अंक 30 | वर्ष 4 | जुलाई 2011 |
एक दूसरा गड्ढा
-- महेश विक्रम शाह
वह गड्ढा खोदने लगा। रात के गहरे अंधेरे में वह जमीन पर जल्दीजल्दी कुदाल चला रहा था। कुदाल से निकली मिट्टी और चकतों को वह गड्ढे के बाहर किनारों पर जमा कर रहा था और गड्ढे को बड़े से बड़ा बनाने की कोशिश कर रहा था।
तकरीबन पाँच छह घंटे की उबाऊ यात्रा के बाद छापामार की वह टोली वहाँ पहुँची थी। छापामार तीब्र गति से आगे चल रहे थे और मिलिसिया उनके पीछे चल रहे थे। वह उसी टोली का मिलिसिया सदस्य था। छापामारों के पास अनेक आकार-प्रकार की बंदूकें थीं। लेकिन वह हात में कुदाल ले कर चल रहा था। सैकड़ों की उस टोली में हाथ में कुदालें, फावड़े और पीठ में डोको लेकर चलने वालों की सङ्ख्या भी करीब सौ के करीब थी।
उनमे से कई ऐसे थे जिसके पास कुदालें, बेलचे और फावड़े थे और उनका काम गड्ढा खोदना होता था। बाकी जो डोको लिए हुए थे उनका काम युद्ध मैदान में मरे हुए छापामारोंको ढोना था। डोको में उन्हें ढोकर लाया जाता और गड्ढे में डालकर मिट्टी से ढक दिया जाता। ये लोग खुद तो युद्ध नहीं करते थे मगर मरे हुए छापामारों को दुश्मन की दृष्टि से बचाकर गड्ढे में गाड़ने की जिम्मेदारी इनकी थी।
उसे गड्ढा खोदते वक्त अपनी जिम्मेदारी याद हो आई। उफ् ! कितना हृदय विदारक है यह काम। अपने जिंदा कॉमरेडों की संभावित मौत से रूबरू होते हुए वह गड्ढा खोद रहा है। मानो गड्ढा युद्ध का एक महान दर्शन है और गड्ढे में समाहित होने की संभावना स्वीकार करना युद्धका आधारभूत सिद्धांत। वह याद करता है किसी कॉमरेड ने यह कहा था कभी। लेकिन वह तो युद्ध के दर्शन और सिद्धांत के बीच खड़े हो कर हाथ में कुदाल लेकर गड्ढा खोद रहा है।
गड्ढा खोदते हुए वह कुछ देरके लिए रूकता है। थककर चूर हो गया है। दाहिने हाथ से माथे का पसीना पोँछते हुए उसने लम्बी साँस खींची। दाएँ-बाएँ देखा। उसके साथी भी एक ही लाइन में गड्ढे खोद रहे थे। अंधेरे में उनके चेहरे तो नहीं देख सकता था लेकिन फावड़ों, कुदालों और बेलचों की आवाज के साथ साथियों 'हुँ....हुँ....' की स्वरलहरी उसे यह बता रही थी की सभी को गड्ढे खोदने की जल्दी है। और सभी इसके लिए व्याकुल हैं।
छापामारों की सशस्त्र टोली अब तो अपने लक्ष्य में पहुँच गई होगी। संभवत कुछ देर बाद ही दोनों पक्षों के बीच मेघ की गर्जन जैसी गोलीबारी शुरू हो जाएगी और लाशों के ढ़ेर गिरने लगेंगे। 'लाशों के ढ़ेर गिरने लगेंगे' इस आभास से उसका मन विचलित हो उठा। अपनी कुछ देर पहले की सोच को अनुभव से तुलना करने लगा। उसे लगा वह जो कुछ सोच रहा था, वह बहुत सत्य के करीब था। उसका अनुभव संकेत दे रहा था कि आज के युद्ध में भी लाशें गिरेंगी। जितने मरेंगे सभी नेपाली होंगे। उससे बड़े कॉमरेड भी होंगे जिन्हें वह सलाम बजाता है। उसके सहकर्मी भी होंगे क्योंकि उनकी संख्या तब से घट रही है जबसे उसने गड्ढा खोदना शुरू किया है।
'आज भी मुझे लाश गड्ढे में डालने होंगे।' उसको उसकी जिम्मेदारी याद हो आई। अपने आपको काम में समर्पित करने की कोशिश करने लगा।
