अंक 37वर्ष 10दिसंबर 2017

 

जीने की कला

 

 

                                          -देवी नागरानी

            पाँव में पायल पहने छम छम करती हिरनी जैसी चाल से थिरकती, वह संगीत की लय-ताल पर हाथ-पाँव-नयनों के हाव-भाव से ताल मेल रखते हुए नृत्य करती रही । नृत्य समाप्त होते ही देर तक हॉल में तालियों की गूँज सुनाई देती रही और उन तालियों की गड़गड़ाहट के बीचों-बीच एक आवाज़ और सुनाई दे रही थी, निरंतर गूँजती एक सुर, एक लय ताल में, वह थी ‘वन्स मोर, वन्स मोर’ और यह आवाज़ आते आते अचानक बंद हो गई, जैसे स्पीड में चलती हुई गाड़ी को अचानक ब्रेक लग गया हो ।

नृत्य समाप्त होने पर स्टेज का पर्दा जो नीचे गिरा था, एक बार फिर उठा और दर्शकों की आँखें स्टेज पर जाकर रुक गईं । हज़ारों दिलों की धड़कन, उनकी मन पसंद कलाकार नृत्य जगत की मयूरी पूर्णिमा उनके सामने खड़ी थी । पर यह क्या ? उसका रंग-रूप क्यों उड़ा हुआ है, चेहरे पर पसीने की बूँदें, आँखों में बुझती हुई रोशनी की लौ क्यों है? होंठों की लाली की जगह गहरे साए, और गालों की रंगत ऐसे उड़ी हुई, जैसे किसी ने उनपर सफेदी पोत दी हो। दो साथी कलाकारों का सहारा लेकर खड़ी थी, खड़ी भी नहीं, यूँ कहें जैसे उन दो बैसाखियों के आधार पर पूर्णिमा लड़खड़ाने से बची हुई थी । जिसकी चाल कुछ पल पहले हिरणी की तरह थिरक रही थी, बिजली की रफ्तार से बलखती रही थी, वह इस समय सहारे की मोहताज क्यों ? चेहरे पर खिले हुए सुमन की लाली के स्थान पर छाई हुई सफ़ेदी क्यों? मुरझाई हुई मुस्कान क्यों ? हर दर्शक के मन में सवालों का अंबार उठा, जिसका उत्तर सभी पाना चाहते थे। पर हरसूँ मौन विराजमान था, सभी के लब सिले हुए थे, जैसे उन्हें साँप सूँघ गया हो। ‘वन्स मोर, वन्स मोर’ बोलने वाली ज़ुबानों पर जैसे ताले लग गये थे... और... खामोशी के इस सर्द सन्नाटे को एक जानी-पहचानी लर्ज़िश भरी आवाज़ ने तोड़ा । यह आवाज़ किसी और की नहीं, दर्शकों की चहेती पूर्णिमा की माँ निर्मला देवी की थी, जो बेटी का सहारा बन कर उसके पास ही हाथ जोड़े, आँखों में नमी लिए खड़ी थी !

            ‘प्यारे दोस्तों मैं अपनी ओर से और आपकी महबूब कलाकार पूर्णिमा की ओर से माफ़ी माँगती हूँ । आज पहली बार आप लोगों की फरमाइश पूरी न कर पाने का दुख है और दुगना दुख इस बात का है कि आज मेरी बेटी का दुख आपके दुख का कारण बना है । पूर्णिमा दिल की मरीज़ है, दिल के दौरे ने अभी-अभी दस्तक देकर उसे हमारे सामने इस हाल में खड़ा कर दिया है । इसमें शायद आप सब की दुआएँ और शुभकामनाएँ शामिल है जो वह आपके सामने नृत्य कर पाई ।  अब आप हमें इजाज़त दें । पुर्णिमा की डॉक्टर भी आ गई है ।’ -ऐसा कहते हुए निर्मला देवी ने बेटी को सहारा देकर स्ट्रेचर पर लिटाया, जो उसी वक़्त स्टेज पर लाया गया था । डॉ. ममता ने वहीं पर जांच करने की करवाई शुरू कर दी और देखते ही देखते भाग दौड़ का तहलका मच गया । स्ट्रेचर अस्पताल की गाड़ी में रखते ही, गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी और ऑडिटोरियम के फाटक से बाहर चली गई । आगे आगे गाड़ी और पीछे पीछे चाहने वालों का काफ़िला, जिनके हाथ दुआ के लिये उठे हुए थे । वे चलते रहे, आगे बढ़ते रहे जब तक गाड़ी आँखों से ओझल नहीं हुई । बिना होंठ हिलाए की गई प्रार्थना हारे हुए इन्सान का एक मात्र आधार होती है, दिल की गहराइयों से निकली यह निशब्द बंदगी हर खाली दामन को भरने का एक मात्र सचा और सशक्त साधन है, जहाँ दिल की बात कहने के पहले सुन ली जाती है । हर अनकहे सवाल का जवाब दिल के हर कोने में राहत बख़्शता है । ऐसी बन्दगी दवा से पहले दुआ की दौलत से मालामाल कर देती है !

