अंक 37वर्ष 10दिसंबर 2017

मुक्ति

- रामलाल जोशी

उस दिन नैनदेवी मंदिर का परिसर सुनसान था। माता नैनदेवी भगवती के प्रांगण में आरती की ज्वाला नहीं जल रही थी। आरती गान नहीं गाया जा रहा था। मंगल ध्वनि भी नहीं गूंज रही थी। सदा उल्लासमय रहनेवाला नैनदेवी मंदिर परिसर उस दिन उजाड़ और उदास था। मंदिर के पिछवाड़े से गुरु गोविंद बहुत ही शांत और गंभीर मुद्रा में आते हुए दिखाइ दिए। उनके चेहरे में चंचलता नहीं थी, न ही होठों में मृदु मुसकान बिखरा हुआ था। और, उनके मुखारविंद से वाग्धारामय मंत्र भी उच्चरित नहीं हो रहे थे।

मैंने देखा उन्होंने अपने गेरू वस्त्र उतार दिए थे। उनका सफेद लिबास सफेद फूलों के चित्रों से ढका हुआ था और सफेद लिबास में वे शांत, साफसुथरे और स्निग्ध दिख रहे थे। दूध से सफेद चेहरे पर निकल आई पसिने की बूँदों को हाथ से पोंछते हुए वे उसी पीपल के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गए जिस पर पहले से ही मन के हजार ज्वार-भाटाओं को दबाए उसी तरह शांत और गंभीर मुद्रा में भावविहीन रुबसी बैठी थी।

किसी दिन करुणा ने मुझ से कहा था – "राजु ! रुबसी नाम देकर इस शहर में मुझे सबसे पहले पुकारनेवाला वही है।"

हाँ, उस वक़्त कैलाली कॉलेज में पढ़ने वाले नए साथीयों में वही सच में रुबसी थी। अकेली रूप-सुंदरी, करुणा शाही। उस वक़्त करुणा ने बहुत से युवकों के दिल में हलचल मचाया था। उसके रूप, सुंदरता, बढ़ती जवानी, चंचल मिजाज से समवयस्क ही नहीं देखनेवाले सभी मोहित हो जाते थे।

गोविंद भट्ट, हाल ही में बैतडी पहाड़ से धनगढ़ी उतरे थे। उनके चालढाल और तौर तरिके गाँववालों के ही थे और उनको सुहाते भी थे। शायद त्रिपुरसुंदरी के प्रभाव से हो, वे भजन बहुत अच्छी तरह से गाते थे। नैनदेवी मंदिर में हर शनिवार शाम को होनेवाले भजन-कीर्तन कार्यक्रम में वे अपनी जादुई आवाज बिखेरते थे और हम सहपाठी सुनने पहुँचते थे। उनकी जादूभरी आवाज में कब करुणा मोहित हो गई पता नहीं चला। उसके बाद अचानक आज से बारह साल पहले मार्गशीर्ष के ८ वें दिन नैनदेवी मंदिर में उन्होंने एक दूसरे को स्वयंवर की मालाएँ पहनाईं। मेरे साथ गोविंद के कुछ और सहपाठी और करुणा की कुछ सहेलियाँ इस स्वयंवर के गवाह बने।

जिस जगह पर आज से १२ साल पहले उन्होंने एक दूसरे को जीवनभर के लिए अपनाया था, उसी जगह, मंदिर के उसी प्रांगण ने, आज कितना हृदयविदारक और करूणाजनक दृश्य दिया, वह बताने से पहले मैं उनके जीवन के १२ वर्ष के जीवनयात्रा में दिखी कुछ घटनाएँ याद करना चाहता हूँ जिसमें मैं भी सामिल था -

शादी के पाँच साल के भीतर उनके तीन बच्चे हुए – मनु, विपाशा और उद्देश्य। इन पाँच सालों के बाद गोविंद ने घर छोडा। शायद संगीत के प्रति अनुराग और प्यास मिटाने के बहाने बनारस जाकर संगीत पढ़ने की आंतरिक इच्छा से हो या बेरोजगारी की पीड़ा भुलाने हेतु दिल्ली जाकर कुछ कामवाम करने की इच्छा से हो। जो भी हो, वे रुबसी और बच्चों को छोड़कर चले गए।

