अंक 29वर्ष 3जुलाई 2010

राधा

-- कृष्ण धरावासी

 

   (पहली किस्त)

सुबह चार बजे जागकर लिखने बैठ गया था। पौराणिक विषयों आधारित एक उपन्यास लिखने की ख्वाहिश थी। इसके लिए विषद् अध्ययन जरूरी था। लेकिन भाषा की मजबूरी थी। संस्कृत का ज्ञान नहीं था, नेपाली में सामग्री उपलब्ध नहीं थी। जो कुछ भरोसा था वह हिन्दी का था। जो किताब चाहिए होती वह मिलती नहीं थी। कहते थे गोरखपुर से 'गीता प्रेस'  किताबें छपवाकर सस्ते दामों बेच में रहा है। वहाँ भी मैं जो चाहता था नहीं मिला। बहुत दिनों से मैं पुराणों की तलाश कर रहा था। एक दिन घूमने के बहाने अर्जुनधारा मंदिर चला गया। जब भी मुझे धार्मिक विषयों पर जानकारी चाहिए होती थी मैं वहाँ जाया करता था जहाँ पंडित पुष्पलाल निरौला रहा करते थे। उनसे जब भी मुलाकात होती धार्मिक चर्चा परिचर्चा तो होती थी। उस दिन वह नहीं मिले। लेकिन मंदिर परिसर में जाने के बाद सुखद आश्चर्य हुआ क्योंकि लक्ष्मी खरेल ने स्वर्गीय पिता दुर्गाप्रसाद खरेल की स्मृति में मंदिर परिसर में एक पुस्तकालय बनवाकर उसके सामने अपने पिताजी की मूर्ति डलवा दी थी। पुस्तकालय धार्मिक पुस्तकों के लिए बनवाया गया था। भीतर जाकर देखा तो लाल कपड़ों में लिपटी सैकड़ों किताबें टेबल पर बिखरी पड़ी थीं। उन्हें बुकरैक बनवाने में समय लगने वाला था। मैं अर्जुनधारा मंदिर परिसर के गुरुकुल विद्यालय के विद्यार्थीओं से बतियाने के बाद खाली हाथ लौट पड़ा क्योंकि गुरु पुष्पलाल की मर्जी के खिलाफ वहाँ से कुछ भी ले जाया नहीं जा सकता था। इच्छा होते हुए भी किताबें नहीं मिलीं।

ऐतिहासिक और पौराणिक साहित्य में मुझे बचपन से ही गहरी दिलचस्पी थी। दो महिनों से मैं एक कहानी में व्यस्त था। सतीप्रथा संबधित वह कहानी तकरीबन अंतिम दौर में पहुँच चुकी थी। 'झोला' शीर्षक की उस कहानी में सतीप्रथा के प्रभाव को कारुणिक बनाने का प्रयाश मैंने किया है।

सुबह छ बजे कोई खिड़की से दैनिक पत्र 'विवेचना' अंदर डालकर चला गया। कुछ देर के लिए लिखना छोड़कर पत्रिका के पन्ने पलटने लगा। चार पेज की यह मोफसल की पत्रिका में प्रायशः स्थानीय समाचार छपे होते हैं। आदतन बड़े बड़े अक्षरों में आँखें फिराईं। पहले पेज में ही एक समाचार छपा थाः 'कीचकवध उत्खननः पुरातात्विक चीजें प्राप्त'। समाचार छोटा था पर मुझे लगा वह मेरे लिए महत्वपूर्ण है। झापा जिले में ऐतिहासिक जगह की खुदाई हो रही थी और अज्ञात इतिहास खोजा जा रहा था। कल्पना मात्र से ही कितना आनंद मिलता है। मानो वहाँ दसियों हजार वर्ष पुराने समाज की कहानी मिलने जा रही है। 'विवेचना' का वह समाचार मुझमें अजीब सी कुतूहल जगा गया था। राजधानी से आए पुरातत्व विभाग की टोली ने कल से काम शुरू किया था। पता नहीं क्यों मैं तरंगित हो चला था। 'विवेचना' के समाचार ने मुझे पिछले वर्ष 'कांतिपुर' दैनिक में छपे हुए चिंतामणि दाहाल के एक फिचर लेख को याद करा दिया। पुरानी पत्रिकाओं के पुलिंदे से पिछले वर्ष माघ 20 का कांतिपुर ढूँढ़ निकाला।