            थोड़ी देर में हॉल खाली हो गया, न आवाज़ था, न शोर, बस ख़ामोशी रही, यूँ लगा जैसे कोई मंदिर से, तो कोई गिरजा घर से और कोई मस्जिद से मालिक की रहमत की दुआ माँगकर निकला हो, उस कलाकार के लिए जो अपने नृत्य से  दिलों की धड़कनों में संचार करती रही और आज उसका ही दिल अपनी बहकी-बहकी चाल के साथ अस्पताल की ओर जा रहा था ।

निर्मला देवी आय.सी.यू के बाहर निरंतर अपनी बेचैनियों वाकिफ थी । यह कोई पहला अवसर न था, पहले भी दो बार नृत्य करते हुए ऐसा हो चुका था । पहली बार तब, जब पूर्णिमा सात साल की थी और दूसरी बार जब वह मैट्रिक में पढ़ा करती थी । पहली बार ही डॉक्टर ने जाँच करके ज़ाहिर किया था कि उसके दिल में सुराख़ है जो उसकी बढ़ती हुई उम्र के साथ-साथ बढ़ता चला जा रहा था। जब-जब दिल की धड़कन तेज़ होगी, उसके दिल पर दबाव बढ़ने का डर बना रहेगा । डॉक्टरों ने तो निर्मला देवी को यहाँ तक आगाह किया कि नृत्य कला का यह शौक पूर्णिमा के लिए ख़तरे से खाली न था । नृत्य के दौरान दिल की धड़कन की रफ़्तार इतनी तेज़ हो जाती है कि आम इन्सान को भी ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ती है । पूर्णिमा तो... ! इस हक़ीक़त को निर्मला देवी ने माँ होकर जाना, पल-पल जिया और भोगा । हर सच्चाई के दौर से सामना करते हुए वह इस बात से बहुत भली तरह वाक़िफ़ थी । सबसे ज़्यादा दर्दनाक बात तो यह रही कि वह अपनी बेटी के लिए कुछ भी न कर पाने की बेबेसी महसूस करती रही, खामोश आँसू बहाती रही, पर उसका न उपचार बन पाई, न जुटा पाई ।  

            पाँच साल की उम्र से ही पूर्णिमा ने इस कला की शिक्षा पानी शुरू की । गाना और नाचना दोनों साथ-साथ चलते रहे, पर जल्द ही उसे गाने की इच्छा को त्यागना पड़ा क्योंकि गाते समय साँस रोककर सुर लगाने में दुशवारी पैदा हो रही थी । और संगीत बिना रियाज़ के कहाँ पूर्ण होता है ? पूर्णिमा ने संगीत तज दिया पर नृत्य से ख़ुद को कभी भी अलग न कर पाई ।  माँ के हर तर्क का जवाब उसके पास था- ‘अगर मैं शरीर हूँ तो नृत्यकला मेरी आत्मा है, अगर आत्मा शरीर से जुदा कर दी जाए तो शरीर मुर्दा हो जाएगा । अगर नृत्य मुझसे छुड़ाया जाएगा तो मैं भी मर जाऊँगी ।’ बस यहीं आकर हर तर्क के सामने एक माँ तो नहीं, निश्चित ही माँ की ममता हार जाती थी ।

            जब पूर्णिमा मैट्रिक में थी तब अलविदा पार्टी में नृत्य संगीत का भी आयोजन किया गया था । पूर्णिमा ने माँ की, और डॉक्टर की सलाह को नज़र अंदाज़ करते हुए नृत्य में भागीदारी ली । रियाज़ करते-करते वह थक कर निढाल हो जाती और हाँफने लगती । जैसे प्यार और जंग में सब उचित होता है, उसी प्रकार पूर्णिमा को भी लगा कि जीवन के साथ जुड़ी यह मौत की छाया भी उसके साथ-साथ रहेगी जब तक उसके जीवन की साँसें सलामत है । जीवन जीना भी तो जंग है और निरंतर जूझते रहना एक संघर्ष की तरह, जिसका सामना करना जंगे-मैदान में हो या सुविधाओं की सेज पर। इसी तर्क से वह खुद को, माँ को तसल्ली दिया करती थी । इस संघर्ष की राह पर कभी पैदल चलकर, कभी दौड़ते, कभी हँसते-नाचते, कभी स्ट्रेचर पर लेटे, वह अपने इस इकलौते शौक़ को संघर्ष का एक हिस्सा मानकर बड़े साहस के साथ आगे बढ़ती । उसके इस जुनून की बेइंतिहाई पर, इलाज करने वाले डॉक्टर भी हैरान हुआ करते ।

