अंक 34वर्ष 9जनवरी 2016

कृष्ण धरावासी के उपन्यास "राधा" की छठवीं किस्त

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बातेँ जितनी छिपाना चाहो उतनी ही फैलती हैं। मेरा कृष्ण के साथ छिपछिपकर मिलना पूरे ब्रज को मालूम हो चुका था। खासकर ललिता और सुशीला ने अपनी सखियों से ये बातें कहीं, सखियों ने अपनी माँओं से और माँओं ने अपने पतियों से। इस तरह ये बातें चारों ओर फैल गईं थीं। कृष्ण की नटखटी, बहादुरी, अविश्वसनीय कामों से चकित लोगों के मन में उनके प्रति शंकाएँ उत्पन्न होने लगीं थीं। लोग ब्रज में कृष्ण के जन्म से ही घटती आ रही अनिष्ट घटनाओंको याद करने लगे थे।

एक दिन कई सौ गोपों का प्रतिनिधि मंडल हमारे दरबार में आया। एक समय में उतने लोगों को बिन उत्सव, बिन बुलावा आते हुए मैने कभी देखा नहीं था। दरबार के सेवक-सेविकाएँ भी हैरान थे। पिताजी ने सभी का स्वागत किया और उन्हें सभाकक्ष में बिठाया। उन लोगों से आने का कारण पूछने पर अपने स्थान से उठकर सुशीला के पिताजी चन्द्रभानु बोलने लगे। उनकी बोली शूरू से ही उत्तेजित थी।

"देखो वृषभानु ! आप हमारे प्रधान हैं। चूँकी आप हमारी जाति के प्रधान हैं, आप नन्द राय को जातिच्यूत कर दें।"

अचानक ऐसी बात सुनकर पिताजी हतप्रभ रह गए। चन्द्रभानु और जोश से बोल रहे थे - "अगर आप नन्द राय को हटा नहीं सकते तो हम आपको छोड़ देंगे। नन्द राय के बेटे कृष्ण के साथ आपकी बेटी का नाम जोड़कर ब्रज में जितनी बातें हो रहीं हैं, सब हमें सुनना पड़ रहा है। उस लड़के ने हमारी बेटियों के साथ भी छेड़खानी की है। अपनी विवाह योग्य लड़की को चुपचाप घरमें रखकर क्यों सारे ब्रज को दूषित कर रहे हैं ? आप हमारे प्रधान हैं, आपकी बदनामी यूँ ही सहन नहीं कर सकते हम। या आप अपनी बेटी का ब्याह तुरंत कर दें या नन्द राय को समाज से हटाएँ या आप प्रधानका पद त्याग दें।"

पिताजी ने गंभीरता और धैर्य धारण कर पूछा - "मैं आपलोगों की इज्जत करता हूँ। आपलोगों की इच्छा विपरित मैं कुछ नहीं करूँगा। समाज का निर्णय ही मेरा निर्णय है। लेकिन हम क्यों नन्द राय को अचानक समाज से हटाएँ ?"

चन्द्रभानु बोले - "कृष्ण के चरित्र से हम उकता गए हैं। उनका उपद्रव, नाटक और असामाजिक चरित्र से सारे समाज का जी भर गया है। हमें तो अब शक है - क्या वह कृष्ण हमारे वंश गोप का है भी या नहीं ? हमारे वंश में ऐसे बालक कैसे जन्म ले सकता है ? समाज में नन्द राय और उनकी पत्नी भी शक के घेरे में आ गए हैं। देखने पर भी वह नन्द राय का पुत्र नहीं लगता। एक छोटे युवक में जो चमत्कारें दिखी जा रहीं हैं, उसमे हमें शक है। एक तर्फ यशोदा उतनी गोरी है, नन्दजी भी गौर वर्ण हैं, दूसरी तरफ उनका लड़का इतना काला कैसे हो सकता है ? उस वंश में पहले कभी ऐसा नहीं हुआ। देखने पर लगता वह बालक गोपाल न होकर किसी क्षत्रीय वंश का हो सकता है।"

चन्द्रभानु की बातें सुनकर दरबार के सभी चकित हो गए। मैं भी लज्जित हो गई। वे कृष्ण की चर्चा की आड़ में माता यशोदा पर शक कर रहे थे। लगता था माता यशोदा के पतिव्रता धर्म में प्रश्नचिह्न लगाया जा रहा है।

