अंक 31वर्ष 5मई 2012

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 राधा

 - कृष्ण धरावासी

उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर तंबू से बाहर निकाला। कुछ देर तक सुशीला पीछा करती रही। लेकिन न जाने क्या सोचकर तंबू के भीतर ही रह गई। तंबू के बाहर संसार सुंदरताका परम आश्चर्य था। मैंने सोचा - 'यह पूर्णिमा, यह शीतलता तो पूरी दुनियाँ मे होगी, लेकिन इस सुंदरता जैसा एकांत कही नहीं होगा।'

कूछ दूरी पर पहुँच कर कृष्ण ने मेरा हाथ छोड़ दिया और एकटक मेरा चेहरा देखने लगे। मैं उनसे आँखें चार नहीं कर पाई। पता नहीं, लज्जा, संकोच, प्रेम या कुछ ऐसा ही मेरे आड़े आकर मुझे झुकाते रहे। मेरी आँखें जमीन में ही धँस गईं।

कृष्ण ने आहिस्ता से मेरी ठोड़ी उठाई और मेरी आँखों की ओर देखने लगे। कहने लगे - 'राधे, मैं समझता हूँ तुम्हारे मन की बात। मैं जानता हूँ तुम क्या चाहती हो। तुम्हारे शक से भी वाकिफ़ हूँ। तुम निश्चिंत रहो और आज के आयोजन में शरीक हो जाओ।'

मैंने उनके चेहरे की तरफ देखा। मुझे लगा ऐसे सुंदर पुरुषका तो कोई भी कलाकार नहीं कर सकता। देखते देखते मेरा बदन ढीला(शिथिल) पड़ गया। मैंने उनके सीने में अपना शर रख दिया। कृष्णका एक हाथ मेरी पीठ पर था और मुझे सहारा दे रहा था और दूसरा हाथ बालों को सहला रहा था। उन्होंने कहा - 'राधे, तुम सखियों के पास जाओ और संगीतमय वातावरण तैयार करो। कुछ देर मनोरंजन के बाद पाक कार्य में लग जाएँगे। फिर नाचेंगे गाएँगे। आज की पूरी रात हम इसी तरह बिताएँगे।'

पता नहीं कहाँ से मेरे अंदर जोश और फूर्ति भर आई। एक शब्द भी मुँह से न निकालते हुए सखियों के पास पहुँच गई। सभी ने व्यंगपूर्ण नजरों से मेरा स्वागत किया। उनके सामने पहुँचने पर भीतर कहीं से लज्जा की एक ज्वार सी उठी लेकिन उसे मैंने अपनी चंचलतासे ढक दिया। मैंने सुशीला को एकांत में लेजाकर कृष्ण के साथ हुई सारी बातचीत बता दी। मेरी बातें सुनने पर वह खुस हुई लेकिन फिर उदास ही दिखती रही। मैंने सब काम का जिम्मा उसीको सौंप दिया जो उसने सहज भाव से स्वीकार कर लिया। सुशीला विनोदी स्वभाव की थी। हँसाती रहती थी। मेरी उदासी को चीरकर संबल प्रदान करने वाली वही तो थी।

सुशीला सभी को एक ही जगह बुलाकर उद्‌घोष करने लगी। कुछ दूर कोने में बाँसुरी हात में लिए कृष्ण मुसकुराते हुए सुशीला की प्रस्तुति देख रहे थे। मुझे लगा अगर मैं सुशीला जैसी विनोदी स्वभाव की होती तो यह सभा का संचालन मैं कर रही होती।

नाचना गाना बहुत देर तक चलता रहा। तकरीबन सभी लोग एक-एक करके नाचे। कोई तो अभिनय करके इतना हँसाता की लगता हँसते हँसते बेहाल हो जाएँगे। कृष्ण ने भी अभिरूची के साथ हर एक से बात कर अपनी खूबी दिखाने को प्रोत्साहित करते रहे। अंत में मुझे भी नाचना ही पड़ा। सभी मेरा हाथ पकड़कर खड़े हो गए। कुछ पल तो मैं चकरा गई की क्या करना है। मन में कहीं भीतर लज्जा का भाव था। थी तो सभी अपनी ही सखियाँ। लेकिन सखियों के बीच में कृष्ण की उपस्थिति संकोच पैदा कर रही थी। फिर यमुना किनार पर कृष्ण की लीला याद आ गई जब उन्होंने हमारे कपड़े छुपाकर हम सबको मुश्किल में डाल दिया था। मैं फिर लज्जा से दोहरी हो गई। आज रंगीन आभूषण और वस्त्रों में सजकर आनेवाली सखियाँ उस दिन ऐसे शिर नीचा कर रही थीं जैसे जमीन ही छू जाएँगे।

कृष्ण कुछ दूरी पर खड़े होकर मुझे निहार रहे थे। उन्होंने कहा - 'राधा तैयार हो ? मैं बाँसुरी बजाऊँ क्या ?'

