अंक 36वर्ष 10अप्रैल 2017

कृष्ण धरावासी के उपन्यास राधा की आठवीं किस्त

 

... गतांक से आगे...

कृष्ण को शिक्षाध्ययन के लिए मथुरा भेजने की बात सुनकर, मुझे अपना जीवन ही निरर्थक लगने लगा था। खाने की रुचि कुछ ज्यादा ही घट गई थी। नींद गायब थी। आँख कभी बंद ही नहीं होती थीं। मन में अनेक नकारात्मक विचार और चिंतन आने लगे। लगा जीने के कोई मायने नहीं है। मेरी ऐसी हालत देखकर माता-पिता भी चिंतित रहने लगे। दिन पर दिन मेरे स्वास्थ्य में गिरावट आ रही थी। एक दिन माँ मेरे पास आकर बैठ गई। मेरा शिर सहलाती रही, पर कुछ बोली नहीं।

मैंने कहा - "माँ, मैंने आपलोगों को बहुत तकलीफ दी। आपलोग मुझे जन्म से लेकर अब तक सारी खुसियाँ देते रहे, फिर भी मैंने दुःख से और कुछ नहीं दिया। मुझे माफ कर दें माँ। पिता जी के सामने मैं जा नहीं पाऊँगी। पिताजी मुझसे बहुत नाराज हैं। मैंने ही उन्हें ऐसी हालत में पहुँचाया है। मुझे खुद पर दया आ रही है। क्यों मैं अपने आप को सम्हाल नहीं सकती ? क्यों यह दिल काबू में नहीं रहता ?"

माँ ने कहा - "बेटी ! मैं तुम्हारी हालत समझती हूँ। तुम्हारे उम्र में मन में उगने वाली भावनाओं को मैं समझती हूँ। लेकिन यह सब उमर भर की बात है। तुम अपने आपको संयमित रखा करो। तुम उसे भूल जाने की कोशिश भी मत करो। जितना भूलना चाहोगी, उतनी यादें सताएँगी। तुम उसे याद करते हुए अपनी दिनचर्या में लग जाओ। मैंने तुम्हारे पिताजी से अनुरोध किया है। तुम अब पहले जैसे ही अपनी सखियों से मिल सकती हो, घुम सकती हो, ऐसा करने के लिए तुम स्वतंत्र हो।"

माँ की बातें सुनते ही ऐसा लगा मानों मेरे बदन अब में खून दौड़ने लगा है। बदन हलका हो गया। लगा चारों ओर उजाला फैल रहा है। वर्षों से छाती में बसा कोई बोझ उतर सा गया।

खुद से हैरान हो गई मैं। आदमी तो मन से चलनेवाला प्राणी है। आदमी का यह शरीर, रूप, बल, ताकत, स्वास्थ्य आदि ऐसा कुछ नहीं है। यह तो मनोवैज्ञानिक प्राणी है। मन जैसे खटाता है, वैसे ही खटता है। मैंने समझा अगर मन अस्वस्थ है तो शरीर भी। माँ ने जब मुझे स्वतंत्रता की सूचना दी, तब से कही भीतर से ही भूख जाग उठी। लगा कुछ खा लूँ। उठकर कमरे में ही टहलने लगी। खिड़की से बाहर दिखाई देनेवाले दृश्य भी परिचित से लगे। लगा वे मेरे लिए ही बने हैं, और मुझे बुला रहे हैं।

माँ के चेहरे पर मैंने प्रसन्नता देखी। मैंने कहा - "हे माँ ! मुझे यह स्वतंत्रता देकर आप लोगों ने बड़ा उपकार किया। मुझे लगा कि इस संसार में मेरा जन्म सार्थक हो रहा है। मुझे जीने के लिए जो प्रेरणा और स्वतंत्रता आपलोगों ने दिया है, उसका मैं सम्मान करूँगी, और कभी उनका गलत इस्तेमाल नहीं करूँगी।"

माँ बिन बोले उठकर चली गईं। मैं दूर आकाश में, बादलों में बन रही अनेक आकृतियों की कल्पना में डूब गई।

नजरबंदी से मुक्त होते ही मैं स्वस्थ हो खाना खाकर खिलते हुए, खुस होते हुए दरबार से बाहर निकली। जब जा रही थी तो पिताजी देख रहे थे, लेकिन कुछ बोले नहीं। दो सेविकाएँ भी मेरे साथ लगी थीं। मैंने दरबार के बाहर पहुँचने पर उन्हें वहीं रोक दिया - "तुम दोनों यहीँ रहकर मेरा इंतजार करना।" फिर मैं दौड़ते हुए अपनी सखियों की तरफ चली, जिधर वे सदा मिलती थीं।