पाँच साल बाद मैं धनगढ़ी के एक प्रतिष्ठित निजी स्कूल में मास्टरी करने लग गया था। एक दिन सुबह रुबसी अपने चार वर्ष के बच्चे मनु को लेकर स्कूल में दाखिला कराने आई। उस वक़्त तक लोगों के हाथों में मोबाइल फोन आ गए थे। अपने मोबाइल से खेलते खेलते वह मेरा नंबर भी ले गई। ऐसी मुलाकातें तो होती रहती हैं। यह कुछ उल्लेखनीय मुलाकात नहीं थी। मैंने रुबसी के बारे में सोचा भी नहीं था न ही उसे याद किया था।

शायद महिना भर बाद हो ! रात के करीब ग्यारह बजे होंगे, एक लड़की का फोन आया जिसका नाम उसने करुणा बताया। उसकी आवाज अस्फुट थी, तकरीबन अवरूद्ध गले से बोल रही थी। बोली – "अकेली हूँ, असहाय हूँ, छटपटा रही हूँ, कर सको तो मुझे अस्पताल ले जाओ।"

मैं बेचैन होकर बिस्तरे से उठा। रात का वक़्त था। गोविंद घर में नहीं था। शायद कुछ परेशानी हो गई हो। बिमारी के वक़्त मद्दत करना तो मनुष्य का धर्म है। लगा, अगर मित्र मानकर इतना कह गई है तो मुझे जाना ही होगा। मैं जल्दी से करुणा के घर पहुँचा। पहुँचते पहुँचते बाह्र बज गए थे। घरका फाटक खुला था। दरवाजा खुला था। मैं सीधे भीतर पहुँचा। कमरा खुला था, बत्ती जल रही थी, टीभी चल रही थी। मैं करुणा के बिछौने के करीब पहुँचा।

ओह माय गॉड.............! बत्ती के उजाले में बिस्तरे पर मानों मानव आकृति बनाकर दूध पसरा हुआ था। मेरी आँखें चुंधिया गईं। लगा हजारों तारे आकर आँख में प्रवेश कर रहे हों। मैंने करुणा का ऐसा बदन कभी नहीं देखा था। करुणा यह सब करने के लिए साहस कैसे जुटा पाई ? उसका शरीर पूरा का पूरा वस्त्रहीन था। कपड़े का एक धागा भी नहीं था।

उफ् !

बिमार करुणा !

मदहोश करुणा !

अर्धमूर्छित करुणा !

खिड़की में परदे लगे हुए थे। आँखों की पलकें बंद थीं। पीपल के पत्तों से होंठ मौन थे। था तो केवल बिस्तरे में पसरा दूधसा मदहोश बदन। बदन के भीतर मंद धड़कन। धड़कन के भीतर कुछ कुछ। दूसरे कमरे में बच्चे गधे-घोड़े बेचकर सो रहे थे। बाहर दूर कहीं कुत्ते भौंकते सुनाइ देते। लगा अपने बदन के भीतर कहीं भूचाल आ गया है।

"करुणा !"

मैंने उसीका नाम लेकर उसे हिलाया। नींद का बहाना कर रही वस्त्रहीन करुणा ने उहुँ कहते हुए अपना दाहिना हाथ मेरे झुके हुए गर्दन में लपेटा। मैं करुणा को इस हाल में छोड़कर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। चाहकर भी मैं उसे छोड़कर जाने की अवस्था में नहीं था। करुणा से भागकर कायर बनूँ, यह भी मन में नहीं आया। मैंने अपना हाथ उसके ललाट पर रखा, बुखार नहीं था। धड़कन सुनी, बिमारी के कुछ भी आसार नहीं थे। शरीर देखा, रोग के लक्षण नहीं थे। तब था क्या ?

छाती में दूसरा धड़कन था। दिल में कुछ तेजी से हिल रहा था। यौवन की धधकती ज्वाला थी। मदहोश बदन था। उसने मुझे दोनों हाथों से लपेटकर अपने बाहुपाश में कस लिया।

जब उसने अपना मुँह मेरे मुँह के करीब कर लिया, ओहो, अब पता चला – गंध और दुर्गंध में करुणा मदहोश हो गई थी। शराब के नशे में वह धुत्त थी। यौवन का उन्माद ने उसे जगाए रखा था। अस्फुट आवाज में वह कहती गई – "तुम्हें कितना चाहा... मेरे राजा...!"

