अंक 31वर्ष 5मई 2012

अस्तित्व का दावा

- अमर न्यौपाने

मैं खड़ा रहा। कारण मैं बस का इंतजार कर रहा था। वैसे मैं बैठ तो सकता था लेकिन वहाँ पास में बैठने की जगह नहीं थी। दूर जाकर बैठता तो बस छूट सकती थी। एक तो छूट चुकी थी। लगता तो है कि कुछ न छूटे जिंदगी में, कोई न छूटे जिंदगी में, लेकिन आहिस्ता आहिस्ता सब छूटने लगता है, सब छूटने लगते हैं। ऐसे ही सोचकर इंतज़ार करता रहा। था मैं गुलरिया में, जाना था नेपालगंज।

खड़े रहने से ऐसा लगा जैसे पैर जिंदगी की तौल नाप रहे हैं। मध्यान्ह। भदौ की गर्मी, वह भी गुलरिया की। देखा इधर उधर। लगा जैसे अपना ही श्यामश्वेत प्रतिरूप लंबा होता जा रहा है। भीतर कहीं एक सवाल उठा - 'साया रंगीन हो सकता है कि नहीं ?' सहसा एक दोस्त का सवाल याद हो उठा - 'पानी रंगीन हो सकता है कि नहीं ?'

पसीना पोँछा। अंदर के कपड़े तो भीग ही गए थे, पसीना रिसकर बाहर भी आ पहुँचा था। पसिने से कोई मजा नहीं ले पाया। रिक्सेवाले, टांगेवाले, ठेलेवाले, कुली और मजदूर सब पसिने का मजा ले रहे थे।

पसीना जीवन निचोड़कर निकलता है या रिसकर ! इस बात उलझते हुए फिर पसीना पोँछा। 'पों...पों....' बस आकर सामने रुक गई थी। कुछ देर घुर...घुर... बोलती रही बस। कैसी खर्राटे जैसी बोली है बस की.. घुर..घुर..। बस के मन की आवाज भी कितनी कड़ी।

बस के भीतर ढुकते ही, उमस, गर्मी और सड़न जैसे गंध में जा फँसा। हर रंग के पसिने का मिश्रित स्वाद, भीड़ को चीरते हुँ नाक जलाते हुए, फेफड़े में पहुँचा। कुछ वक़्त तो लगता ही है, नए वातावरण में समा जाने के लिए। जिन्हें उतरना था उतरे, जिन्हे चढ़ना था चढ़े। बस दौड़ पड़ी। हिलोरे खाते हुए बस में बेचैन लोग खुद ब खुद बराबर हो गए। सन्तुलन बन जाने के बाद आँखे इधर-उधर दौड़ने लगीं। लगा कहीं स्थिर तो करूँ आँखें, लेकिन कोई जगह नहीं मिली। कोई बात नहीं, याद को स्थिर हो ही जाएगी।

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बस की खट्टी गंध में कहीं सुगंध भी है क्या ? कहीं से छिपछिपकर आहिस्ता से मेरे पास आई। लगा सांस लेने में कुछ आसानी हो रही है। सुगंध की तरफ आखें दौड़ाईं तो आँखें एक सुंदरता में जाकर अटक गईं। वहाँ से मंदमंद आती सुगंधको प्राणायाम की तरह सांस खीचकर फेफड़े की तह तक पहुँचाया। इतनी अच्छी सुगंध को फेंकना तो चाहता नहीं था लेकिन क्या करता ? दुहरी सांस तो लेनी ही थी। बस, इतने में आश्वस्त हुआ कि सुगंध के कुछेक अंश अपने ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों में पहुँचा पाया।

आँखें चार हुईं जैसे शीत ऋतु के दो नदी मिल गए हों। दिल के छोर में कहीं गुदगुदी सी लगी। मैं इस मायने में आश्वस्त था कि शीत की नदियाँ दिल के किनारे नहीं तोड़ा करतीं। दिल अगर मजबूत हों तो वर्षा की नदियाँ भी नहीं तोड़ पातीं। इस दृष्टि में कुछ विचार नहीं था, भावना हो सायद लेकिन सुंदरता स्पष्ट थी। कला की नजर में वह सुंदर कलाकृति ही थी। उसके जवानी की रोशनी उसीका चेहरा भेदते हुए मेरी आँखों में फैल गई।

क्या रूप पहला परत है जीवन का ? उसके रूप को उधेड़कर दिखने वाले जीवन से परिचय करने यह मन उतावला हो ऊठा। आह ! कितनी भयानक इच्छा ! संवेदना के किस परत से यह विचार जनमा ?