वह कुदाल उठाकर फिर मिट्टी खुरचने लगा। वह नहीं जानता था कहाँ गड्ढा खोद रहा है। वह यह भी नहीं जानता था कि वह जहाँ गड्ढा खोद रहा है वह जमीन किसी का खेत है, बंजर है या किसी के घर का आँगन। बस उसे तो इनता याद है कि कॉमरेड ने उन्हें जगह दिखाते हुए यह बात कही थी - 'गड्ढे यहीँ खोदना ।' इसके अलावा वह इस बात पर भी सचेत था कि छापामरों की क्षत-विक्षत लाशों को वहाँ लाए जाने से पहले उसे गड्ढे खोदने का काम खत्म करना है। उसके थके हुए बदन में कहीं से फिर ताकत भर आई। उसके हाथों ने फिर फावड़ा पकड़ा। एकतरफ हाथ फावड़ा चला रहा था तो दूसरी ओर खुद खोदे हुए गड्ढे को देखकर उसका मन भावुक पड़ रहा था। ऐसे कितने गड्ढे उसने खोदे, कितने लोगों को गड्ढे में डाला, उसका हिसाब किताब तो नहीं है, न ही वह उन छापामारों के चेहरे याद हैं जिन्हें उसने गड्ढों में डाल दिया है। वह सिर्फ इतना जानता है कि जैसे गड्ढे अभी वह खोद रहा है, वैसे गड्ढे उसने बहुत खोदे हैं और उनमें बहुत लाशें डालकर मिट्टी से ढक दिए हैं। जो लाशें आती थीं वे विभिन्न वर्णों की, विभिन्न आकार की होती थीं। वह किसी को पहचानता था, किसी को नहीं। चूँकि उसका काम ज्यादातर रात को ही होता था, रात में लाशों के चेहरे पहचानना मुश्किल बात थी। जो भी हो, अपने सहकर्मियों की वीभत्स मौत से वह आहत हो उठता था, उसके दिलोदिमाग में आँधियाँ चलने लगती थीं।
'ओह, मैंने कितने गड्ढे खोदे।' गड्ढे की मिट्टी को बेलचे से बाहर फेंकते हुए वह सोचने लगा। उसे याद हो आया, उसके खोदे हुए पहले गड्ढे में पड़नेवाली लाश उसीके पिताजी की थी।
नदी तट पर मिली अपनी पिताजी की लाश को उसने वहीं पर गड्ढा खोदकर दफना दिया था। पिताजी के लाशको दफनाते वक़्त उसने प्रण किया था कि जिस कारण से पिताजी की मौत हुई है वह उस 'कारण' को भी इसी तरह दफनाएगा।
'शायद मैं भूल गया था पिताजी का चेहरा उस क्रूर मौत का कारण।' उसके दिमाग में कहीं पिताजी की धूमिल सी आकृति उभर आई जो तुरंत ही गायब भी हो गई। पिताजी की निर्जीव लाश उससे खुदे हुए पहले गड्ढे में दफनाई गई। उसके बाद उसके दिमाग में उन गड्डों के चित्र उभर आए जिनमें उसने अपने सहयात्रियों को दफनाया था। उसने याद किया कैसे हर प्रतिकूल मौसम में गड्ढे खोदे हैं। वर्षात् से भीगते हुए या सर्दी से ठिठुरते हुए, उसने कभी अपने काम से जी नहीं चुराया। फिर भी यह गड्ढे खोदने का काम कभी नहीं रूका। बल्की गड्डों की आकार बड़ती गई। इन्हीं गड्डों में स्मृति में एक गड्ढा याद हो आया जिसमें एक छाती में गोली लगकर ढ़ेर हो गई एक सहकर्मी को दफनाते वक़्त वह पहली बार दहाड़ें मारकर रोया था। अपने ही उमर की जवान लड़की, अपने ही जैसे सपनें देखनेवाली खाती पीती लड़की को अनजान जगह में मरे हुए जानवर जैसे दफनाते वक़्त वह पीड़ा और संताप से पागल सा हो गया था। उस लेडी मिलिसिया से परिचय हुए भी ज्यादा नहीं हुआ था। वह डोको में मरे हुए मिलिसिया और छापामारों को ढ़ोकर वहाँ पहुँचाती थी जहाँ गड्ढे खोदे जाते थे।
छोटे समय में ही उनकी दोस्ती गहरी हो गई थी। वे प्रेमजाल में फँस गए थे। जब मिलते थे अपनी अपनी आपबीती एक दूसरे को सुनाकर जी हल्का करते। घर छोड़कर जंगल में डोको में लोगों को ढोना और कुदाल चलाना, दोनों की नियति एक ही थी। लेकिन पिछले युद्ध में वह मारी गई थी। उसके लाश को किसी दूसरे के डोको में ठूँसकर लाया गया था। लाशों के ढेर में उसकी खून से सनी लाश देखकर वह जड़ हो गया था मानो उसे लकवा मार गया हो। उसने अपने हाथों से उसके खून सने चेहरे को छुआ था। सुंदर सपने देखनीवाली उसकी आँखे निर्जीव थीं। वह उन्हीं आँखों को देखते हुए गड्ढे में झुक गया था। उसके बाद वह बहुत दिनों तक विक्षिप्त और असंतुलित रहा। हर पल उसके मन में अनेक सवाल खड़े होते - 'वह क्यों मरी ? किसके लिए मरी ? जान देकर क्या पाया उसने ? अपनी बेटी खोकर उसके बाप को क्या मिला ? अपनी बेटी को कुरबानी देकर उसकी माँ को क्या मिला ?'