            डॉक्टर ममता अक्सर पूर्णिमा और उसकी माँ निर्मला देवी के साथ प्रोग्राम के दौरे में भी शामिल रहती थी । क्या जाने  कब, किस दुविधाजनक स्थिति में उसकी ज़रूरत पड़ जाए । कभी तो उसे लगता था कि शायद अभी, हाँ बस अभी, दिल धड़कते-धड़कते थम जाएगा, रुक जाएगा, पर ऐसा आज तक हुआ न था । पूर्णिमा का शरीर रूपी तन, मन मयूर रूपी आत्मा- एक लय, एक ताल पर ज़िंदगी के सुर ताल पर नृत्य करते साँसों का साथ निभाते । आत्मा भी कभी मरती है ? अगर नहीं तो उसका आवरण बना शरीर जिसमें ऐसी अमर आत्मा वास करती है, जो साँसों के साज़ पर रक्स करती है, हर पल, हर क्षण, दिन-रात, आद जुगाद से ... कैसे कुम्हला सकता है ।  

            पूर्णिमा की ऐसी बातें सुनकर डॉक्टर भी हैरान हो जाते थे जब वह दलीलों के तौर पर अपनी चाहत को ज़िंदा रखने के लिए पेश करती। ऐसे मौकों पर वे मुस्कराते हुए बाहर आते, निर्मला देवी को आश्वासन देकर उसे पूर्णिमा के होश में आने का इंतज़ार करने को कहते । वह सिर्फ माँ थी , माँ जो अपनी ममता के आगे बेबस, कमज़ोर थी ।  कुछ न कर पाने की बेबसी के सिवा, एक काम जो वह निष्ठा से किया करती... वह है पूर्णिमा के आस-पास रहते हुए उसके होश में  आने का इंतज़ार करना। वह जानती थी कि बेटी जब-जब ज़्यादा वक़्त नाचेगी उसे फिर-फिर इस दौर से गुज़रना होगा, पीड़ा को भोगना होगा, उन पलों को जीना होगा। यही नियति है ।

‘मैडम आप मरीज़ से मिल सकती हैं ।’ यह नर्स की आवाज़ थी ।                      

निर्मला देवी ने कमरे में भीतर आकर बेटी के चेहरे पर एक नूर देखा, लगा जैसे किसी ने अजंता-एलोरा की मूर्ति में जान फूँक दी हो। पूर्णिमा का माथा दमक रहा था, आँखें विनम्रता की नमी से उजली, होंठों पर जीवन के विश्वास के साथ एक भरपूर मुस्कान, जैसे अनन्त से आती हुई धुन पर थिरकती हुई उसकी धड़कन विलीनता में डूबी हो, जहाँ शरीर और आत्मा दोनों  घुल-मिल गये हों ।  

            निर्मला ने थोड़ा आगे झुककर उसका माथा चूमते हुए कहा ‘अगले महीने  पूर्णमासी की रात’ के लिए ग्रीन इन्सिट्यूट वाले तारीख़ माँग रहे है, उनसे क्या कहूँ?’

‘वही जो हमेशा कहती हो !  तुम्हारी आशीष से ही मैं तुम्हारे हर डर को झूठा साबित करके, तुम्हारी हर नाराज़गी से बच जाती हूँ । इसलिए तुम खुशी-खुशी हाँ कर दो माँ । दो-तीन दिन यहाँ आराम, दो तीन दिन घर में आराम, फिर वही सिलसिलेवार थकान ! हर पड़ाव पर रुकना, सांस लेना और फिर मंजिल की ओर आगे और आगे चलते रहना ही तो जीवन है । माँ, मेरी प्यारी माँ ! चलने दो, यूँ ही चलने दो इस सिलसिले को । हाँ, एक शर्त है, मेरे सफ़र में तुम ही मेरी हमसफ़र रहो, तुम्हारे कदमों के नक़्शे-पा पर चलते हुए मैं ज़िन्दगी का सफ़र तय करूँ । तुम मेरी कश्ती और तुम ही खिवैया हो, तुम्हें ही इसे पार लगाना है !’ कहते हुए पूर्णिमा ने आँखें बंद कर ली जैसे वह सच में ही आराम की तलबगार हो ।

            ‘चल पगली, चल अब बस कर । जानती हूँ कि तू गुणी और ज्ञानी है । इस में कोई शक नहीं, मैं ही तेरी नाव और तेरा खिवैया। अब चुप रहकर थोड़ी देर आराम कर ले’ कहते हुए निर्मला देवी ने उसके सर पर स्नेह भरा हाथ फेरते हुए उसके माथे को चूम लिया। उसे यक़ीन-सा होता जा रहा था कि पूर्णिमा ने अपने जीने के मक़सद को पहचाना है, और साथ में जीने की कला पर भी महारत पा ली है!

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 देवी नागरानी जन्म: 1941 कराची, सिंध (पाकिस्तान), 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, (एक अंग्रेज़ी) 2 भजन-संग्रह, 8 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह,  चौथी कूट (साहित्य अकादमी प्रकाशन, अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक-धारवाड़, रायपुर, जोधपुर, महाराष्ट्र अकादमी, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। साहित्य अकादमी / राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत।

संपर्क 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050 dnangrani@gmail.com 

 

 

 

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