मैंने 'हाँ' इशारा करते हुए शिर हिलाया। बाँसुरी कृष्ण के होठों तक पहुँची और उनकी लंबी अँगुलियाँ बंसी की पोरों(दुलाहरू) ऐसे नाचने लगीं जैसे संसार भूलाकर नाचती है मेनका। मैं भी सम्मोहित होकर नाचने लगी। सखियाँ ताली बजाने लगीं।  वातावरण एकदम रसिक(रंगीन) हो चला। मैं नाच रही थी। कुछ देर बाद सुशीला भी उठकर नाचने लगी। फिर तो क्या था, एक एक करके सभी सखियाँ उठीं और नाचने लगी। हमारा नाच सामूहिक नृत्य हो गया था। सुशीला जाकर  बंसी बजाते हुए कृष्ण को भी खींच लाई।

मुझे लगा था मैं अकेली नाचकर कृष्ण को अपना हुनर दिखाउँगी। लेकिन सुशीला ने मेरी इच्छा पर पानी फेर दिया। एकात्म नाचते हुए अचानक उठ पड़ा सामूहिक नृत्य मुझे अच्छा नहीं लगा। मन में क्रोध उभर आया। लगा अकेली घर चल दूँ, और नाचती रहे सुशीला। लेकिन मेरा शरीर कुछ नहीं कर पाया। कृष्ण के चेहरे की कांति ने मेरे अंदर की क्रोधाग्नि को हौले से बुझा दिया। मैं नाचना छोडकर उनके पास जा खड़ी हुई। उनकी बजती बाँसुरी और सखियों के नृत्य से मैं मुग्ध होती चली गई। मुझे लगा मेरे पास से यथार्थ विस्मृत होता जा रहा है।

कृष्ण बाँसुरी बजाने में इतने मगन थे की उनको बाँसुरी की धुन से अलग कुछ पता नहीं था। मैं कितनी देर से खड़े होकर उनकी अगुँलियों और होठों को निहार रही थी। मुझे लग रहा था काश मैं उनकी बंसी हो पाती। कितनी सहजता से बंसी उनको होठों को छु रही थी। सोचा - 'वास्तव में कृष्ण की बंसी ही तो हूँ। उन्हीं की धुन। जब भी देखो उनका ही ध्यान है मन में। उनका ही रूप, उनकी आवाज, गति और बिंब है पूरे इंद्रियों में। सोच, चिंतन और कल्पना सभी वही तो हैं।'

 मैं एकटक कृष्ण के होठों और बाँसुरी की मिलन-बिंदू देखती रही। देखते-देखते लगा मैं छोटी होकर बाँसुरी की भांति उनकी हाथों में पसर गई हूँ। कृष्ण अपने होंठ मेरे होंठों पर रखकर फूँक रहे हैं और उनकी सुंदर अँगुलियाँ मेरे अंग-अंग में थिरक रही हैं। मैं पुलकित हूँ, आनंद में लिप्त हूँ और चरम सुख की ध्वनि निःसृत कर रही हूँ।

कितनी देर से नाच बंद हो चुका था, कृष्ण बाँसुरी बजाना छोड़ चुके थे। लेकिन मैं सम्मोहित सी उनके चेहरे को एकटक देख रही थी। मेरी ऐसी हालत देखकर सभी सखियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ी तो मुझे मानो होश आया। कृष्ण भी मेरी तरफ देखकर हँस रहे थे। लज्जा से गढ़कर तंबू के कोने में जाकर छुप गई। सुशीला पीछेपीछे आकर पूछने लगी की क्या बात हैं। मैंने 'कुछ नहीं' कहकर टाल दिया।

