अंक 37 | वर्ष 10 | दिसंबर 2017 |
सरिता
- राजु आत्रेय
कथाकार की आँखों में धूल झोंककर "पात्र" नौ दो ग्यारह हो गया है। वह कथाकार को फूटी आँखों से नहीं देखना चाहता। इसलिए वह कथाकार को घृणा करता है। कर सकता तो उसका गला दबाकर मार डालता। नहीं सकता इसलिए भाग गया।
भट्टी के एक कोने में दुबककर शराब पीते वक़्त शायद वह मुझे पहचान गया था। पास आया और बोला, "क्या मैं यहाँ बैठूँ ?"
"बैठो।"
फिर मै भी चुप, वह भी चुप।
बहुत देर के बाद उसने पूछा, "क्या मुझे लेने आए हो ?"
"नहीं, मैंने वह कहानी फाड़कर फेंक दी।"
वह खुसी से फूला न समाया और उसने दूसरी बोतल शराब का ऑर्डर फरमाया।
बोला, "मेरे उपर बहुत कृपा की आपने। अगर उस लड़की की शादी मुझसे करवा देते तो, वह दो दिन बाद दूसरे के साथ भाग जाती। मालूम है आपको ?"
सरिता ।
वह लड़की जो मेरे पात्र की दुलहन बनने वाली थी। गाँव की है। कभी घर में नहीं रहती। क्या क्या करती है, कहाँ कहाँ जाती है, किसी को कुछ पता नहीं।
मुझसे नहीं बोलती, शिर नीचे कर चलती है। मिनी स्कर्ट पहनती है। काश मैं अपने पात्र का ब्याह उससे करा पाता।
यह कहानी तो उत्तेजित होती गई।
और कथाकार असन्तुलित होने लगा।
शायद पात्र को शराब लग गई थी। बोलता था कि मैंने उसे कहानियों में नाजायाज इस्तेमाल किया है। मुझसे झगड़ने को तैयार हो गया। मुठ्टी बाँध कर मुझे दिखाने लगा।
मैंने पूछा – "शराब का बिल भरोगे ?"
वह लाल पीला हो गया और बोला – "आप ही भरो, मैं सरिता से शादी करूँगा।"
(गोवालपाडा, असम)
***
नेपाली से अनुवादः कुमुद
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