सौम्य और शालीन ढंग से बैठी हुई। आत्मविश्वास से भरपूर। दृष्टि में कितनी चंचलता ! बस के भीतर कुछ देखने लायक वही तो थी। उससे बात करने की इच्छा हुई लेकिन इतनी दूर से जबरदस्ती बोलने से खुद का आत्मसम्मान तो धरासायी हो जाने का भय, अशिष्ट और अभद्र दिखने का भय ! एक अहम सवाल !

वैसे तो प्रशंसा करने लायक कुछ था नहीं उसमे। होगा कुछ लेकिन प्रकट नहीं था। वह हिलती थी तो उसकी सुगंध गाढ़ी बन जाती थी। मैं आसपास ही तो था उसके। ज्यादा नजदीक होता तो उससे बोलने लगता। मेरी सांसें सुगंध से भर जातीं । मैं सांस खींचकर फेफड़े भर देता। उसके सुगंध से नहा लेता। इतनी दूरी से यह संभव नहीं था लेकिन असंभव भी नहीं था।

लोकल बस थी। बीसियों जगह रूकरूकर चलना इसका काम था। लोग चढ़ते उतरते थे। खिड़की से बाहर देखा तो लगा मकानें लोगों का इंतजार कर रही हैं। बस खजुरा बाजार पहुँच चुकी थी।

इसी सुगंध को चीरते हुए एक दुर्गंध बस में फैल गई। दुर्गंध कहाँ थी पता नहीं लेकिन थी जरूर। किस चीज की दुर्गंध है यह भी पता नहीं चला। यह आभास हो रहा था मानों सुगंध और दुर्गंध में लड़ाई छिड़ गई है। किस चीच से दुर्गंध आ रही है यह पता लगाने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो पाया। बस के दूसरे लोगों को भी दुर्गंध का अहसास तो था लेकिन कोई कुछ बता नहीं पा रहा था। बस की अपनी गंध- पसिने की गंध, मैल की गंध तो नहीं थी। दो गंधों के बीच मैं अपने गंध का बचाव करने लगा।

कुछ देर पहले तक साफ चेहरे के उस आकाश में बादल छाए से दिखे। चेहरे का उजाला अंधेरे में बदल रहा था। गुलाबी होंठ सुर्ख पड़ रहे थे। लगता तो नहीं था कि लिपस्टिक का रंग बदल गया हो। देखते देखते उसकी सांसें बढ़ गईं। लगता था क्रुद्ध शेरनी(बाघिन) सांसें ले रही है।

दुर्गंध फैलती गई। उसी जगह बैठकर सोचने लगा कहीं दुर्गंध की जीत तो नहीं हो जाएगी ! कुछ देर पहले की सुगंध कहीं दुर्गंध तो नहीं बन गई ?  एक सवाल खड़ा हुआ यह कैसे संभव है ? नाक से साथ कान में भी दुर्गंध का झोंका आ पहुँचा और लगातार थपेडे देने लगा।

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बस नेपालगंज आ पहुँची थी। बी.पी. चोक में रूक गई। वह युवती उतर गई। मैं कुछ पीछे था। मुझे बस की भीड़ में फंसकर उतरना अच्छा नहीं लगता। इसलिए लोगों के उतरने का इंतजार करने लगा। मैंने सुना उतरते उतरते वह युवती शेरनी की भांति दहाड़ रही थी - "क्या सोच रखा है मुझे ? सस्ती बाजारू औरत समझ रखा है क्या ? सभी की अपनी-अपनी इज्जत-आबरू होती है। हिम्मत है तो आकर चिकोटी काट मेरे बाजुओं में। पूरे बदन में चिकोटी काट। मैं अभी तुझे लोगों से कहकर जुतों की माला पहनाकर शहर घुमा सकती हूँ। बुलाऊँ पुलिस ? हर एक पुलिस को पहचाना है मैंने ? बुलाऊँ क्या ? क्या समझ रखा है मुझे ? तुझ जैसे लोगों कि ऐसी कि तैसी कर सकती हूँ। "

