अंक 36वर्ष 10अप्रैल 2017

रस्सी

--किशोर पहाड़ी

कहानी का शीर्षक - रस्सी

रस्सी की भी कहीं कहानी होती है ?

पर यह कहानी रस्सी की ही है- तकरीबन तीन फूट लंबी प्लास्टिक की रस्सी की।

वह रस्सी हरे रंग की थी। वह अव्यवस्थित दरवाजे पर लटकी हुई थी, एक कील से बंध कर। दूसरी तरफ एक लोहे का छड़ दीवार में लगा हुआ था। दरवाजा बंद करने के लिए रस्सी को उसी लोहे के छड़ में फंसाना जरूरी था।

प्लास्टिक के रस्सी को छड़ में फसाने में दिक्कत होती थी क्योंकि रस्सी चिकनी थी। इसलिए जो भी अंदर होते थे उन्हें हरदम चौकसी बरतनी पड़ती थी-अचानक कोई दरवाजा न खोल ले।

चौकसी इसलिए बरतनी पड़ती थी क्योंकि वह दरवाजा पूर्णमान के घर के संडास का था।

चौकसी भीतर बैठनेवालों को ही नहीं बाहर से भीतर जानेवालों को भी बरतनी पड़ती थी। गीत गुनगुनाते हुए जाओ नहीं तो पैर पटकते हुए। धीरे से दरवाजा खोला तो दोनों को आफ़त।

अब आप ही कहें- पूर्णमान के अंदर रहते यदि उसकी बहू ने दरवाजा खोला तो ? मां भीतर पायखाना कर रही है और बेटे ने दरवाजा खींच लिया तो- एक आशंका तो बनी रही   न !

फिर भी तीन फूट लंबी हरे रंग की रस्सी लटक रही है- निस्प्राण। पूर्णमान के लिए काम चल रहा है। उसके बेटों, उसकी मां, पत्‍नी और बेटी को भी चल रहा है।

पर एक दिन जमाई को मुश्किल का सामना करना पड़ा, वह भी ससुराल में पहले दिन। वे ससुराल आए ही थे और जब जमाई संडास गए तो सिटकनी नदारद !

रस्सी !

रस्सी को कहां फंसाया जाए, वे हैरान हो गए थे और रस्सी को पकड़े पकड़े ही पायखाना किया था।

उस दिन जमाई ने पूर्णमान की बेटी को उसके कंजूस होने पर टोका था और मियाँ- बीवी के बीच कुछ कहासुनी भी हो गई थी।

पर पूर्णमान को कंजूस नहीं कहा जा सकता । वह अच्छे कपड़े पहनता है, अच्छा खाता है, खिलाता है। कपड़े तो पूर्णमान से ज्यादा उसकी बीवी पहनती है- पैंतीस सौ की साड़ी। उस साड़ी के लिए पैंतीस सौ देते वक़्त पूर्णमान को बहुत मानसिक पीड़ा हुई थी।

कम से कम आठ बार गिना था उसने उन करारे नोटों को। यूं तो वह जो पैसे रखता था, उन्हें कितनी बार गिनता था, कहना मुश्किल है।

पैसे बढ़ते भी नहीं थे, घटते भी नहीं थे। पर वह गिनना नहीं छोड़ता था। पूर्णमान जब तर्जनी को जीभ पर लगा कर पैसे गिनता था तो उसका पोता बिजू देखता रहता और कहता- "दादा ! मुझे पैसे दो न, मैं मोमो खाऊंगा।"

"धत् ! कहीं मोमो खाते हैं, बहुत बसा होती है छी !" और पूर्णमान झट् पैसे छिपा लेता।

"नहीं, देदो न। मैं खाऊंगा।" पोता जीद पकड़ता। दादा झट सेफ में ताला लगा लेता।

हां ! मोमो इसलिए नहीं खाना है कि उसमें बसा होती है। जो भी हो, सेफ में रखे पैसे से तो हरगिज नहीं।

हर सुबह एक बार पूर्णमान सेफ के पैसे गिनता है। फिर शाम को भी गिनता है।  नोटों की गड्डी को बारबार सहलाता है। फिर आश्वस्त हो उठता है।

फिर भी संडास के दरवाजे पर वही प्लास्टिक की रस्सी लटकी हुई है।

बीवी तीन-चार हजार की साड़ी पहने टैक्सी की सवारी करती है। चल रहा है।

पोता हरदम मोमो खाने की बात करता है। दादा हर बार “बसा है” कहकर टाल जाता है।

और पूर्णमान का लड़का ?