मैंने देखा पिताजी शोक में डूबे हुए थे। मेरे भीतर गंभीर शंकाएँ उत्पन्न होनें लगीं। कहीं पिताजी भी इसी भीड़ के साथ बहक गए तो ! क्योंकि शूरू से ही वे कृष्ण और मेरे संगत के खिलाफ थे। भीड़ में से किसीने जोशीली आवाज में कहा - "आपकी पुत्री राधा से मिलने कृष्ण रोज गोपियों के भेष में आता है। आप लोग क्या देखते हैं ? घर में अपनी ही लड़की कद्दू की तरह सड़ रही है। बाहर समाज में उतनी ही बातें हैं। आप हमारे आदरणीय हैं। अगर आप अपना ही मान नहीं रख पा रहे हैं तो हम क्यों आपको अपना प्रधान मानें ? पिताजी ने अपनी जगह से उठकर बरामदे की तरफ देखा। हम सभी औरतें वहीं थीं। मेरा चेहरा फक पड़ गया। माँ ने भी मुझे घूर कर देखा। मेरी चोरी पकड़ी गई थी। मेरे बदन की सारी कोशिकाएँ काँपने लगीं। होंठ, मुँह, जीभ सब सुख गए। आँखों के सामने तारे दिखने लगे।

आज मेरी वजह से पिताजी और माँ की इतनी बेइज्जती हो रही थी। इस दरबार में इतने लोग आकर पिताजी के सामने बक रहे हैं। मैं मन ही मन खुदको कोसने लगी - "धिक्कार है मुझे, मेरे जन्म पर।"

मैं वहाँ बैठकर और ज्यादा नहीं सुन सकी। ग्लानि से पूरी भीग गई थी। अपने कमरे में जाकर बिछौने पर पसर गई। बिछौना चुभने लगा। आँखों से लगातार आँसू बहने लगे। दिमाग सुन्न सा हो गया। मुक्ति का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। कभी लगता यह जिन्दगी ही बेकार है। जीनेका कोई मकसद नहीं दिखाइ दिया। अपनों को इतना बदनाम कर, प्रतिष्ठा विहीन कर जीने का क्या मतलब ? ऐसा ही सोचने लगी। कभी कभार ख़ुदकुशी का खयाल आने लगा था।

ऐसे ही बिछौने में पसरे हुए कितनी देर तक क्या क्या सोचती रही, पता नहीं चला, मैं सोचते सोचते ही सो गई थी। सेविका ने आकर मुझे जगाया। आँख खोलने पर माँ का चिन्चित चेहरा दिखाई दिया। माँ को देखकर मेरी रूलाई फिर से फूट पड़ी। माँ मेरे पास आकर बैठ गई। कुछ देर तक मेरा शिर सहलाती रही।

लंबी मौनता के बाद मैंने कहा - "माँ, इसमें मेरा कोई दोष नहीं है।"

माँ ने कहा - "लेकिन देखो, आज तुम्हारे ही कारण अपने ही दरबार में पिताजी को क्या क्या सुनना पड़ रहा है। वे अपने कमरे में कितनी देर से गुमसुम बैठे हैं। बुलाने पर भी नहीं बोलते। कृष्ण तुम्हें अच्छे लगते हैं, पर तुम्हें उन्हें यहाँ बुलाना नहीं चाहिए था। कहते हैं, पूरे ब्रज में तुम्हारे इस कुकर्म की चर्चा हो रही है। तुम क्यों नहीं समझती बेटी, वह तुम से उम्र में छोटा भी है। अपने से कम उम्र के लड़के को कैसे पति मानोगी ? तुम तो वृषभानु की बेटी हो। तुम्हारा औस नन्दराय के लड़के की तुलना नहीं हो सकती। हमारे आगे नन्दराय की आर्थिक हैसियत कोइ मायने नहीं रखता। हमें सामाजिक प्रतिष्ठा भी तो देखनी पड़ती है।"