वह पहली बार था जब मैंने जिंदगी में अपने आपको खोया था। उस तरह पागल की भांति अपना सारा परिवेश वातावरण भूलकर तो मैंने पहले कभी कुछ नहीं किया था। मन सीमल की रूई जैसा हलका होकर जहाँ कहीं उड़ रहा था। बदन भी वैसे ही अकड़ रहा था। भूख, प्यास, समय, स्थान सभी विस्मृत हो चले थे। मुझे होश नहीं रहा था कि मैं कौन हूँ।

सुशीला ने कहा - 'चल पाकशाला की तरफ चलते हैं।'

सुशीला कि बातों ने मुझे यथास्थिति का ज्ञान कराया। वह व्यावहारिक और चालाख थी। लेकिन मैं उसके साथ न जाकर वहीं खड़ी रही।

सुशीला के कहने पर सभी सखियाँ पाकशाला की तरफ चल दीं। तंबू के कोने में मुझे अकेली खड़ी देखकर कृष्ण धीरे से मेरे पास आए। उनके हाथ में बाँसुरी झूल रही थी। एकबार फिर लगा - मैं ही तो वह बाँसुरी हूँ। जो कुछ देर पहले बज रही थी वह भी मैं ही थी। बाँसुरी से निकलती धुन भी मैं ही हूँ। लेकिन मुझे बजाने वाले, स्पर्ष करनेवाले कृष्ण हैं। मैं स्वयं में कुछ नहीं हूँ, मैं जो भी हूँ कृष्ण के कारण हूँ, उनकी इच्छा से हूँ। मेरे समर्पण ने मुझे बाँसुरी बनाया है। मैं अब कृष्ण की साँसों से फूँकी जाऊँगी, उनकी अँगुलियों से बजाई जाऊँगी।

शायद प्रेम की चरम अनुभूति यही थी जो मेरी जिंदगी में पहली बार हुई थी। प्रेम शायद समर्पण में होता है। खुदको भूलकर और त्यागकर सभी कुछ उन्हीं मे समर्पित करना प्रेम है शायद। उनके लिए जीने और मरने का मन करना, उनकी खुसी में खुसी देखना, उनकी आँखों में अपनी ज्योति देखना, पूरा मन, बदन और चेतना उन्हीं में समाहित देखना शायद प्रेम है। मैं उसी प्रेम के अथाह सागर में डूब चुकी थी। मुझे कोई मझधार से किनारों पर नहीं ला सकता था।

कृष्ण पास आकर बोले - 'क्या हुआ राधा ! कुछ तो बोलो।'

कृष्ण के संबोधन से मैं अचानक भावुक हो उठी। खुसी, क्रोध या आवेग क्या है मैं समझ नहीं पाई और मेरी आँखों से आँसू बह निकले। आँसू देखकर कृष्ण कुछ देर तो सकते में रहे और भावुक बन गए। उन्होंने एक हाथ से खींचकर मुझे अपनी छाती से लगा लिया और दूसरे हाथ से आँसू पोंछते हुए बोले - 'राधा ज्यादा भावुक मत बनो प्रिये, मैं तुम्हारे पास हूँ। मैं तुम से कभी दूर नहीं हूँ, न ही हूँगा। तुम मुझे विश्वास करना सीखो।'

मैं कृष्ण की छाती में शिर रखकर देर तक आँसू बहाती रही। वे मेरा शिर थपथपाते रहे। बहुत देर बाद उन्होंने मुझे हाथ पकड़कर तंबू से बाहर निकाला। बाहर का दृश्य मनमोहक था। सखियाँ पाकशाला में बतियाते रही थीं, कई गीत गाने में मस्त थीं। मुझे लगा था कुछ देर पहले की भांति कृष्ण मुझे कोने में ले जाएँगे, समझाएँगे, मीठी-मीठी बाते करेंगे लेकिन वे तो मुझे लगातार खींचते रहे और जंगल के एकांत की तरफ ले जाते रहे। मन में खुसी और त्राश एक साथ आ पहुँचे थे। जंगली जानवरों का भय भी था। कृष्ण मुझसे बड़े और बलवान तो थे नहीं। मुझे नहीं लगता था कि वे भयानक संकट से संरक्षण(सुरक्षा) दे सकते हैं। देखती थी, दुबले-पतले थे, आकर्षक थे, मस्ती करते थे। लेकिन अचानक आपत्ति आने पर कुछ करेंगे, ऐसा कम ही लगता था।