घटनाएँ जीवन में बेहिसाब घटतीं हैं, परन्तु एक ही घटना जिन्दगी के हिसाब-किताब को उलट पलट के रख देती है। प्रेम और यौन अपरिभाषित रहस्यों के भीतर के जीवनवृत्त हैं। ज्यादातर रातें प्रेम और यौन से जुड़ी हुई होती हैं। लेकिन एक रात – जो मेरे जीवन में अतुलनीय और अद्वितीय महत्त्व रखती थी – वह रात करुणा के संग की रात थी। उसी रात से मैं करुणा का हो गया। करुणा मेरी हो गई। वह अपनी अप्रकट आहें भरती रही और मैं अपनी चट्टानी कठोरताएँ पिघलाता रहा। एक दूसरे के दिलों में मौन संवादें लिखी गईं। दो बदन एक होकर जहाँ दूसरे लोग प्रेम को अंतिम रूप देते हैं, वहीं से करुणा और मेरा प्रेम शुरू हो गया।

उसके बाद मैंने उसे कितनी बार और उसने मुझे कितनी बार भोगा, इसका कोई हिसाब किताब नहीं है।

सात साल के बाद जब गोविंद लौटा तो करुणा और मैं एक दूसरे में खो चुके थे। गोविंद से छिपकर मिलते रहने का सिलसिला जारी रहा।

गोविंद ?

गोविंद वही गोविंद नहीं था। बनारस के आध्यात्मिक शिक्षा, दीक्षा और चेतना से वह परिपक्व, शालीन और तपस्वी बनकर लौटा था। धनगढ़ी के आध्यात्मिक कार्यक्रमों में वह आकर्षण का प्रमुख बनता गया। नैनदेवी मंदिर व्यवस्थापन समिति के अनुनय-विनय के पश्चात् वह मंदिर का मूल पुजारी बन गया था।

नैनदेवी मंदिर में शाम को भजन-गान का सिलसिला वैसे ही शुरू हो गया जैसे बारह साल पहले हुआ करता था। गोविंद की आवाज में जादू और बड़ गया था। हम पहले की ही तरह भजन में शामिल होने लगे। वही नाच-गान, वैसा ही भजन-कीर्तन, वैसा खुसनुमा माहौल फिर से लौट आया था। करुणा और मैं एक दूसरे लिए ही कार्यक्रम में जाने लगे, और मगन भी होने लगे। हमने इसे अपने प्रेम और सान्निध्य के अच्छे अवसर के रूप में लिया। जब शाम कें धुंधलके में पंचपाला में दीप जलाकर घुँघरू की ताल में आरती-गान किया जाता था तो लगता यह देवी की आरती नहीं है बल्कि हमारे प्रेम का आरती-गान है। लगता मेरे और करुणा के प्रेम का पुजारी गोविंद है। दिन ऐसे ही और ऐसा सोचते ही बीतते चले गए।

और ?

और क्या, करुणा मेरी हुई ?

क्या करुणा गोविंद को प्रेम करती रही ?

क्या करुणा मुझे प्रेम करती रही ?

यह बात कहते हुए मुझे शर्म होती है, और ग्लानि भी !

उस दिन गोविंद के नंबर ने मेरे नंबर पर पहली बार आवाज दी थी। जब करुणा के नंबर से फोन आता था तो खुसी की आवाज गूँजती थी – "हाई !" लेकिन सुबह सवेरे गोविंद का नंबर देख मेरा मन चौंक गया। कुछ अप्रत्याशित सुनने के डर से दिल की धड़कन बढ़ गई। शायद गोविंद को हमारी प्रेम कहानी मालूम पढ़ गई है। कुछ ऐसा ही सोचकर घंटी बजते रहने दिया। अंतिम घंटी तक दिल की धड़कन भी बढ़ती गई। साहस बटोरकर अंतिम में फोन उठाया। मेरी आवाज कांपने लगी थी। उधर से गोविंद की वही प्रवचनमय शांत, शालीन और गंभीर आवाज थी –

"प्रियवर प्रणाम ! सूर्य देवता के उदय के साथ ही आपको थोड़ा कष्ट देने की जुर्रत कर बैठा हूँ। क्षमा करें, जीवन के सत्मार्ग भी निरापद नहीं हैं। इस ईश्वर के राज्य में विपत्तियाँ और कष्ट जहाँ कहीँ मौजूद हैं। तृष्णा और मायाजाल आदमी को अधोगति की तरफ लेजानेवाले बंधन हैं। इनसे मुक्त होना कठिन है। फिर भी इससे हमें मुक्त कराना परमपूज्य भगवान्‌का मनुष्यों के प्रति दायित्व है। वही अनुकंपा आज भगवान् ने मेरे उपर की है। कृपया, जैसे भी हो आज पाँव कष्ट करके करीब ८ बजे मंदिर में चले आएँ।"