लोग मुझे ऐसे देखने लगे जैसे पहली बार देख रहे हैं। लगता था वे कुछ बतिया रहे हैं, लेकिन मैं दौड़ती रही। मन में कुतूहल था कि कब सुशीला से मुलाकात होगी, कब कृष्ण से मुलाकात होगी। मन में सुशीला के प्रति शंका भी घर कर गई थी । मुझे दरबार में नजरबंद किए जाने के बाद सुशीला कृष्ण की प्रिया बनी हो सकती थी। कृष्ण ने मुझसे अपने छद्म रूप में मुलाकात कर अपनी प्रेम की अमरता साबित तो कर दिया था, लेकिन सुशीला के नखरे कृष्ण को भड़का सकते थे।

मैं सीधे सुशीला के घर की तरफ जा रही थी, अचानक मन में डर बैठ गया। सुशीला के पिता चंद्रभानु ने कुछ दिन पहले विरोधियों का नेतृत्व कर पिताजी को लज्जित किया था। अगर उनके यहाँ गई तो वे मुझे भी मिथ्या वचन  बोल सकते थे। मेरे कदम रुक गए। अब किधर जाऊँ ? मैं द्विविधा में फँस गई। फिर सोचा विशाखा के यहाँ जाऊँगी और सुशीला को उधर ही बुलाऊँगी।

विशाखा आँगन में सुखाने के लिए फैलाए अन्न बुहार रही थी। अचानक मुझे सामने देखकर चौँक गई। कुछ देर तक टकटकी लगाकर देखने के बाद उसकी आँखों में आँसू भर आए। कुछ बोल नहीं पाई। उसकी यह अवस्था देखकर मैं भी भावुक हो गई। फिर अनायास मेरी आँखें भी नम हो आईं। वह मेरे पास आई और मुझे गले लगाकर बहुत देर तक खड़ी रही।

हम दोनों को उस स्थिति में देख विशाखा की माँ ने दूर से ही पुकारा - "अरे तुम दोनों वहीं खड़ी रहोगी या बैठना भी है ? राधा बेटी, आओ बैठकर बातें करते हैं। लो .. तो तुमलोग रोने भी लग गए। क्यों रो रहे हो ? मुलाकात तो हो ही गई, फिर रोने का क्या मतलब ? तुम्हारे उतावलेपन का नतिजा ही तो है। हम ने तो कुछ किया धरा नहीं था।"

माँ की बाँते मेरी समझ में नहीं आईं। हम दोनों विशाखा के कमरे में चली गईं।

विशाखा आँसू पोंछते हुए बोली - "राधा ! हम सबको तुम से और कृष्ण से मिलने के लिए मना किया है। उस रात्रि भोज की घटना के बाद हम सब नजरबंद हैं। किसी को भी घर से निकलने की इजाजत नहीं है। तुम्हारे और कृष्ण के बारे में जिधर सुनो उधर बुराई ही सुनाई दे रही है। कृष्ण के साथ हमारा नाम जोड़कर भी बुरा प्रचार किया जा रहा है। सच, उस दिन से हममें से कोई भी कृष्ण से नहीं मिली है। सुना है, कृष्ण भी हमसे वियोगी हो गए हैं। अकेले ही वन में जाकर घंटों बासुँरी बजाते फिरते हैं। कृष्ण के वियोग धुन सुनकर गायों ने भी चरना छोड़ दिया है। जंगल भर के जानवर कृष्ण के आसपास इकट्ठे होकर विरही धुन सुनते रहते हैं।"

विशाखा कहीं दूर देखकर लगातार बोलती रही - "कहते हैं कृष्ण के घर में भी तनाव उत्पन्न हो गया है। हर घर में कृष्ण के जन्म को लेकर अनेक अफवाहें फैल गई हैं। बहुतों का कहना यह है कि -कृष्ण नंदराय के बेटे नहीं हैं। यशोदा और नंदराय के गुण उनमें कुछ भी न होने के कारण वह किसी क्षत्रिय वंश से हैं। कृष्णका जन्म शुद्ध नहीं है। ऐसा कहते हुए लोगों का एक झुंड नंदराय के घर पहुँचकर नंदराय और यशोदा को उल्टा सीधा कह आया। उसी दिन से यशोदा अन्न-पानी छोड़कर अनशन पर बैठ गई हैं।"

"विशाखा ! हमारे गाँव के लोग क्यों इस तरह पागल हो रहे हैं ? किसने ऐसे बुरे विचार उनके मन में भर दिया ? फिर कृष्ण कुछ नहीं बोलते क्या ?"