'कीचकवध की ऐतिहासिकता, बारहवीं शताब्दी से पहले जा सकती है' शीर्षक फिचर लेख में जो लिखा था वह इस प्रकार है - "झापा के ऐतिहासिक और पुरातात्विक स्थल के रूप में परिचित कीचकवध में पुरातत्व विभाग द्वारा वि.स. 2058 में जो खुदाई हुई है, उससे अनुमान लगाया गया है कि कीचकवध की ऐतिहासिकता बारहवीं सदी से पुरानी हो सकती है। अभी तक प्राप्त चीजों से पता चलता है कि यह कोई मध्यकालिन गढ़ था और इसका इतिहास महाभारत काल तक जा सकता है।"

पुरातत्वविद उद्धव आचार्य के नेतृत्व में आए टोली ने जो पौष 27 से माघ 12 तक जो खुदाई की थी उसीसे यह अनुमान लगाया गया था। महाभारतकालिन किंवदन्ती को आधार मानकर दो दशक पहले भद्रपुर स्थित मेची कॉलेज के इतिहास विभाग ने जो खुदाई का काम शुरू किया था उसे पुरातात्विक विभाग ने हस्तक्षेप कर बंद करा दिया था और अपने निगरानी में ले लिया था।

उस वक़्त का खुदाई का काम पुरातात्विक किस्म का नहीं था, इसलिए ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ। एक पुराना तालाब मिल गया था जिसे उद्योगपति मोहनलाल अग्रवाल ने मरम्मत करवा दिया था। तकरीबन तीन कट्ठे जमीन पर बने उस तालाब को भीमसेन की गदा से निर्मित मानकर श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती थी। विशेषत स्वस्थानी पूर्णिमा के दिन यहाँ मेला लगता और भक्तजन तालाब में स्नान कर तालाब के किनारे बने शिव, विष्णु और भीमसेनद्वारा कीचकवध की मूर्तियों का दर्शन करते। 'तालाब में स्नान करने से चर्मरोग हट जाएँगे और मनोवांछित फल मिलेगा' ऐसा विश्वास भक्तजनों का था। इस तालाब में बारहों महीने पानी भरा रहता था। लेकिन पास में बह रहे देउनियाँ नदी के कटान से इस तालाब को खतरा हो गया था।

पृथ्वीनगर ग्राम विकास समिति के वार्ड नंबर पाँच स्थित इस जगह को लोग महाभारत से जोड़ते हैं। मत्स्य देश के राजा विराट के साले कीचक ने जब द्रौपदी पर बूरी नजर डाली तो भीमसेन ने इसी स्थान पर कीचक का वध कर डाला। इसी किंवदन्ती को आधार मान हर साल माघ महीने में स्वस्थानी पूर्णिमा के दिन यहाँ पर मेला लगता है।

जिले के सदरमुकाम भद्रपुर से करीब दश किलोमीटर दक्षिण में देउनियाँ नदी के किनार पर फैले दस बिघे क्षेत्रफल में फैले इस गढ़ के पश्चिमी छोर से जब खुदाई शुरू की गई थी तब छह फूट चौड़े दीवार के दो कोनें मिले थे। उसी दीवार से तीन मिटर उत्तर की तरफ ढाई फूट चौड़ा दूसरा दीवार मिल है जिसके पास खपरैल के कुछ टुकड़े भी मिले हैं। इसी से पुरातत्वविदों नें किले के भीतर किसी घर का अवशेष होने का अनुमान लगया है। ईंटों के टुकड़े, मिट्टी के बर्तन और खपरैल के टुकड़ों ने इस जगह को मध्यकाल में पहुँचा दिया है और गढ़ के वास्तुशास्त्रीय विधान के अनुसार भी यह मध्यकाल का ही लगता है। जो ईंटें मिली हैं, वह दो ईंच मोटे, दस ईंच चौड़े और बीस ईंच लंबे हैं। इसबार की खुदाई यह पता चल सकता है कि यह गढ़ बारह नहीं तो सोलह कोने का बना है।