वह एकदम अनूठा है। पूर्णमान ने बेटे के लिए एक कोल्डस्टोर खोल दिया है। बेटा सीधासादा है और बहू उसी के साथ दुकान में रहती है। दुकान में व्यापार अच्छा ही चल रहा है। हर शाम दुकान की आमदनी के पैसे उन्हें पूर्णमान को देने होते हैं।

बेटा तो सीधा है पर बहू चालाख। दिनभर की बिक्री से आए पैसों में से वह कुछ दबा जाती है। पूरा नहीं देती घर में। चालाख है, कहती है- “बिक्री कम हो रही है।” पर थोड़े से पैसे अपने थैले में डाल ही लेती है।

बेटे-बहू भी वही संडास का प्रयोग करते हैं जिसके दरवाजे पर प्लास्टिक की रस्सी लटकी हुई है।

पूर्णमान को यदि पैसे खर्च करने होते थे तो उसे मानसिक पीड़ा होती। घर के सब लोग जानते हैं, छोटा बिजू भी जानता है।

इसलिए एक दिन बिजू ने अपने दादा से पूछ बैठता है- "दादा ! आपके पास बहुत पैसे हैं, हैं न ?"

"हां हां। चूप हो जा।" पूर्णमान ने नाक सिकोड़ते हुए कहा।

"क्यों  सिर्फ जमा करके रखते हो ? खर्च भी करो न।"

"क्यों खर्च करूं ? क्यों ?" क्रोध भरी आवाज में पूर्णमान ने कहा- "खर्च करने से तो सब पैसे खत्म हो जाएंगे।"

"खर्च न करने पर उनमें सीलन आ जाएगी !" ताली पीटते हुए हंसा बिजू।

पूर्णमान गंभीर बन गया। उसने अपनी भाषा में बिजू को पास बुलाया और उसका शिर सहलाते हुए प्यार जताया- "देख बिजू ! ये पैसे जमा किए हैं न मैंने तेरे लिए। बाद में तू बड़ा हो जाएगा। तूझे पढ़ना भी है। तेरा बाप तो सुस्त है....अपने पास पैसे हैं, यही विचार से ही मुझे कितना सुकून मिलता है।"

बूढ़े दादा ने जब बिजू का शिर और पीठ सहलाया तो वह खुसी से फूल गया। कितना प्यार करते हैं दादा मुझे, सच तो है पैसे सेफ में ही अच्छे।

पर बूढ्ढा कभी जरूरत की चीज भी नहीं खरीदने देता। मनपसंद खाने की चीजें भी कभी नहीं खरीदने देता। बसा होती है। धत् !

आइसक्रिम चाहा तो कहता है “ठंड लग जाएगी”। मोमो की फरमाइस की तो “बसा होती है”। चॉकलेट मांगू तो “दांत में कीड़े पड़ जाएंगे”। पैसे खर्च न करने के अनेक बहाने। वैसे पैसे होने से तो न होने ही अच्छे।

पर उस दिन बिजू का शिर और पीठ सहलाते हुए पूर्णमान ने उसको सिट्ठीवाले चॉकलेट के लिए पैसे दिए थे। पूरे दश रूपये।

"मांस नहीं खाते, दिल की बिमारी हो जाएगी।" कहनेवाला बूढ्ढे ने उस दिन "लो ! कलेजा ला कर भून कर खाओ।" कहकर आधा किलो कलेजे के लिए पैसे भी दिए थे।

बिजू दंग रह गया था। बकरे के दो टुकड़े कलेजे खाने को मिले थे बिजू के दब्बू बाप को भी और वह भी दंग था। सब दंग थे।

पर वह बात सिर्फ एक दिन की थी। प्रायशः पूर्णमान मांस, चॉकलेट आदि के लिए पैसे खर्च नहीं करता।