गड्ढे में दफनाई जानेवाली सिर्फ वही अकेली नहीं थी। अपने अनेक सहकर्मियों को उसने गड्ढे डालकर मिट्टी दी थी। वे सब मृत्युभक्त उसकी स्मृति से लुप्त हो चुके थे। हर नया गड्ढा पुराने गड्ढे के इतिहासको मिटा देता था।
'उसकी मौत के बाद मैंने अपने आपको सम्हाला और दफनाने के लिए लाई जानेवाली लाशों को देखकर आँसू गिराना बंद कर दिया।' उसने महसूस किया उसका इन कामों से उसका दिल मजबूत हो गया है। लेकिन हर नया गड्ढा उसके दिल में ठंडी लहर पैदा करता और वह उस गड्ढे में लाए जानेवाली लाश की कल्पना कर सिहर उठता। उसे लगता 'मैं भी कहीं ढेर हो जाऊँगा और मेरे साथी मुझे लाकर इसी तरह गड्ढे में डालेंगे। मेरे साथ ही मेरे सारे सुंदर सपने भी इन्हीं आँखों के साथ गड्ढे में समा जाएँगे और मिट्टी से ढक दिए जाएँगे।' अपनी मौत के विचार से वह भावुक हो उठा।
वह लगातार गड्ढा खोद रहा था। शारीरिक श्रम और मानसिक चिंता से वह थक गया था और क्लांत अनुभव कर रहा था। कभी उसे प्यास लगती तो कभी भूख। वह गड्ढे के किनारे से टेक लगाकर खड़ा हो गया और दाएँ हाथ से पैंट की जेब में हाथ भर जौ का सत्तू निकालकर मुह में डाला। फिर गैलन से पानी गटागट पीकर लम्बी साँस खींची। 'मैं भी अगर बंदूकवाला छापामार होता तो मुझे इस कदर सत्तू खाते हुए गड्ढा नहीं खोदना होता। भर पेट मांस और चावल खाता और लड़ाई लड़ता। औरोंको मारता या खूद मरता। ऐसे साथियों की लाशों को देखकर हरपल मरना तो नहीं पड़ता।' वह सत्तू मुह में चलाते हुए जीवन के बारे में गंभीर होकर सोचने लगा। और जितना सोचने लगा उतना ही तनावग्रस्त होता गया।
उसने सामने दूर तक निगाह फेँकी। अँधेरे में कुछ नहीं दिखाई देता था। लेकिन उसने अनुमान किया कि छापामारों की टुकड़ी जिस तरफ भागी थी वह यही दिशा थी। उसने व़क्त का जायजा लिया और सोचने लगा अब तो लड़ाई शुरू हो गई होगी। इस बात की बोध से ही अचानक उसके पसीने से तर बदन में स्फूर्ति दौड़ गई। वह जल्दी जल्दी कुदाल चलाकर गड्ढे को पूरा करने की तरफ़ ध्यान लगाने लगा।
वह चिंतातुर था, क्योंकि उसे डर था कहीं वह गड्ढे को समय में पूरा कर पाएगा या नहीं। 'फिर आज किसकिसको इन गड्ढों में डालना होगा।' वह पहचाने हुए छापामारों के चेहरे याद करने लगा। गोरे, काले, गोल, लम्बे, लंबी नाक वाले, छोटे नाक वाले, चेहरे। सब के सब गाँव के नेपाली चेहरे।
उसके सामने सब परिचित चेहरे मुस्कुरारहे थे। कम्बैट ड्रैस में, कंधे पर राईफल लटकाए, ललाट में लाल टीका लगाए, शिर में लाल रूमाल लपेटे और बदन में उबलते हुए खून के साथ लाल लाल चेहरे। युद्ध में संसार विजय की मधुर ख्वाब लिए आग की चिंगारियों तरह ऊपर उठते चेहरे । वह चेहरे जिन्हें वह आदर करता, प्यार करता। उन चेहरों की क्षतविक्षत अवस्था की कल्पना कर व सिहर उठा, उसको कँपकँपी छूट गई।