वैसे तो कृष्ण के बारे में बचपन से ही अनेक किंबदंतियाँ सुनी थी। एक औरत इसलिए मर गई थी क्योंकि कृष्ण ने उनके स्तनों को दूध पीते हुए काट दिया था। बचपन में ही दही की हांडी को बिछौने से ही पैर मारकर तोड़ दिया था। गौ चराने जब गए थे तब तालाब के किनारे बैठे अजंग के अजगर को मार गिराया था। ऐसे अनेक चर्चे थे गाँव में। कितने ही चर्चे तो सिर्फ बातों की बाबत थीं, जो किसी ने देखी नहीं थी। व्रज के हर घर में कृष्ण की चर्चा होती। कितने ही लोग थे जो उन्हें विष्णु का अवतार मानते थे। व्रज में कृष्ण के जन्म लेने के बाद अनेक बिपत्तियाँ आन पड़ी थीं, इसलिए कई लोग उनका विरोध भी करते थे। फिर भी कृष्ण की बोली, उनका रूप, उनकी आवाज और नम्र व्यवहारसे सभी मुग्ध थे। उनकी बहादुरी की इतनी चर्चा होने पर भी मैं उनकी काबिलियत के प्रति विश्वस्त नहीं थी। एक अदद आदमी से ज्यादा ताकत मैं किसी में कल्पना नहीं करती थी और मुझे विश्वास भी नहीं था। एक दुबले पतले कृष्ण के साथ रात के समय सुदूर जंगल में जाना मुझे अच्छा नहीं लगा। हम दोनों के लिए खतरे की बात थी।

मैंने कहा - 'कृष्ण इस मध्य रात्री में हम किधर जा रहे हैं ? हम खो सकते हैं। हिंस्रक पशुओं के शिकार भी बन सकते हैं। चलो लौट चलें जहाँ सखियाँ हैं।'

कृष्ण ने मेरी तरफ दृष्टि फेंककर कहा - 'तुम्हें मुझपर भरोसा नहीं है,राधा ! मैं तो तुम्हारे सहारे सारा संसार भूलकर चला हूँ। तुम्हारा साथ है तो मरने-जीने का क्या अर्थ हुआ ! जिंदगी पूर्णता की तलाश करती है। पूर्णता की प्राप्ति के बाद समय, स्थान, काल, जीवन या जो भी हो निरर्थक बन जाते हैं, उनमें अर्थ शेष नहीं रहते।'

मुझे लगता है, हमलोग उस सुने रात में, आपस में हाथ बाँधे तंबू से बहुत दूर पहुँच चुके थे। डर लग रहा था, कहीं हम उस जगह लौट न पाएँ। लगता था कृष्ण मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं या मेरे प्रेम को व्यंग करना चाहते हैं।

मैंने कहा - 'प्राण ! तुम मुझे कितना सताते हो ? क्या मैं तुम्हारा भरोसा नहीं करती ? तुम्हारा विश्वास न होता, प्यार न होता, तुम्हारे प्रति आस्था न होती तो इस अर्धरात्री में इस सुने वन में मैं तुम्हारे साथ कैसे होती ? दरबार के सुखपूर्ण बिछौनें में सोना छोड़कर और अपने माँ-बापको छलकर क्यों मैं आपके साथ इस सूदूरवर्ती जंगल में हूँ ? क्यों मेरे प्यार को शक करते हो ? मैंने जिंदगी में तुम्हारे सिवा और कोई सपना नहीं देखा।

'राधा कहाँ मैं तुम्हारे प्यार को शक कर रहा हूँ ! मैं तो यह कह रहा था कि हमें एक दूसरे पर भरोसा करना सिखना चाहिए, अगर एक दूसरे के लिए प्राण भी त्यागना पड़े तो उसके लिए तैयार होना चाहिए। अपने आपको संपूर्ण रूपसे बिन भूलाए किसी को कैसे प्यार किया जा सकता है ? प्रेम ऐसी चीज है की जिसमें अपने को भूलाकर खुद को दूसरे के रूप में पाना होता है। जैसे मेरा खुदको संपूर्ण रूपसे तुम में होना और तुम्हारा मुझ में होना ही प्रेम की पूर्णता है। जब तक असुरक्षा की भावना हमारे जहन में बाकी रहती है, तबतक प्रेम पूर्णता ओर नहीं बढ़ता।'

'पर कृष्ण, मेरा कहना तो हम दोनों की सुरक्षा के विषय में था।'

