकर तरोताजा और स्निग्ध हो गई हो। रात के बसेरे में पक्षी भी अपने घोंसले में मस्त सो रहे थे। छाँव के लिए तंबू टंगा था। भोजन के लिए पाकशाला की व्यवस्था थी। सभी आवश्यक चीजें यथेष्ठ थीं लेकिन अकेले कृष्ण को देखकर हम घबरा गए। लगता तो था कि अन्य पुरुषों की उपस्थिति हमारे लिए खतरा हो सकता था फिर भी मन कर रहा था काश कुछ और पुरुष यहाँ हों। विशेषकर मैं इस बात को महसूस कर रही थी। मेरी इतनी सहेलियाँ थीं और सबकी नजर में कृष्ण थे जो मुझे भा नहीं रहा था। और भी पुरुष होते तो शायद उनकी निगाहें बंटतीं। कृष्ण एक थे और सब की आँखें उन्हीं की ओर केंद्रित रहीं। रात में भी मुझे कृष्ण के साथ एकांत पाना बहुत मुश्किल जान पड़ रहा था। सुशीला तो मुझसे तनिक भी अलग नहीं होती थी। उसकी निकटता कभी मुझे खलती थी तो कभी लगता उसके बगैर तो मैं पूरी अकेली हो जाऊँगी और कुछ कर नहीं पाऊँगी। मैं चाहती थी - मैं जब कृष्ण के पास होती हूँ तो वह हमें एकांत मुहैया कराए। लेकिन मुझसे ज्यादा लाड़-प्यार से वह कृष्ण के नजदीक पहुँचती थी। मैं कुढ़ती बहुत थी लेकिन ऐसे दिखाती थी मानो मुझे कुछ हुआ ही न हो। पीड़ा को दिल में ही दबाकर रखने से लगता की सबूत पीड़ा का ढेला ढोकर चल रही हूँ।

बनभोज स्थल में कृष्ण बाँसुरी बजाते हुए प्रसन्न मुद्रा में हमलोगों को स्वागत करते हुए खड़े थे। हम एक दूसरे से लिपटते हुए, एक दूसरे को छलते हुए, कुछ लजाते हुए, कुछ सकुचाते हुए उनकी तरफ बढ़ते गए। कृष्ण ने मुसकुराकर सबका स्वागत किया - 'सखियों ! मैंने तुम्हें इस बनभोज में आमंत्रित किया। आज की यह वासंती शुक्ल त्रयोदशी तुम्हारा स्वागत करती है।'

हम सब उनके पिछे हो लीं और मनोरंजन स्थल में पहुँच गईं। तंबू के भीतर कृष्ण ने सभी को बैठने को आग्रह किया और कार्यक्रम के बारे में जानकारी दी। कहा - "खाने का सामान सब तैयार है। सिर्फ एक कुशल व्यक्ति की जरूरत है जो पाक-कला में दक्ष हो। आज हम यहाँ नाचते-गाते मिठाईयाँ खाएँगे, फल खाएँगे और स्वादिष्ट भोजन का स्वाद लेंगे। तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम और मित्रता के लिए यह पल अविस्मरणीय रहेगा।  समय के साथ हम कहाँ पहुँचेंगे पता नहीं, भविष्य किसी  के हाथ में नहीं है, परमात्मा भी कालग्रसित होता है इसलिए हमारी दोस्ती को जीवन देने के लिए मैंने इस कार्यक्रम का आयोजन किया है। दिनभर मेरे साथ सुदामा भी थे, भैया बलराम भी थे। यह सब उन्हीं का काम है। वे मुझे तुम्हारे साथ अकेला छोड़ देने के लिए ही यहाँ नहीं हैं। आज की रात हम खुसी से झूमेंगे।"

कृष्ण की बातें सुनकर हम लड़कियों की बाछें खिल गईं।

सुशीला ने मेरे कान में कहा - "राधे, देख तो कृष्ण कितना चालाक है, अपने साथियों को झूठ बोलकर टाल गया है। हंसी मजाक और मजे करने के लिए सिर्फ हम लड़कियों को बुला लाया है।"

मैंने उसका मुँह बंद करते हुए कहा - "वैसा न कह तू। उन्होंने हमारे खुसी के लिए ही तो यह सब किया है। सोच तो अगर यहाँ लड़के होते तो हमें कितनी मुश्किल होती !"