मैंने कुछ नहीं कहा। लेकिन मैं समझ नहीं पार रही थी। दो युवा-युवतियों के प्रेम में यह हैसियत कहाँ से टपक पढ़ी ? वे दोनों मिलकर अपनी जिन्दगी खुद आरम्भ करते हैं। कहीं माँ-बाप की सम्पत्ति से बेटे-बेटियों की जिंदगी की आर्थिक हैसियत तय होती है क्या ? चाहे जो भी हो, भविष्य निर्माण तो अपने बलबूते पर ही करना है। बड़े से बड़े राजा भी समयान्तर में रंक हो गए हैं। कृष्ण से मेरा संबन्ध क्यों नन्द राय और वृषभानु की आर्थिक अवस्था ढूँढ़ रहा है।

माँ कह रही थी - "देख बेटी, तुम पिताजी के सामने जाकर माफी माँग लो। कहो कि आज ही से कृष्ण के साथ संबन्ध तोड़ दिया। तुम्हारे लिए पिताजी इस धरा के एक से एक महाराजाओं के लड़के ढूँढ निकालेंगे। इस कच्ची उम्र की नटखट को अब भूल जाओ। पिता-माता की इज्जत उनकी संतान होती है। तुम हमारी पूँजी हो। अगर तुम ही व्यवस्थित न हो तो इस धन-सम्पत्तिका क्या मतलब ? देखा नहीं, कैसे सारे गोप आकर पिताजी के सामने अंगुली उठाकर अपनी बेटीको ठीक से रखने को कह गए ?"

मैं एकटक एक तरफ देखने लगी। मैं कृष्ण को कैसे भूल सकती थी व त्याग सकती थी ? वे मेरे दिल की धड़कन थे। वे मेरे शरीर के रोम रोम में बसे थे। वे मेरी हर साँस में बसे थे। वे मेरी आँखों की ज्योति थे, कान की आवाज थे, मेरे स्पर्श और जीभ का स्वाद थे। कृष्ण के बगैर तो मैं ही असम्भव थी। लेकिन माँ कह रही थी - "उन्हें भूल जाओ।"

मैंने धीरे से माँ से कहा - "माँ इस संसार में सदा जीवित रहने के लिए कोई भी जन्म नहीं लेता। इसलिए जब जन्म हो गया है तो अपनी खुसी से जीने या मरना तो होगा ही। अगर जिन्दगी बुरी हो तो जीकर भी क्या फायदा ?"

मेरी बाँतों से माँ चौँक गईं। कुछ देर मुझे देखकर कहा - "क्या कह रही हो बेटी तुम ? क्यों ऐसी बातें कर रही हो ?"

मैंने कहा - "तो क्या करूँ ? आपलोग कितनी आसानी से मुझे राय दे रहे हैं, इसलिए मुझे अब इस धरती में जीने की चाह नहीं।"

"तुम वैसी बातें मत सोचा करो, बेटी। तुम्हारे बगैर क्या तुम्हारे पिता रह सकेंगे। क्या मैं जी पाऊँगी , क्यों हमें इस संकट मे डाल रही हो ?"

माँ आँसू पोंछते हुए चली गईँ । मैं पहली बार माँ की आँखों में आँसू देख रही थी। इस से पहले माँ को रूठते, रोते, चिल्लाते या झगड़ा करते हुए कभी नहीं देखा था।

मैं बड़े संकट में फँस गई थी। अचानक हमारे सुखी संसार में आँधी-तूफान आ गया था। पूरा दरबार सुनसान था। नौकर-चाकर सब मौन थे। हर बख्तका हल्लागुल्ला, उत्साह, खुसी कहीं गायब हो गए थे।

रातभर माँ-पिताजी के कमरें में बत्ती जलती रही। कभी कभार पिताजी को खिड़की के नजदीक टहलते देख लेती। उनके प्रति प्यार उमड़ आया । मुझपर मर मिटते थे। मेरी सारी खुशियाँ उनकी खुशियाँ थीं। बचपन में वे जहाँ भी जाते थे मुझे कभी कंधे पर रखकर तो कभी अँगुली पकड़कर ले जाते थे। मैं माँ से ज्यादा पिताजी के पास होती। जब मैं बड़ी होने लगी तो मेरी संगत ज्यादा सहेलियों के साथ होने लगी। कभी कभार पिताजी मुझे बुलाकर अपने पास बिठाकर शिक्षा दिया करते थे।