इस बार दीवार से पूर्व की ओर आठ लेयर, पश्चिम की ओर सात लेयर और साढ़े चार फूट गहरी जमीन खुदाई की गई थी। इस खुदाई से मिली जानकारी के अनुसार इसका इतिहास बारहवीं सदी से पहले की तरफ जा सकता है। इस खुदाई से तकरीबन दो सौ मिटर पूर्व में एक ऊँची जगह है, जहाँपर गाँववालों को एक नग मूँगा मिला था जो किसी मूँगे की माला से टूटकर गिरा लगता था। इसके साथ ही अगेट्स के दो दाने भी मिले थे। इन चीजों का मतलब है यह गढ़ सिंधु घाटी की सभ्यता से कहीँ जुड़ा हुआ था। लेकिन उस ऊँचे स्थान पर खुदाई नहीं हो पाई है क्योंकि उस जमीन के स्वामी जयबहादुर थापा हैं। यदि इस जगह की खुदाई की गई और गाँववालों के कहे अनुसार ही चीजें मिली तो यहाँ पाँच हजार वर्ष पहले की मानवसभ्यता के पक्ष में प्रमाण मिल जाएँगे। ऐसा हुआ तो महाभारत काल काफी नजदीक हो नजदीक हो जाएगा। यहाँ हड्डियों के अवशेष भी मिले हैं जिससे आस जगी है। धार्मिक आधारों को नजरअंदाज कर भी दिया जाए तो इस जगह की ऐतिहासिकता प्राचीन हो सकती है। इस जगह मिली ईंटें भी बाहरवीं सदी के सिमरौनगढ़ और ईसापूर्व छठवीं सदी की लुम्बिनी की ईंटों सें समानताएँ रखती हैं, इससे भी इस जगह की ऐतिहासिकता प्रमाणित हो जाएगी।

पुरातत्वविद् आचार्य ने कहा कि जो चीजें मिली हैं उनका परीक्षण किए बगैर वक़्त का ऐलान नहीं किया जा सकता। अभी तो खुदाई शुरू हुई है, और भी चीजें मिलती जाएँगी और परीक्षण भी होता जाएगा। खुदाई खत्म होने के बाद जब परीक्षण भी समाप्त हो जाएगा तब ही कुछ बताया जा सकेगा। चीजों के बारे में उन्होंने पूरा ब्यौरा तो नहीं दिया लेकिन बर्तनों के टुकड़े, खपरैल के टुकड़े, कुछ हड्डियाँ मिलने की जानकारी मिली। इस साल की खुदाई खत्म कर दूसरे साल किए जाने पर स्थिति और स्पष्ट होती जाएगी।

'झापावासी चाहते हैं कि कीचकवध असली ऐतिहासिक जगह हो।'

उस हप्ते राजधानी काठमांडू से प्रकाशित होनेवाले हर दैनिक और साप्ताहिक अखबारों ने कीचकवध के बारे में समाचार प्रकाशित किया था। चिंतामणि दाहाल के उस फिचर लेख को पढ़ने के बाद मैंने उन्हें कहा था - "मैं भी कीचकवध की खुदाई देखना चाहता था, पर पता ही नहीं चला।'

वे बोले थे- 'इसबार तो हो नहीं सका। अगली बार खुदाई हुई तो देख लीजिएगा। और नयी चीजें भी मिल सकती हैं।'

मैंने कहा - 'यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। इसके ऊपर तो एक किताब लिखी जा सकती है न, चिंतामणि भैया !'

'क्यों नहीं, यह तो बहुत अच्छी बात है, पर अभी बहुत सी बातों का पता नहीं चला है।'

पिछले वर्ष खुदाई न देख पाने का पछतावा तो था ही, सो इस साल खुदाई की जानकारी जब 'विवेचना' से मिली तो मुझे अजीब सा रोमांच हो आया। एक ही बार मन में अनेक विचार आए।'

मैंने जल्दी से 520662 नंबर डायल किया। बहुत देर तक रिंग जाने के बाद भी ऊधर से फोन नहीं ऊठा। चूँकी दोनों भाई कॉलेज के लेक्चरॉर हैं, घर में नहीं होंगे इस वक़्त। खैर दिन में फिर संपर्क करेंगे सोचकर रिसीवर क्रैडिल पर रख दिया।

