अंक 35वर्ष 10जनवरी 2017

कृष्ण धरावासी के उपन्यास "राधा" की सातवीं किस्त

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ब्रजवासी गोप कृष्ण की बातों को लेकर यशोदा के चरित्र पर ऊँगली उठाने लगे तो यशोदा ने पीड़ा और अपमान से खाना पीना छोड़ दिया। किसी स्त्री के लिए उसके सतीत्व पर उठाया गया सवाल सबसे अधिक लज्जाजनक होता है। माँबाप से बिलकुल भिन्न रूप और स्वभाववाले कृष्णरूप को देखकर ब्रजवासी खुली चर्चा में उतर आए थे, यशोदा कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रही। स्त्रियाँ तो तिसपर अनेक बातें जोड़कर फैलाने में लगीं थीं। यशोदा की संगिनियाँ कम आने लगीं थीं। एक तरफ तो कृष्ण के नटखट से उन्हें बहुतों से लड़ना पड़ा था, दूसरी तरफ इस चर्चा से स्त्रियाँ उनसे दूर होती गईँ थी।

यशोदा की यह हालत देखकर नन्द राय चिंता में पड़ गए। उधर वृषभानु के गाँववालों ने भी इस बात को चर्चा का विषय वना डाला था। सारे जनपद में यशोदा के चरित्र की धज्जियाँ उड़ाई जा रहीं थी। नन्दराय कुछ कहने की अवस्था में नहीं थे। कभीकभार वे कृष्ण से अति क्रोधित हो जाते। उन्हे लग रहा था वर्षों से छिपाकर रखे हुए एक भयानक रहस्य को अब खोलने का वक़्त आ गया था, लेकिन कैसे, क्या यशोदा सहन कर पाएगी ? अभी तो वह शोक में डूबी हुई है, अगर कहा गया तो और बुरा न होगा ? नन्द राय खुद तनाव में डुबे रहने लगे।

एक दिन उन्होंने यशोदा को समझाते हुए कहा - "देखो, प्रिय ! तुम क्यों बेकार की चिंता लेती हो ! समाज में अनेक किस्म के लोग होते हैं, अनेक विचार होते हैं। अगर उन बातों पर ध्यान देकर वास्तविकताको भूलने लग गए तो बहुत दुःख में पड़ जाएँगे हम।"

यशोदा ने कहा - "यह उतनी साधारण बात नहीं है, यह तो एक नारी के सतीत्व(अस्मिता) पर उठाया गया प्रश्नचिन्ह है। जवान होते बेटे को दिखाकर पिता के ऊपर उठाई गई उँगली है। आज इस उम्र में मेरे बेटे के पिताजी पर जब समाज ऐसे सवाल करता है तो मेरे उपर क्या गुजर रही होगी ? मैं आपकी धर्मपत्नी हूँ। मैं आपसे कुछ पलों के लिए भी अलग नहीं हूँ, लेकिन कृष्ण को दिखाकर आपको सवाल किया गया है। क्या मैं परपुरुषगामिनी हूँ ? क्या मैंने किसी और के वीर्यदान से उसे जना है ?"

"तुम्हें ऐसा किसने कहा भद्रे ! मन में ऐसे अनावश्यक विचार खुद ब खुद मत लाओ। अगर मन में गलत विचारों ने घर कर लिया तो सबसे बड़ा रोग ही वही होगा। अगर खुद को ही अविश्वास किया जाय तो यह जीवन का अंत नहीं है ? इस सांसारिक जीवन में कितनी ऐसी बातें हैं जो हमें चाहे अनचाहे स्पर्श करती रहती हैं, यह तो अपने पर निर्भर है कि उन्हें कितनी तवज्जो दिया जाए। अगर खुदको भूलकर हवा के संग बहने लगे तो हम निरुद्देश्य हो जाएँगे। देखो, मैं तुम्हारा पति तुम्हारे सामने हूँ। तुम अनाथ नहीं हो, तुम विधवा नहीं हो, तुम अविवाहित माँ भी नहीं हो। यशोदा, एक दिन ऐसा आएगा की सब अपनी गलती स्वीकार कर तुमसे माफी मांगने आ जाएँगे। कृपया धीरज रखो।

" हे देव ! यह इतनी आसान बात तो नहीं है। एक स्त्री के लिए उसके चरित्र पर सवाल उठना, उसके लिए जीवनमरण का सवाल है। मैं किसे किस तरह से साबित करूँ कि जो वे सोच रहे हैं वह सब मिथ्या है।"

"ऐसी बातों की साबिती नहीं होती, यशोदे। ऐसी बातों को तो अपने ही आत्मबल और सत्य से हराना होता है। कालक्रम में सभी चीजें विनाश होती जाएँगी। ये सभी आरोप-प्रत्यारोप भी कालांतर में मिथ्या साबित हो जाएँगे। इतिहास में इन सबका कोई महत्त्व नहीं रहेगा, सत्य अपना शिर ऊँचा करके रहेगा।"

"लेकिन अग्निपरीक्षा के बाद एक धोबीका वचन भी भगवान् राम सह नहीं पाए। आप इतने सारे गाँववालों की आरोपों को कैसे बरदाश्त कर रहे हैं ?

"मैं राम जैसा महान नहीं हूँ यशोदा। मैं तो एक साधारण गोपाल हूँ। मैं जनता हूँ। मेरी हर चीज छोटी है। मेरी प्रतिष्ठा अयोध्या में राम की प्रतिष्ठा की भाँति प्रचारित नहीं होगी। तुम चिंता मत करो। मैं राम जैसा आत्मविश्वासहीन और झूठी मर्यादा का अहम पालने वाला बढा आदमी नहीं हूँ।"

यशोदा कुछ नहीं बोलीं। अपने पति की तरफ एकटक देखती रही। उन्हें लगा - उनके पति उनसे भी ज्यादा मानसिक तनाव में हैं। उनके पति को तो उनको पौरूष के प्रति ही आरोप लगा था। अपनी पत्नी किसी दूसरे की गर्भधारिणी होने का आरोप लगा था। वै कैसे इन सब को झेल रहे हैं, मन में ? ऐसी सोच से पति के प्रति यशोदा के मन में प्यार उमड़ आया। आँखों से आँसू बह निकले।

नन्द राय ने कहा - "यशोदा ! एक दिन तुम इसी प्रसंग की चर्चा करते हुए हँसोगी। समय हर मर्ज की दवा है। आज बेटे को सामने खड़े देखकर प्रसब पीड़ा याद होती है क्या ? उसी पीड़ा को भूलकर ही तो बेटे को बड़ा किया है, है न ?"

यशोदा कुछ भी नहीं बोली। उठकर भीतर चली गईं।

नन्द राय गहरे तनाव में पड़ गए। वास्तव में यशोदा के मन में जो आँधी चल रही थी वह सामान्य बात नहीं थी। उस रात का वह काम आज यह रूप में आएगा, यह तो अंदाजा था लेकिन, उसे सार्वजनिक करना इतना कठिन होगा, यह पता नहीं था। कृष्ण को बड़ा करने में जो कष्ट हुए थे वे असाध्य थे। भविष्य तो बाकी ही था। बड़े होते हुए कृष्ण को भी समाज से उठाए गए सवालों ने तनाव में न रखा हो, ऐसी बात नहीं थी। नन्द जी को लगा - भविष्य बड़ा भयावह होकर आ धमकेगा।

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मूल नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी

अगले अंक में जारी...............

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