"बेचारे कृष्ण क्या बोलते ? अपने जन्म को लेकर ही जब सवाल उठाया जा रहा है तो वह क्या कहें, कैसे प्रतिवाद करें ? उन साले सवालों के जवाब तो नंदराय और यशोदा के पास ही हैं न।"

विशाखा की बातों ने मुझे व्यथित कर दिया। साँस फूल आई, दिल तेजी से धड़कने लगा। इतने दिनों बाद इतनी सारी बातें ! मैं कौन सी बात प्रमुख और कौन सी बात गौण मैं पता नहीं कर पाई। फिर सब सखियाँ अपने अपने घरों में बंदी हो गईं थीं। लगा सुशीला से मिलना भी आसान नहीं होगा।"

विशाखा कहती गई - "नंदराय के घर को सारे जनपद ने बहिष्कार कर दिया है। जब तक कृष्ण के बारे में सब लोगों को संतुष्ट नहीं किया जाता, तब तक नंदराय और यशोदा के यहाँ कोई नहीं जाएगा, ऐसा फरमान जारी किया गया है। जो लोग जाना चाहते हैं वे भी डर के मारे नहीं जा पा रहे हैं। नंदराय का घर आजकल सुनसान पड़ा है। कृष्ण और बलराम भी चिंतित हैं। अभी परसों ही तो सुना - नंदराय अब कृष्ण और बलरामको जल्दी ही विद्याध्ययन के लिए मथुरा भेजेंगे।"

विशाखा की कही बातें सभी मैं सुन चुकी थी, सिर्फ यशोदा माता का अनशन मेरे लिए नईं खबर थी। मन में एक किस्म का विद्रोह भी उठने लगा था। गाँववाले क्यों मतलब रखें कि कौन क्या करता है ? मैं जिस किसी के साथ भी प्यार करूँ, शादी करूँ यह तो मेरी मर्जी की बात न हुई। अपना बुरा भला सोचना तो अपना काम है। दुःख हो या सुख हो, इसका निर्णय संसार में किसने किया है ? सुख में तो सब अधिकार जमाना चाहते हैं, पर दुःख में कोई आगे नहीं आता। लोगों को अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने की स्वतन्त्रता को होनी चाहिए।

मैंने विशाखा से कहा - "विशाखा ! क्या हम सुशीला से मिल सकते हैं ?"

उसने कहा - "तुम यहीं ठहरो ! मैं उसे लेकर आती हूँ।"

मैं विशाखा के कमरे में ही बैठी थी कि माँ अन्दर आ गईं। वह बहुत देर तक मुझको देखती रहीं और बोलीं - "नजाने क्या हुआ है, तुम पगलियों को ? कहीं एक ही लड़के पर सारे गाँव की लड़कियाँ ऐसे मर मिटती हैं क्या ? लाज, शर्मोहया कुछ है कि नहीं ? संसार में और लड़के हैं ही नहीं क्या ? देखो चेहरा। पूरी गाँव की लड़कियों की हालत एक जैसी। तुम लोगों ने कुछ उल्टासीधा खाया तो नहीं है ?"

मैं लाज, डर, ग्लानि से मर सी गई। विशाखा की माँ मेरे पास बैठकर मेरे शिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं - "बेटी राधा ! तुम्हारी जैसी इस उम्र में सभी को ऐसा ही होता है। इस वक़्त किशोरियों को बुद्धि का साथ भी चाहिए । देखो आज पूरे व्रज में कितना बुरा हुआ है। इतनी अच्छी जगह, इतना अच्छा गाँव, सब बिगड़ गया है। घर घर में झगड़े चल रहे हैं। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप चल रहा है। बेटियों के कारण सारा गाँव संबंध तोड़ने पर लगा हुआ है। तुम्हारे पिता को ही क्या कुछ नहीं झेलना पड़ा, कहो तो ! बेटी जरा हम पर दया करो। तुम्हारा व्यवहार ही हमें जीने लायक बनाएगा। अगर तुम लोग ही भटक जाओगे तो हम समाज में कैसे मुँह दिखाएँगे ?"