ऑफिस जाते वक़्त जीविका ईंटरप्राइजेज के सामने लोकराज ढकाल जी से मुलाकात हुई। पिछले वर्ष उन्होंने कीचकवध के बारे में 'गोरखापत्र' राष्ट्रिय दैनिक में समाचार लिखा था। मैंने उन्हें समाचार की बात कही तो उन्होंने कहा - 'कल से ही नेपाल टेलिविजन के भीम नेंबांग और लक्ष्मी लुईंटेल खुदाई फिल्मा रहे हैं।'

मैनें कहा - 'इस बार मुझे भी साथ ले चलिएगा।'

दोपहरको ऑफिस में चिंतामणि भाई ने फोन किया- 'सुब फोन किए थे ?'

'हाँ, किया था।'

'क्यों ?'

'आज सुबह 'विवेचना' पर समाचार पढ़कर मालूम पड़ा कि खुदाई शुरू हो चूकी है। पिछले साल तो मैं छूट गया, इसबार छूटना नहीं चाहूँगा।'

फोन से ही कुछ दिनों बाद जाने की बात तय हुई।

हरदिन खुदाई के समाचार छपते रहते थे। किसी दिन मोहनकाजी के नाम पर तो किसी दिन डिकमान विरही के नामपर। कभी गोविंदचंद्र क्षत्री लिखते थे तो कभी कोई और। सिर्फ मैं ही कीचकवध के बारे में लिख नहीं पा रहा था। पहले भी ऐसा ही हुआ था। भूटानी शरणार्थीओं के बारे में दोस्त पेज के ऊपर पेज लिखते जा रहे थे लेकिन मैं कुछ नहीं लिख पाया था। शुरुवाती दिनों में शरणार्थीओं के बारे में सबसे ज्यादा काम माधव विद्रोही ने किया था। वह कुछेक बार तो भूटान भी हो आए थे। बाद में मुझे कहानियाँ, निबंध और उपन्यास लिखकर ही संतुष्ट होना पड़ा था। इसबार कीचकवध के बारे में भी मैं पीछे पड़ गया था।

एक तो नौकरी, फुरसत नहीं मिलती उसके ऊपर यातायात का कोई भरोसेमंद साधन नहीं। इसलिए लोकराज जी और चिंतामणि जी की शरण लेनी पड़ती है। उनकी मोटरसाइकिलें थीं सो जब भी चाहा जाया और लौटा जा सकता था। वैसे तो मोटरसाइकिलें दीपक ढकाल और कृष्ण बराल के पास भी थीं, लेकिन उनसे वक़्त नहीं मिल पाता था। फिर ऐसी बातों को वे महत्व भी न देते थे।

ऑफिस व्यस्तता अधिक थी। केंद्रीय ऑफिस से सुपवाजरों की टोली आई थी। सभी अपने अपने विभाग में अपनी काबिलियत दिखाने में मशग़ूल थे। मुझे भी बनावटी व्यस्तता दिखानी पड़ रही थी। ऐसे में अचानक फोन की घंटी बज ऊठी। उधर लोकराज बराल थे।

'कृष्ण भाई, मैं रेडक्रॉस भवन, भद्रपुर से बोल रहा हूँ। सभी साथी कीचकवध जाने की तैयारी में लगे हैं। बात चली है कि आज की खुदाई में एक रहस्यमय चीज निकल आई है। रामनाथ बाँस्कोटा, कृष्ण दाहाल, चिंतामणि जी, राजबाबु शंकर, राजेश ढुंगाना यहाँ तैयार बैठे हैं। उधर से भी लक्ष्मण ढकाल, लीला बराल और तीर्थ सिग्देल आ रहे हैं। माधव विद्रोही और डिकमान विरही सबेरे ही बस से पहुँच गए हैं। सभी ने अपने लिए मोटरसाइकिल की व्यवस्था की है। मैंने कृष्ण हुमागाईं से कह दिया है, आप उनके साथ आइए, हम लोग अब चल रहे हैं।'