उसके प्रतिकार में प्रतिवादी कोई नहीं निकला। लोग कुछ नहीं बोल रहे थे। दहाड़ने के बाद उसके चेहरे पर संतुष्टि झलक आई थी। जब उसे अपने अस्तित्व की जीत महसूस हुई उसका चेहरे बादल पिघलने के बाद के आकाश जैसा दिखने लगा। उसका चेहरा भी तो छोटे मोटे आकाश जैसा ही है। देखनेवालों को सूरज, चाँद, सितारे, बादल, वर्षा, बिजली, हवा सभी कुछ दिखाई देते हैं उसमें। उसके पीछे भीड़ मुसकुरा रही थी। भीड़ की यह मुसकान उसने देखी या नहीं पता नहीं। अगर देखती तो और ज्यादा गरज सकती थी। बस आगे बढ़ गई। भीड़ प्रतिक्रिया बिहीन होकर बिखर गई।

यह युवती मेरी आकर्षण का केंद्रविन्दु बन रही थी। अपने आत्मसम्मान की सुरक्षा उसने कैसे निर्विघ्न रूप से की। वहाँ सब पुरुष ही तो थे। वह अकेली थी और पर्याप्त थी। सभी प्रतिक्रियाविहीन बन गए थे एक युवती के आक्रोश से।

मैं तो यह भी नहीं जान पा रहा था कि वह किस पर इतनी गरज रही थी। बस में फैली ध्वनि दुर्गंध का पता तो मिल गया था सायद किसी बदमास मनचले ने कोई फिकरा कसा हो। अब्बल बदमास होता तो उस बेचारी का क्या चलता। अब्बल बदमास को तो दुनिया बदमास भी नहीं मानती।

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शायद उसकी और मेरी मंजिल एक ही थी, हम एक ही तरफ चल रहे थे। वह थोड़ा आगे थी लेकिन ऐसे चल रही थी मानो कुछ छूट गया हो। मैं उसके साथ हो लिया पर तुरंत बोल नहीं पाया। कुछ देर बाद वह ऐसी खड़ी रही मानो किसी का इंतजार कर रही है। मुझे भी वहीं तो खड़ा होना था।

- 'आपके अस्तित्व का दावा पसंद आया।'

- 'इतना न करूँ तो यह शहर जीने नहीं देगा।'

- 'आप अपना अस्तित्व जी गईं।'

- 'सबका अपना अस्तित्व होता है।'

- 'पर आपके अस्तित्व में ताकत है।'

मेरी बात सुनते ही उसने आँखें छोटी करके मेरी तरफ देखा। पता नहीं, क्या पढ़ पाई कुछ देर तक कुछ नहीं बोली। मैं भी चुप रहा। लगा अपना अस्तित्व बोध कर रही है। उसके बोलने के आसार न देखकर मैं ही बोल उठा।

'आपसे परिचय करना चाहता हूँ।'

'परिचय करने से क्या होगा ?'

'अस्तित्व बोध और अस्तित्व दावा करने वालों के बीच परिचय होगा।'

'मेरा कोई परिचय नहीं है।'

'संसार में हर चीज का परिचय होता है। सजीव का, नीर्जिव का।'

'मैं खुद अपना परिचय हूँ।'

'फिर कैसे आपको ढूढ़ूँगा ?'

'मत ढूँढ़ना।'

'पूछना चाहूँ तो ?'

'मत पूछना।'

'तो फिर हर मुलाकात फिर न मिलने के लिए होती है ?'

'संयोग हो सकता है।'

'कोई संयोग का इंतजार करे या कोशिश करे ?'

'फिर आप ही कहो परिचय क्या है ?'

'नाम।'

'अगर परिचय नाम है तो मेरा नाम इस दुनियाँ में कितनों से मिल जाएगा लेकिन मैं तो किसी से नहीं मिलती। मैं दूसरों से अलग हूँ। मान लो मेरा नाम सविता है। सविताएँ और भी हैं और हर सविता दूसरी से अलग है। फिर मेरा नाम सविता होने का क्या मतलब ?'

'वैसे तो जगहों के नाम भी वैसे ही होते हैं। हमारे चितवन में सीतापुर है, नेपालगंज में भी है और भारत में कितने सीतापुर हैं। इसका मतलब सीतापुर का परिचय ही नहीं बनता ?'