"लेकिन तू यह नहीं जानती की कृष्ण सब लड़कियों को अपनी प्रेमिका मानते हैं। एकदम स्वार्थी हैं। सोचते हैं कि सुंदर और अच्छी चीजों का भोग अपने अलावा कोई न करे।"

"सिर्फ सोचने भर से भोग तो नहीं किया जा सकता न !"

"क्यों नहीं, मन में सोचकर भावनात्मक रूप से तो भोगा जा सकता है। आनंद तो आ ही जाएगा। शरीर का भोग तो कितना कर सकता है आदमी ? भोगना तो मन से ही है।"

"मैं तो नहीं जानती ऐसी बातें।"

मैं उकताकर अपना ध्यान सुशीला से हटाना चाहा।

कृष्ण हमारे पास आकर हमें गौर से देखकर अनूठी मुस्कुराहट के साथ कहीं चले गए। सुशीला फिर कान में फुसफुसाने लगी - "देख तो कितना चालाख है ! लगता है, यह सम्मोहन जानता है, हमारी मन की बातें जो ताड़ गया।"

"कह तो रही हूँ, तू ज्यादा न बोल, वह जान जाएँगे।"

"जान गए तो क्या होगा, हैं तो आखिर हमारे प्रिय।" बढ़ी सहजता से सुशीला कह गई। उसकी आवाज में लाड़-प्यार स्पष्ट झलक रही था।

आहिस्ता आहिस्ता लड़कियाँ कृष्ण के पास पहुँचने लगीं। कृष्ण हर लड़की को हाथों से छुकर, हँसते हुए, स्वागत करते दिखे।

सुशीला ने कहा - "राधे, तू आज तो सोलह शृंगार में सजी है। खुदको भोलीभाली दिखाने वाली तू अंदर से कितनी चालाक है, तेरी सूरत से ही पता चलता है।"

चूँकि मेरे रूप की चर्चा हो रही थी, मैं बहुत खुश थी लेकिन मन के किसी कोने में लज्जा बोध भी हो रहा था। छिपाने के लिए कृत्रिम आवरण लिए मैं बोली - "छोड़, ज्यादा मुँह मत लगा। तेरे जैसा रंगीन बनना भी मुझे नहीं आता। देखती नहीं, कृष्ण मुझे एक नजर फेँके बगैर दूसरी लड़कियों से इठलाते हुए बतिया रहे हैं।"

"यही तो तेरा भ्रम है। तू कुछ ज्यादा ही शक करती है और ईर्ष्या भी। क्या तू समझती है कि तेरे सिवा कृष्ण किसी दूसरी लड़की से बोल भी नहीं सकते ? कृष्ण अच्छे हैं, सुंदर हैं, जिसको भी अपने लग सकते हैं। सभी को अपनी तरफ खीँचते हैं। सभी से उसी दिलेरी से मिलने का स्वभाव किसे अच्छा नहीं लगता, बोल। उनकी संगीत-कला, बाँसुरी का धुन, नाँचने का ढंग और उनकी मुस्कुराहट किसे नहीं भातीं ? तब हम क्या करें ? आज भी तो कृष्ण के साथ सिर्फ तू आ सकती थी। कृष्ण हमें न बुलाकर सिर्फ तुझे बुला सकते थे। तू हमारे बगैर नहीं आ सकती और कृष्ण भी।"

"मैंने वैसा बुरा क्या कहा सुशीला, क्यों गुस्सा करती है। मेरा मन मेरे वश में नहीं है आज। इस चाँदनी रात का एकांत, इस सुंदर पल्लव और अंकुरों से भरे जंगल में सिर्फ एक कृष्ण ही तो हैं हमारे साथ। क्या एक ही कृष्ण हम सबके लिए काफी हैं ? हम सभीको एक एक कृष्ण नहीं चाहिए ?"

"क्यों नहीं ? उन्होंने भी तो कुछ सोचा होगा। बरना हम सबको एक साथ क्यों यहाँ बुलाते ?"

एक चक्कर लगाकर कृष्ण फिर हमारे पास आकर बोले - "राधा क्यों, एक ही जगह खंबे जैसी खड़ी हो ? अब तो तुम्हें इस आयोजन का नेतृत्व लेना होगा। तुम ही ऐसी सुस्त हो जाओगी तो इस तैयारी का क्या मतलब हुआ। चलो, चलो।"

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अगले अंक में जारी..

नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी

 

 

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