मैं कुछ बोल ही नहीं पाई। दिमाग में कुछ भी व्यवस्थित नहीं था। सारा संसार ही पराया हो चुका था। लगा अच्छे दिन अब खत्म हो गए।

मैंने कहा - "माँ ! हमनें क्या गलती की है ? आपलोगों ने ही हमें बचपन से प्यार दिया, स्वतन्त्रता दी। पुरुष और स्त्री में भेद करना नहीं सिखाया। लड़के और लड़की दोस्ती नहीं होती नहीं कहा। हमने तो कृष्ण के साथ भी वही बचपन वाली दोस्ती की थी। उनके साथ हमारा कोई अनैतिक संबंध नहीं है। उन्होंने भी हमारे साथ बुरा सलूक कभी नहीं किया है। अचानक हमारे गाँव को क्या हो गया माँ ?"

"मैं क्या जानूँ बेटी ! जब मर्द सनकी हो जाते हैं तो हमारा कुछ नहीं चलता। हमारी बातें नहीं सुनते। रातरात भर कचहरी बैठती है। कोई कहता है वृषभानु को प्रधान के पद से हटाया जाना चाहिए। कभी कहते हैं नंदराय को गाँव से निकाल देना चाहिए। कोई तो कहता है कि यशोदा को गाँववालों के सामने ला कर कृष्ण के बाप का परिचय माँगना चाहिए। हम औरतें कैसे सहें इन बातों को ? फिर हम सहने के सिवा कर भी क्या सकती हैं !"

"लेकिन माँ अगर जो बात हुई ही न हो, उसके लिए तो बोलना चाहिए न ?"

"वे लोग हमारी बातें सुनते ही नहीं।" वह निराश हो उठकर चली गईं। मैं और व्यथित होकर वहीं बैठी रही।

विशाखा और सुशीला तकरीबन दौड़ते हुई भीतर आईं।  मुझे देखते ही सुशीला गले लगकर रोने लगी। मैंने तो कल्पना भी नहीं की थी कि सुशीला इस तरह विलाप करेगी। वह तो सदा हँसमुख, बोलते रहनेवाली लड़की थी। सुशीला में भी रोदन, गम्भीरता हो सकती हैं, यह तो मैनें सोचा ही नहीं था। वह बहुत देर तक सुबकती रही। चेहरा उठाकर देखा - बहुत दुबली पतली हो गई थी वह। लगता था बहुत दिनों से कुछ खाया नहीं है।

मैं प्यार से उसके अंगुलियों को सहलाते हुए बोली - "सुशीला ! क्यों ऐसा कर रही हो ! हमें हुआ क्या है ? हमारी मूर्खता के कारण ही हमें कुछ समय के लिए दंड मिला है। देखो, मैं आज से ही आजाद हुई हूँ। पिताजी ने मुझे छोड़ दिया है।"

मैंने अपने चेहरे पर जबरदस्ती मुसकान ले आने की कोशिश की। वह मुझे ऐसे देखने लगी मानों पहली बार देख रही हो, और मेरे चेहरे के हर कोने से उसे परिचय करना है।"

मैंने कहा - "ऐसे दुःखी नहीं बनते सुशीला। हमें अपनी गलतियाँ भी स्वीकार करनी होंगी।"

वह मुझे देखती रही और लंबी साँस खींचकर कहा - "यह सब मेरे कारण से हुआ है राधा ! आज गाँव में जितना कुछ बुरा हुआ है, उसका बीज-तत्व मैं ही हूँ। मैं ने ही इस गाँव को ऐसा बनाया है। अब कहाँ जाकर मैं यह पाप धोऊँ ? कैसे प्रायश्चित करूँ ?"

मैं सुशीला की बात समझ नहीं पाई। गाँव की इस हालत का कारण वह कैसे हो सकती है ? वह कर ही क्या सकती थी ?

फिर भी मैंने पूछा - "तू कैसे इस बात की जिम्मेदार बन गई, सुशीला ? तूने किया ही क्या है ?"

"राधा ! मुझे माफ कर दे सखी। मैं पापिन हूँ। मैं स्वार्थी और अंधी हूँ। मैंने सिर्फ अपना ही भला सोचा और इसी के कारण आज सारे गाँव का अहित हुआ है।

वह फिर रोने लगी। बहुत देर तक कुछ नहीं बोली। लंबी साँस खींचकर उसने एक शर्त रखी।

 

.... अगले अंक में जारी....

नेपाली से अनुवाद: कुमुद अधिकारी

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