'आप पत्रकार हैं क्या ?'

'क्यों पत्रकार को नाम नहीं बताया जाता ?'

'आप पत्रकार से ज्यादा साहित्यकार लगते हैं।'

'क्यों ?'

'वैसे ही।'

'ठंडा पीएँ ?'

'रहने दें।'

मैंने इसको उसकी इच्छा समझकर दो कोक की बोतलें मंगावायी। वह संकोच के साथ घड़ी देखने लगी। घड़ी देखने का मतलब सिर्फ संकोच था या और कुछ मैं तय नहीं कर पाया।

कहना तो नहीं चाहिए, वह भी अपरिचित औरत से लेकिन मुझे लगा उसके श्रंगार करने का ढंग सामान्य नहीं लगा। पता लगा उसके गहने सब नकली हैं। असल में इन्हीं नकली गहनों से वह अलग दिखी थी। कान में बड़े बड़े रिंग थे। गले में मोती जैसा हार। हात में चूड़ियाँ थी लेकिन बाजारू नहीं। गाजल लगाने का ढंग भी पुरानी हिन्दी फिल्मों की हिरोइनों जैसा। बाल भी वैसे ही। जिस किसी को भी आकर्षित करता श्रंगार। कपड़े भी एकदम अलग डिजाइन के।

'आपके मेक अप करने का ढंग बिलकुल अलग और सुंदर है। चेहरे से मैचिंग है।'

'सिर्फ मेक अप सुंदर या मैं भी ?'

'अगर आप सुंदर नहीं होती तो मेक अप इतना नहीं खुलता।'

'गर्मी में तो सारा मेक अप घुल जाता है।'

'आप क्या बर्फ हैं ?'

'मैं बर्फ जैसी ठंडी नहीं हूँ।'

'आप बर्फ जैसी कमजोर भी नहीं हैं जो क्षण भर में पिघल जाता है।' कुछ देर हम चुप रहे। यह चुप्पी मुझे अच्छी नहीं लगी। प्रसंग बदलकर मैंने पूछा - 'आपके कपड़े भी तो फैसन से अलग हैं।'

'अपने कपड़े मैं खुद डिजाइन करती हूँ।'

'सिलती भी हैं खुद ?'

'डिजाइन करके देती हूँ, टेलर सिल देता है।'

'आप के रूपरंग, श्रंगार और कपड़े देखकर तो आप मुझे कोई सपनों की राजकुमारी लग रही हैं।'

'मेरे पास दिखाने के लिए भीतरी ज्ञान नहीं है। जो दिखता है उतना ही है।'

'क्यों आप अपने आपको इतना सजाती हैं ? मेक अप करती हैं ?'

वह कुछ गंभीर व भावुक हो कर बोली - 'तो फिर क्या करूँ ? मेरा घर, मायका, बाप, मा, शौहर, बेटे-बेटियाँ, सबकुछ यही तो है। मैं तो इसी में बची रही हूँ। इस मेक अप को, इन कपड़ों को अपनी इच्छानुसार इस्तेमाल तो कर सकती हूँ। कितनी संतुष्टि देते हैं। मैं इन्हें अपनों के जैसा ही प्यार देती हूँ, जैसे बेटे-बेटियों का प्यार, शौहर का प्यार, मा का प्यार, प्रेमी का प्यार।

अगर पूछा होता तो और बहुत कुछ कह सकती थी वह। लगा उसकी भावुकता पिघलकर छलक पड़ी और मैं सम्हाल न पाउँ तो क्या करूँगा। वह भी बोल नहीं पा रही थी। मैं भी तो उसकी बातें सुनकर भावुक हो गया था। कभी दूर क्षितिज की तरफ या कभी उसी के चेहरे की तरफ देखने लगा। पास में कोक की दो खाली बोतलें थीं, उन्हें भी देखा।

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एक रिक्सा आ कर सामने रूक गया। एक शालीन, संभ्रांत, भद्र दिखने वाला पुरुष रिक्से में बैठा था। उस पुरुष को देखते ही युवती हँस पड़ी। फिर हौले से रिक्से में उसके साथ बैठ गई। हाथ हिलाकर मुझे बॉय किया। मैंने भी चुपचाप हाथ हिलाया। रिक्सा न्यूरोड की तरफ चल पड़ा।