पर बिजू को मोमो बहुत ज्यादा पसंद है।

घर के पास ही मोमो की नई दुकान खुली है, और बिजू हरदम यही धुन लगी रहती है कि कैसे मोमो मिले।

एक दिन मां बाप दुकान में थे। दादी से मोमो के लिए पैसे मांगे तो दादी ने “नहीं है” कहकर टाल दिया। दादा तो देने से रहे। पर दिल था कि मोमो में ही अटका हुआ था।

फिर बिजू ने एक उपाय निकाला- क्यों न घर के पुराने सामान बेचकर मोमो के लिए पैसे जुटाए जाएं। घर के हर कमरे को छान मारा और पुराने अखबार जमा कर लिया। अखबार का छोटा सा पुलिंदा तैयार हो गया पर बांधे किस चीज से ? उसने फिर हर कमरे में कुछ ढूंढ़ा जिससे अखबार के पुलिंदे को बांधा जाए पर उसे कुछ नहीं मिला।

उसने फिर रस्सी जैसी कोई चीज ढूंढ़ी, हर कमरे में, किचन में, बैठक में, पलंग के नीचे, बक्से के ऊपर पर उसे कुछ नहीं मिला। अचानक उसे संडास की रस्सी याद आई, और वह इधर-उधर देखते हुए संडास की तरफ लपका। बालबुद्धि और मेहनत से उसने रस्सी निकाला और अखबार के पुलिंदे को बांधा।

"खाली बोतल ! पुराने कागज !!" सुनते ही वह उछल पड़ा और अखबार ले जाकर उसे बेच दिया।

बिजू को उस दिन एक प्लेट मोमो के लिए पैसे मिले। वह दंग था। मन ही मन सोच रहा था- इसलिए तो किताब में “बल से बुद्धि बड़ी” लिखा है।

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बिजू जब मोमो का पहला ग्रास मुंह में डाल रहा था, उधर पूर्णमान संडास में ढुक गया। अभ्यस्त हाथों से उसने रस्सी पकड़ने की कोशिश की पर उसे रस्सी नहीं मिली।

चौंक गया वह। फर्स पर देखा, दरवाजे के बाहर देखा, ऊपर देखा, नीचे देखा पर रस्सी कहीं दिखाई नहीं दी। संडास के पैन के खोह तक उसने देखा।

फिर वह आगबबूला हो गया- "संडास की रस्सी कहां गई ?"

"रस्सी कहां गई ?"

"संडास की रस्सी कहां गई ?" बीवी से पूछा उसने।

"मालूम नहीं। सिर्फ मुझे ही कहते हैं।"

बिजू को भी पूछा उसने जो अभीअभी घर में घुसा था।

"मुझे नहीं मालूम।"

अब पूरे घर में दूसरे रस्सी की तलाश शुरू हुई। बिजू को तो मालूम था कि रस्सी घर में नहीं है। पर वह भी खोजने का अभिनय करने लगा। पूर्णमान और उसकी बीवी ने घर के हर कोने छान मारे एक छोटी सी रस्सी के लिए।

आप कहते होंगे- "रस्सी की भी कहीं कहानी होती है ?"  हां, पर उस घर में एक रस्सी की छोटी सी टुकड़ी भी नहीं मिली।

पूर्णमान निराश हो चला। उसका चेहरा नीला पड़ गया। थक कर अपनी बीवी से पूछने लगा-"ओए, एक तीन फूट के रस्सी के क्या दाम होंगे ?"

"क्यों अब भी रस्सी की बात करते हैं ? एक सिटकनी खरीद लाइए। बेकार में कंजूसी करते हैं।"

पूर्णमान ने तय किया वह सिटकनी ही खरिदेगा। और मैं जब कहानी का अंत करने जा रहा था तो वह हार्डवेयर की दूकान में जाकर पूछ रहा था- "साहू जी  ! एक सबसे सस्ता सिटकनी देना। मजबूत न होने से भी चलेगा, संडास में जो लगाना है !"

 

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नेपाली से रूपांतर : कुमुद अधिकारी

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