'हे ईश्वर मुझे यह सब देखना न पड़े।' वह दिल से प्रार्थना करने लगा। हालाँकि उसे उसके कॉमरेड ने कई बार बताया भी था कि संसार में कहीं ईश्वर नाम की चीज नहीं है और यह सिर्फ लोगों की कोरी कल्पना है, लेकिन जब भी विपदा की घड़ी आती वह ईश्वर को ही पुकारता। वह जब संकट में होता तो छिपछिपकर ईश्वर से प्रार्थना करता और फिर कॉमरेड का उपदेश याद आते ही अपराध बोध से ग्रसित हो जाता।
'आज भी मैं ईश्वर से युद्ध में अपने साथियों की कुशलता के लिए प्रार्थना करता हूँ।' उसने दोनों आँखें बंद की और अपने कुलदेवताको याद करने लगा। उसकी आँखे खुलने ही वाली थीं कि अचानक सैकड़ों बंदूकों की आवाजें एक साथ आने लगीं।
'लड़ाई शुरू हो गई।' वह जोड़ से चिल्ला उठा। उसके साथ ही उसके मिलिसिया साथी भी चिल्ला उठे - 'हाँ, हाँ, आक्रमण शुरू हो गया।'
वह तेजी से गड्ढे से मिट्टी खोदकर बाहर फेंकने लगा। कुछ देर बाद गड्ढा तैयार हो गया। गड्ढे के किनारे बैठकर उसने उस तरफ देखा जिधर से बंदूकों की आवाजें आ रही थीं। आकाश में चिंगारियाँ ऊठ रही थीं। वक़्त ज्यों-ज्यों बीत रहा था, त्यों-त्यों चिंगारियों का घनत्व बड़ रहा था। उसने अंदाजा लगाया - आज भी लड़ाई घमासान हुई होगी।
'गड्ढा कहाँ है ?' किसी की तीखी आवाज से वह चौंक गया। उसके पास डोको पर लाश ढोनेवालों की कतार खड़ी थी।
'गड्ढा यहाँ है कॉमरेड।' वह भी जोड़ से चिल्लाया।
डोको ढोने वाले एक एक करके लाश गड्ढे में गिराते गए। डोको से गिरते खून से सने लाशों के क्षतविक्षत चेहरों को पहचानने की नाकामयाब कोशिश करने लगा वह। अँधेरे में सभी लाशें एक जैसी नजर आ रही थीं। कुछ देर पहले तक अच्छे भले शरीर को लाशों के ढ़ेर में तब्दील होते देख वह वेदना से काँप उठा। युद्ध में जिन्होंने ख्वाब देखे थे उनकी आँखे अब पथरीली हो गई थीं।
छापामारों की लाशों से सब गड्ढे भर गए थे और भरे हुए गड्ढों के ऊपर भी लाशों के ढेर जमा हो गए थे। कटे हुए लकड़ी के कुंदे की भाँति बिखरे हुए लाशों को देखकर उसकी आँखे भर आईं। ऐसे में फिर एक टोली डोको में लाशों को ढोते हुए आ पहुँची। पहले खुदे हुए सब गड्ढे भर चुके थे। नए लाशों के लिए एक भी गड्ढा बचा नहीं था।
'आज हमारी तरफ ज्यादा नुकसान हुआ है। जल्दी से गड्ढे खोदो।' युद्ध मैदान से आया कमांडर चिल्लाया।
वह फिर नया गड्ढा खोदने में जुट गया।
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नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी।
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