 उसके जाने के बाद लगा मेरे जीवन से कोई बहुत बड़ी चीज निकल गई है। मैं खुद को समझाने लगा कि सिर्फ रास्ते में मिली एक जवान औरत बिछड़ गई है। रिक्से का आदमी कौन था मैं कुछ अंदाजा नहीं लगा पाया।

देखने पर लगता वह पुरुष उसका प्रेमी, शौहर, भैया, मामा, चाचा.... जो कोई भी हो सकता था। लेकिन युवती के व्यवहार से तो बात कुछ और लगती है। मैं फँस गया। कुछ तय नहीं कर पाया। भले ही उसने अपना परिचय न दिया हो, इतनी नजदीकी से बातें करने पर वह अपना मोबाइल नंबर तो दे सकती थी। मैं ही भूल बैठा। फिर मुलाकात की आशा मारकर मैं अपना राह हो लिया।

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कुछ दिनों के बाद की बात है। मैं बागेश्वरी मंदिर से निकलकल न्यूरोड की तरफ बढ़ रहा था। त्रिवेणी मोड़ से आता हुआ रिक्सा सामने से गुजर गया। देखा रिक्से में वही युवती थी। उसके साथ एक जवान भी था जो पहले वाला नहीं था। मैंने याद किया मेरा सवाल - 'तो हर मुलाकात फिर न मिलने के लिए होती है ?' उसका जबाव था - 'संयोग हो सकता है।' लगा संयोग तो आ पहुँचा। लेकिन मैं उसे पुकार नहीं पाया।

दूसरे दिन न्युरोड के एक रेस्तराँ में नादिर के साथ मैं मोमो खा रहा था। सामने के होटल से निकलती दिखी वही युवती। वह एक युवक के साथ निकल रही थी जो कलवाला भी नहीं था। होटल से निकलने के बाद युवक उत्तर की तरफ हो लिया और युवती रिक्से में बैठकर दक्षिण की तरफ चल दी।

हमारे पास बैठे तीन लोग शायद उसी दृश्य के बारे में बात कर रहे थे। एक पुलिस जैसा दिखता था। उसका बदन और बाल बनाने का अंदाज यह बता रहे थे। लगा ह वह असिटैंट सब इंस्पैक्टर से उँचे दर्जे का है। बाकी दो मेरी ही उमर के थे। वे कानाफूसी कर रहे थे। मैंने सुनने की कोशिश की पर सुन नहीं पाया की क्या बोल रहे हैं। लगा वे उसी युवती के बारे में बातें कर रहे हैं। लेकिन मुझे लगने से क्या होता। अपने शिष्टता की हदतक पहुँचकर सुनने पर भी नहीं सुन पाया। बीच बीच में टूटे फूटे शब्द ही सुन पाया।

....बदिनी..सुंदरी, द्वन्द्व पीड़ित, राजमार्ग, गाँव, शहर, संभ्रांत, गरीबी, होटल, दिन दहाड़े, जीने को, बाध्यता, शौक, एकल, धंधा, सीमापार..... यिन शब्दों से अर्थ खुलने वाला वाक्य नहीं बना पाया।

शब्द और वाक्य छूटने पर वास्तविकता का रूपांतरण अपूर्ण अर्थ में, विपरीत अर्थ में पहुँच जाता है।

मैंने याद किया - बस छूटने की बात। यहाँ तो शब्द और वाक्य छूट गए। लगता है कुछ न छूटे जिंदगी में, लेकिन सबकुछ छूटता जाता है। फिर.. व्यवहारिक तौर पर वही सवाल उठ खड़ा हुआ। बार बार के छूट के साथ जिंदगी अर्ध-चेतना में जी रही होती है।

मैंने याद किया बस में उसका अस्तित्व दावा। लगा अब कौन से पात्र से मैं रूबरू होऊँगा और बदलूँगा जिंदगी उसी में। यही सोचते हुए कहानी के किनारों पर जिंदगी के रास्ते तलाशते हुए चल पढ़ा।

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 नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी।

 

 

 

 

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टिप्पणियाँ

Essam
I'm impressed by your writing. Are you a professional or just very knolweedagble?

SNEHA TANTARPALE
GREAT,REALLY FANSTATIC.

sudha
great story very nice

Sandeep
Tangible story man..REaly nice...

jaan
very good story


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