आज मेरे कारणों से माँ-पिताजी के भूख और नींद खत्म हो गए थे। मैं भी रातभर सो नहीँ पाई। मैं रातभर खिड़की से बाहर का दृश्य देखती रही। कभी कृष्ण पर गुस्सा आ जाता। कभी लगता उनसे कभी मुलाकात नहीं हो पाएगी।

दो दिन तक मेरी मुलाकात किसी से नहीं हुई। सेविकाएँ आ जातीं थी, और उन्हीं के संग दिन किसी तरह से कट जाता। तीसरे दिन की सुबह एक सेविका दौड़ती हुई आई और बोली - "हुजुर आज दरबार में जरूर कुछ होनेवाला है। बाहर द्वार के पास पहलेवाले लोग जमा हुए हैं।"

मेरा शरीर ठंडा हो गया। साँस गले में अटक गई। घर की दीवारें, फर्श सब काँपने लगे। सेविका तो अपनी बात कहकर चली गई थी। मेरे धैर्य का बाँध टूटने लगा। लगा, आज मैं भी उसी समाज में जाऊँगी और अपने मन की दो-चार बाते बताकर रहूँगी। आखिर मेरे बारे में ही इतनी चर्चा हो रही है तो मेरे विचार का भी महत्त्व तो होना चाहिए न ! मेरी मौनता के कारण ही मेरे माँ-पिताजी को क्यों इतना तनाव । जो भी हो मैं अपनी बातें जरूर रखूँगी। ऐसा सोचने पर मन थोड़ा संभल गया। उठकर सभा की तरफ जाने की तैयारी करने लगी।

सभा में लोग भरे पड़े थे। आज पहले से ज्यादा थे। लेकिन आजकी सभा पहले जैसी उत्तेजित या अधैर्य नहीं थी। सब शांति से बैठे हुए थे। पिताजी आगे जाकर खड़े हो गए। भीड़ में खुसर-पुसर बातें होने लगी।

इतने में चन्द्रभानु उठकर बोले - "हे वृषभानु, हमारे प्रधान, आपने क्यों इतने सबेरे हमें यहाँ बुलाया है ?"

पिताजी ने लंबी सांस लेकर कहा - "हे ब्रज वासियों, आपलोगों ने बड़ी कृपा करके मुझे अपना मुखिया बनाया। मैंने भी इसे अपना सौभाग्य मान लिया था। मुझे लगता था, जितना मुझसे हो सका उतनी सेवा मैंने आपलोगों की की है। मैं भी मनुष्य हूँ, मेरी भी बहुत कमजोरियाँ हैं। कितनी ही बातें ऐसी होती हैं जो आदमी चाहकर भी नहीं कर सकता, या चाहकर भी नहीं रोक सकता।

मेरे कारण या मेरी पुत्री राधा के कारण आपलोगों को ज्यादा तनाव झेलना पड़ा। आपलोग दूसरे जनपदों के आगे अपमानित महसूस कर रहे हैं। मैं एक प्रधान होकर भी अपनी ही लड़की को बस में न कर सकनेवाला हो गया। इसलिए लंबी सोच-विचार के बाद मैं इस नतिजे पर पहुँचा हूँ। अब मेरे ब्रज के प्रधान के पद पर बने रहना अशोभनीय होगा। इसलिए आपलोगों की माग अनुसार मैं इस प्रधान का पद त्यागना चाहता हूँ।"

अचानक पिताजी की पदत्याग की घोषणा से सभा स्तब्ध हो गई। किसी ने भी इसकी कल्पना नहीं की थी। गोप आतंकित से दिखे। सभी के चेहरों में अँधेरा छा गया। कुछ लोगों की साँसें अटक गई थीं।

पिताजी ने फिर कहा - "मैं एक पिता होने के नाते अपनी पुत्री का त्याग नहीं कर सकता। मैं दूसरे लोगों की भाँति एक पिता मात्र हूँ। संतान का जस-अपजस माता-पिता के शिर आता ही है। बेचारे नन्द राय भी क्या करें ! उनका उतावला बेटा कहाँ क्या गुल खिलाता है। फिर बालिग हुए लड़के-लड़कियाँ अपने निर्णय की खुद हकदार होते हैं। हम उन्हें बच्चों की भाँति अपने साथ भीँचकर तो नहीं रख सकते। कृष्ण और राधा संबन्ध भविष्य में जो भी हो, लेकिन अभी मैं यह मुखिया का पद आपलोगों पर सौँपता हूँ। आपलोग नये प्रधान का चुनाव करें, मैं उन्हें सहर्ष स्वीकार करूँगा।