'वो तो मैं समझा, पर तुम्हारे मन में शारीरिक मोह बाकी दिखाई देता है राधा। यह शारीरिक मोह अंतिम काल में आंतरिक प्रेम के मार्क को त्याग देता है। प्रेम के सामने कोई चीज नहीं होनी होती है - शरीर, संपत्ति, संसार या कोई और। पूर्ण रूपसे अपने को भूलाकर संपूर्ण रूप से प्रेमी को याद करने की अवस्था ही प्रेम की चरम अवस्था है। शरीर के साथ जुड़ा हुआ प्रेम यौन से संबद्ध है। यौनपूर्ण प्रेम यौवनकाल के बाद समाप्त होता है। प्रेम को तो आत्मिक बनाना चाहिए राधा। प्रेम शारीरिक संवेग से बहुत उँचा उठे, जहाँ कोई भी मानसिक चिंतन बाधक न हो।'

उनकी बातों से मैं असमंजस में पड़ गई। मेरा उनके प्रति यह प्रेम फिर कैसा है ? मैं पता नहीं कर पाई लेकिन लगा कृष्ण के बारे में मेरे दिल में जो भ्रम था वह तकरीबन खत्म हो गया है और मैंने उन्हें पूर्ण रूप से पा लिया है।

चलते चलते हम एक बड़े से पीपल के पास पहुँचे। छाया पड़ी हुई थी। कृष्ण ने कहा - 'चलते चलते थक गई होगी राधा, चलो थोडी देर सुस्ता लें।'

हम उस विशाल वृक्ष के तले बैठ गए। कृष्ण का दाहिना हाथ मेरे कंधे पर था। कृष्ण के बदन की गर्मी मुझे भी गर्मा रही थी। यह एकांत मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी प्राप्ति थी। लगा वक़्त यही ठप्प हो जाए। युगयुगांतर यह एकांत समाप्त न हो। कृष्ण कभी नजरों से ओझल न हों। कृष्ण उतना प्यार वर्षा रहे थे लेकिन मेरा स्वार्थी मन उन पर शक किए जा रहा था। सब कुछ प्राप्त करने के बाद भी संपूर्ण प्राप्ति की अनुभूति क्यों नहीं होती । अन्य गोपिनियों के सात नाचने, गाने, दिल्लगी करने, चिपकने वाले कृष्ण सिर्फ मुझे ही प्यार कर सकते हैं ? शक कम नहीं हो रहा था। मैंने कृष्ण के कंधे पर शिर रख लंबी सांस खींचकर थकित स्वर में कहा - 'लेकिन कृष्ण गोपिनियों के साथ का तुम्हारा रवैया हमेशा मुझमें शक पैदा करता है। मुझे लगता है कि तुम सिर्फ मेरे होकर नहीं रह सकते। तुम्हारा यह गहरा प्यार क्या सच्चा प्यार है ? मैं बेफिक्र नहीं हो सकी हूँ कृष्ण।'

कृष्ण देर तक मेरी आँखों में देखते रहे। उनकी आँखों में विचित्र की दृष्टि थी। लगा वो आँखें सिर्फ मेरे लिए ही खुली हैं। उतने शांत, भरोसेमंद, विश्वासयोग्य और क्या चीज हो सकती हैं ! लगा कृष्ण की आँखों से शांत और स्थिर और कुछ नहीं हो सकता।

कृष्ण  ने फिर कहा - 'राधा ! मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ ? मुझे चाहने वाली हजारों नारियाँ हैं, लेकिन मैं तो सिर्फ तुम्हें चाहता हूँ। वे मेरी ईर्ष्या कर सकती हैं, मुझे पाने की चाह है उनमें। अगर उनलोगों से क्षणभर हसने से, बोलने से या नाचने से उनलोगों को तृप्ति मिलती है तो मैं यह काम क्यों न करूँ ? शारीरिक प्रेम और आत्मिक प्रेम के अंतर को समझो राधा। शारीरिक प्रेम शरीर के आसपास होता है, जो शरीर का भोग करता है और संतान उत्पन्न करता है। आत्मिक प्रेम शरीरतत्व से ऊपर है, जो सिर्फ आनंद का भोग करता है और प्रेमतत्व का बोध करता है। जबतक हमारा मन शरीर के वश में रहेगा हमारा प्रेम भी सांसारिक ही होगा। उमर और यौवनतक। यौनपूरक अंगो के साथ उगनेवाला प्रेम सांसारिक प्रेम जै जो यौनअंगो की शिथिलता के साथ मर जाएगा। तुम शारीरिक प्रेम से ऊपर उठो राधा, तब ही तुम यथार्थ प्रेम की अनुभूति कर पाओगी।