लोकराज बराल फोन से सारा व्योरा दे गए। मुझे कुछ कहना नहीं पड़ा।

सब साथी चल चुके थे। जैसे भी हो मुझे भी जाना था। ऑफिस में काम की जल्दी और व्यस्तता थी। मित्र राम बस्नेत को अपने विभाग की चाबी सौंपकर मैं ऑफिस से निकल पड़ा। कृष्ण हुमागाईं प्रेस युनियन की ऑफिस में फैक्स भेजने में व्यस्त थे। हम तुरंत चल पड़े।

हम पहुँचने से बहुत पहले सभी मित्र खुदाई की जगह पहुँच गए थे। हजारों लोगों की भीड़ थी। सौ-दौसौ मोटरसाकिलें इधर उधर पार्क की गईं थीं। पुलिस का एक जत्था सुरक्षार्थ खड़ा था। फोटोग्राफर और भिडियोग्राफर अपने काम में व्यस्त थे। दूर से चिंतामणि जी हात हिलाते हुए बोले - 'चिंता हो रही थी आ पाएँगे या नहीं। लोकराज जी को जिम्मेदारी दी थी। पिछले साल आप कितने बेचैन थे।'

मैंने हँसकर खुसी जताई।

मैंने हुमागाईं से मिलकर खुदाई स्थल की एकबार परिक्रमा की। खुदाई का काम चल रहा था। बहुत जतन के साथ, जैसे दाड़ी बनाते हैं, मिट्टी को कुरेदा जा रहा था ताकि कोई गहरी चोट न लगे और जो चीजें मिलने वाली हैं वो सही सलामत हों। जो भी चीजें मिली थीं उसे कोई हाथ नहीं लगा सकता था, छू नहीं सकता था। खुदाई टोली के प्रमुख उद्धव आचार्य हर चीज को गंभीरता के साथ अध्ययन करते हुए, व्यवस्थित कर रहे थे।

मुझे लगा हम पुराने युग की तरफ जा रहे हैं। जो चीजें मिल रही थीं उनसे जुड़ी सामाजिक व्यवस्था और जीवन की कल्पना करते हुए मैं आनंदित हो रहा था। कभी लगता उस वक़्त की सुंदरियों, रुपसियों की आत्माएँ यहीं कहीं भटक रही होंगी। उनके गीत, नृत्य के चाल उनकी चूँडियों की आवाजें यहीं कहीं वायुमंडल में सुव्यवस्थि तैर रही होंगी। उस वक़्त के वीर योद्धाओं, युवाओं, वृद्धों और बालकों द्वारा स्पर्श की गई यह जमीन कितनी ऐतिहासिक है। जब कोई मूँगे की माला मिल जाती तो लोग तदअनुरूप माला धारण करने वाली किसी सुंदरी की छाती और स्तन का अंदाजा करते। जब मिट्टी के बर्तन मिलते तो  पाकशाला की बातें होतीं। लेकिन मुझे पूरे समाज की कल्पना छू रही थी, मैं पाँच हजार साल पहले का समाज और सामाजिक स्थिति का अंदाजा कर रहा था।

पुरातात्विक वस्तुओं के पास जाने से एक असहज वियोगी भावना भी घर कर जाती है। जैसे - महाबली, तपस्वी और समृद्ध सभ्यताएँ भी मिट जाती हैं। सभी मटियामेट हो जाती हैं। ऐसा इतिहास बन जाता है जिसका नामोनिशान न हो। टूटी बर्तनें, दीवारों की ईंटें, गहनों के अवशेष के अलावा कुछ बाकी नहीं रहता। जिन्होंने उनका इस्तेमाल किया उनका कहीं भी नामोनिशान नहीं रहता। कितने महारथी होंगे, कितने धनी होंगे, गरीबी और पीड़ा की कथाएँ होंगी, अहम् और आत्मगौरव की गाथाएँ होंगी, सत्ता प्राप्ति की लिप्साएँ होंगी। मैं सोच रहा हूँ, युवाओं और युवतियों का प्रेम और समर्पण, यौन और प्रसुति की अनुभूतियों। इस वक़्त की सांसारिक दृष्टि विगत को देख रही थी।

उस वक़्त का समाज क्या उतना व्यवस्थित और श्रृंगारयुक्त होगा जैसा कि आज के सिरियल्स में दिखाया जाता है ? कितना नजदीक था वह जमाना आज के जमाने से ? मैं सोच रहा था जीवन की जरूरतें और मानवीय संचेतना तो होगी ही। इस विकसित युग से कैसे तुलना किया जा सकता है ?