सभाकक्ष में अचानक शोर होने लगा। पिताजीको मुखिया के पद से अवकाश देनेके लिए कोई भी राजी नहीं हुआ। बहुत देर तक कहा-सुनी चलती रही। कुछ लोग ऊँची आवाज में चिल्ला रहे थे - "वृषभानु ने समाज के मुखिया के रूप में रहकर किसका क्या बिगाड़ा था ? उनकी बड़ी हुई बेटी ने किसी समवय युवक को दिल दे दिया तो इसमें वृषभानु का क्या दोष ? हमारी भी बेटियाँ हैं, क्या हम उनकी वर चुनने की स्वतंत्रता को रोक पाएँगे ?

दूसरा बोला - "इन सभी झमेलों के रचनाकार हैं चन्द्रभानु। उनको इस जनपद का प्रधान होने की इच्छा जाग उठी है और यह सब उन्हीं का किया धरा है।"

तीसरा धीरे से बोल रहा था - "बात इतने में ही खत्म नहीं होती, वे अपनी बेटी सुशीला का ब्याह कृष्ण से करवाना चाहते हैं। उनको प्रधान-वधान कुछ नहीं बनना।"

सभा में अनेक खुसर-पुसर बातें हो रही थी। पिताजी ने फिर कहा - "मैंने आपलोगों को इसी बात की जानकारी के लिए कष्ट दिया है। अब मुझे फुरसत दीजिए। आज से मैं स्वतंत्र हो गया।"

लेकिन पिताजी की बात खत्म होने से पहले एक वृद्ध उठकर बोले - "वैसी बात नहीं है वृषभानु ! आप छोटी सी बात के लिए इतना बड़ा निर्णय नहीं ले सकते। आपको हम प्रधान पद से नहीं हटाएँगे। कल कुछ लोगों ने तैस में आकर कुछ कह दिया तो कृपया आप उसे भूल जाएँ। दो बालिग हो चुके लड़के-लड़की की बातों को लेकर पूरे समाज में कुप्रभाव होनेवाला काम कहीं करते हैं क्या ? हम सब आपके निर्णय को अस्वीकार करते हैं।

फिर एकसाथ चारों तरफ से बड़ी आवाज आई - "हाँ, हाँ हम सब आपका निर्णय अस्वीकार करते हैं।"

बहुत देर तक कोलाहल होता रहा। कुछ शांति छा जाने पर चन्द्रभानु उठकर बोले - "हे वृषभानु, आप हमें क्षमा करें। हमलोगों ने तैस में आकर आपके व्यक्तिगत और घरायसी मामले में बेमतलब की बातेँ उठाईं। सच कहें तो इसमें आपका थोड़ा सा भी दोष नहीं है। हमने नन्द राय से भी इस बारे में बात कर ली है। उन्होंने अपने बेटे को विद्या-अध्ययन के लिए मथुरा भेजने का निर्णय लिया है। कृष्ण के मथुरा जाने से हमारा तनाव भी खत्म हो जाएगा।"

इस पिछली बात से मैं फिर घायल हो गई। अब तो कृष्ण से मिलना वास्तव में असम्भव लगने लगा। उतनी दूर मथुरा जाकर कृष्ण कब लौटेंगे। क्या मैं उनकी प्रतिक्षा कर पाऊँगी ?

सभी ने चन्द्रभानु की बातों में हाँ में हाँ मिलाया और उठकर पिताजी से माफी माँगते हुए चलने लगे। पिताजी और कुछ कह नहीं पाए। सभाकक्ष खाली हो गया।

अचानक पिताजी तनाव-मुक्त दिखने लगे। उन्हें आसानी से ब्रजवासियों के अपमान से मुक्ति मिल गई थी। माँ भी खुस दिखीं। लेकिन सभी की बिमारी मुझे लग गई थी।

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..........अगले अंक में जारी

 

रूपान्तरकारः कुमुद अधिकारी

 

 

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