गोविंद के फोन ने मेरे मन में शंका और आशंकाओं की आँधी पैदा कर दी। मन में अनेक बातों से खेलते हुए मैं आठ बजे मंदिर के प्रांगण में पहुँचा।

कहा न –

मंदिर में शंखध्वनि नहीं गूँज रही थी। मन्त्रोच्चारण और आरती गान भी नहीं गाए जा रहे थे। भक्तजनों की चहल-पहल नहीं थी। वातावरण सुनसान और शांत था। करुणा उदास चेहरा लिए पीपल-वृक्ष के नीचे बने चबूतरे पर बैठी हुई थी। गुरु गोविंद शरण अभी भी शांत, गंभीर और निरपेक्ष मुद्रा में दिखाइ दिए। मेरा मन सशंकित हो चला। आकाश जैसा शांत मन और पृथ्वी जैसी विशाल छाती बनाकर गोविंद ने जो काम वहाँ किया, उससे मैं सिर्फ आश्चर्यचकित नहोकर कल्पना जगत से भी लाखों कोस नीचे डूबता गया। हवा के चाल बगैर, लोगों के शोर बगैर, विश्वासयोग्य आधार बगैर इतनी बढ़ी घटना घटते हुए, मेरे जीवन काल में पहली बार अपनी आँखों से देख रहा था।

विश्वास करने के लिए कठिन यह घटना, जितनी बार भी दुहराई जाए, शायद कम हो। पर सच यही था – गुरु गोविंद शरण ने वहाँ जो किया वही भयावह सच था।

गेरूवस्त्र उतारकर सफेद कुर्ता-सलवार में गुरु गंभीर दिख रहे थे। अपने चेहरे को थोड़ा सा भी विकृत किए बगैर उन्होंने करुणा को स्पर्श किया। हाथ थामकर चूमा। और फिर मंदिर के आगे खड़ी कराया। गेट के भीतर बैठा, चौकीदार से दिखनेवाले इन्सान को हाथों के इशारे से बुलाया। और फिर मंत्रोच्चारण करते हुए, करुणाका हाथ उस बलिष्ठ चौकीदार जैसे इन्सान के हाथ में सौंप दिया।

१२ साल पहले इसी मंदिर की देवी नैनदेवीको साक्षी रखकर प्यारी करुणा को वरण करनेवाले गोविंद ने यह क्या किया ? मैं भी तो करुणा प्यार के गहरे गर्त में डूब चुका था। मेरे लिए यह बात कल्पना से बाहर की थी।

मैंने कैसे इस दृश्य को सह सका । लगा था मैं पाताल में धंसा जा रहा हूँ। लगा हजारों ततैये मेरा शर काटने को आमादा हैं। सपना है या सच, पहचानना मुश्किल हो गया। पर सच वही था। यथार्थ और भयावह सत्य। मैं, शायद गिर न सकने के कारण खड़ा था। करुणा भावविह्वल हो, गोविंद के गले लग गई। गोविंद ने भी आँसू पोंछे। लेकिन कोई बातचीत, छलफल, बहस, तर्क-वितर्क के बगैर करुणा उस बलिष्ठ चौकीदार के पीछे पीछे चल दी। शायद मेरी तरफ देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। लेकिन इस अकल्पनीय दृश्य से मैं इतना ज्यादा पिघल गया कि मेरी आँखों से आँसूओं की धारा बह चली.. बहती गई।

इतनी बड़ी घटना से रत्तीभर भी विचलित न हुए गुरु गोविंद, बिलकुल शांत, शालीन और गंभीर मुद्रा में मुझसे कह रहे थे – "प्रियवर, धैर्य करो ! मुक्ति ही जीवनका उद्देश्य है। हमे मुक्त होना है !"

 ***

नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी

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टिप्पणियाँ

गणेश नेपाली
ऐसि हर्कत बिना झिझक के करनेका सहास सिर्फ कोई दिव्य पुरुष या स्त्री हि कर सकेङ्गे या नही सोचना भि मुस्किल हि नहि असम्भव है लगता है। लेकिन बहुत इस किस्म के अकल्पनीय घटना जब उद्घाटित होते है स्तब्ध होने के लिए मजबुर हो जाते है हम सब। जो अकल्पनीय घटना हमारी आखके समाने वेपर्दा होते है जिवनकी उसी पहलुको प्रतिनिधित्व करता है यह कहानी।

arya bhatta
very good transletion


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