'तुम्हारी इतनी गहरी बातें मैं नहीं समझती कृष्ण।'

कृष्ण की बाते हरवक़्त रहस्यमयी लगतीं। जब सुनती रहती थी तो लगता समझती जा रही हूँ, पर फिर सबकुछ भूला सा लगता। लेकिन आज के व्यवहार से मुझे आत्मिक विश्वास हो चला था कि चाहे कृष्ण जो करे वे सिर्फ मेरे हो सकते हैं। मेरे सिवा किसी के नहीं हो सकते। मन में यह भाव आते ही मन फूलकर पोटली समान हो गया। मैंने अपना दिल और शिर कृष्ण की छाती में रख दिया। हम तंद्रा में चले गए।

एकांत(सुनसान) चाँदनी रात की सुंदरता और कृष्ण का साथ मुझे सारे जीवन यात्रा की अंतिम घड़ी लग रही थी। बहुत देर बाद कृष्ण ने मुझे जगाते हुए कहा - 'राधा, क्या हम ऐसे ही बैठे रहेंगे ? सखियाँ व्यग्र हो हमें ढूँढ़ रही होंगी, चलो चलें।

मैं तो वैसे ही लाड़ली होना चाह रही थी, कहा - 'मैं तो बहुत थक गई हूँ कृष्ण, क्या तुम मुझे उठाकर ले जा सकते हो ?'

कृष्ण का चेहरा अनूठा, आकर्षक और रोमाञ्चक दिखा। लगा यही चेहरा सदा देख पाती तो कितना अच्छा होता। मैंने तो दिल्लगी भर की थी। लेकिन कृष्ण ने तो मुझे उठाकर कंधे पर डाल लिया और ले चले। मैंने सोचा नहीं था कृष्ण उतने बलवान होंगे। मैं 'छोडो न, मैं चल सकती हूँ।' कहती रही जबकि वे मुझे लेकर वनभोज स्थल की तरफ चल दिए। क्षणभर को तो मुझे कुछ अटपटा सा लगा लेकिन उसके बाद मैं आनंद से रमती गई। लगा वे मुझे सदा इसी भांति ढोते रहें।

सखियाँ तो तकरीबन रोने ही लग गईं थी, हमें न पाकर। उन्हें लगा था हम खो गए। मुझे इस तरह कृष्ण के कंधे पर देखकर सखियाँ और बौखला गईं। लेकिन मुजे सकुशल उतरकर शर्म से शिर झुकाते देख उनमें खुशी की लहर दौड़ गई। सभी ने आकर हम दोनों को घेरा। ज्यादातर सखियाँ किसी न किसी बहाने कृष्णको छूना चाह रही थीं। कृष्ण हमारी यात्रा वर्णन करने लगे।

रात गहरी होती जा रही थी। सभी मिष्ठान्न और भोजन ग्रहण करने लग गए थे। मैं तो ठहरी अल्पाहारी। फिर भी कृष्ण ने जबरजस्ती मीठे पकवान खिलाए। खानेका कार्यक्रम खत्म करने के बाद फिर नाचना-गाना शुरू हुआ। कृष्ण हर गोपिनीके साथ गले मिलते हुए नाच रहे थे। वे बारबार मेरे निकट आते, मुसकुराते, जीभ निकालकर मुझे चिढ़ाते और फिर चले जाते। लगता वे मुझे गुस्सा दिलाना चाह रहे हैं। मुझे भी दिल में कहीं इर्ष्या तो थी ही कि वे उतनी गोपिनियों के साथ नाच रहे हैं। ज्यादातर समय वे सुशीला के साथ दिखते थे। सुशीला अत्यंत प्रशन्न मुद्रा में पसीने से तर हो नाच रही थी। वे मेरी तरफ देखते हुए कृष्ण के साथ चिपक भी रही थी। मेरी सबसे प्यारी सखी होकर भी वह मेरी खुशी लुटने या भाग करने चली थी।

बहुत अच्छी तरह आनंद से बिती वह रात। सभी थककर चूर हो गए थे, शिथिल थे। सुबह होने से पहले हमें अपने अपने बिस्तरों में पहुँच जाना था। ब्राह्ममुहूर्त से पहले हम जंगल से बिदा हो चुके थे।

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अगले अंक में जारी .........................

 

नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी

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