एक हैरानी की बात यह भी थी की जो भी चीजें मिल रही थीं, वह मिट्टी से खराब न होनेवली चीजें थीं, जिसके बारे में सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता था। वास्तविक सूचना दे सकनेवाली ऐसी कोई चीज नहीं मिली थी। जो कुछ मिला था उससे कुछ  पता नहीं चलता था।

लोग झुंड बनाकर बतिया रहे थे। एक किस्म का मेला लगा हुआ था। जलेबी और मुड़ी उस जगह की पहचान बन गई थीं। वहाँ जितने भी नई दूकाने खोली गई थीं उनमें जलेबी और मुड़ी मिलती थीं। कई लोग तो पकौड़ों में रम गए थे। झुंड के झुंड लोग अपने विचार प्रसारित कर रहे थे। कोई कहता, यह तो कंस का दरबार ही है, कोई और कहता नहीं यह तो किसी राजवंसी राजा का दुर्ग है। किसी को यह महाभारतकालिन दरबार का अंग लग रहा था तो कोई विरोध भी कर रहा था। मैं घूमघूमकर लोगों के विचार सुन रहा था।

अंदाजा जो भी हो, सभी के मन में एक कुतूहल व्याप्त था। सभी के चेहरे प्रशन्न थे। कोई इस स्थान की जानकारी पहले रखने का दावा कर रहा था तो कोई रात में आवाजें सुनने की बातें कर रहा था। भयानक स्वप्न देखनेवाले भी थे, खुद कीचक को देखनेवाले भी थे। जो भी हो, माहौल अच्छा था। पत्रकार मित्र इधर उधर बिखर कर अपना काम कर रहे थे। भीम नेंबांग और लक्ष्मी लुइटेल दत्तचित्त हो कर कैमरा इधर से उधर, उधर से इधर कर रहे थे। ज्यादातर पत्रकार स्थानीय लोगों से घिरे हुए थे। अपना नाम अखबार में देखने की लालसा में लोग जो जी में आया वही कह रहे थे।

खुदाई की जगह से कुछ दूरी पर दुर्गा मंदिर के अहाते में औरतें और बच्चे बैठे थे। मंदिर का द्वार खुला था और आनेजाने वाले लोग दो-एक फूल चढ़ाकर प्रणाम करते नजर आते थे। पैसे चढ़ानेवालों की तादाद भी बढ़ गई थी। विशेष त्यौहार के अलावा सूनसान रहनेवाले इस मंदिर में अचानक भीड़ बड़ गई थी। लगता था इतने दिनों तक पूजापाठ न करने से लोगों को पछतावा हो रहा है।

मंदिर के अहाते के एक कोने में एक साधू बैठा हुआ था। उसके पुराने मैले कपड़े और झोले पास ही पड़े थे। लगता था काफी उमर हो गई है। बाल पूरे के पूरे सफेद हो गए थे। ऊँचा कद, गठीला बदन, चेहरे में झुर्रियों के बावजूद एक अजीब ओज दिख रहा था। दाँत भी मजबूत लगते थे। पूरे बदन पर राख मली हुई थी। लगता था महीनों से नहीं नहाया है। ललाट के पास एक पुराने घाव का दाग रह गया था। बारबार वह हात हिलाकर चेहरे के आसपास नाचती मख्खियों को भगाता था।

कोई साधू से हिन्दी में कुछ पूछता वह हौले से मुसकरा देता था। साधू की दृष्टि और हँसी रहस्यमयी और अर्थपूर्ण लगती थी। जो भी हो, उस घाव के दाग के अलावा उसका व्यक्तित्व आकर्षक था। लोगों की भीड़ में वह भी सकुचाकर बैठा हुआ था।

उस साधू को वहाँ आए आठ-दस दिन हो गए थे। वैसे तो साधू जहाँ भी आतेजाते रहते हैं, क्योंकि उनका कोई घर-ठिकाना तो नहीं होता। उनसे परिचय करने का भी कोई मतलब नहीं होता। सारे संसार को त्याग कर वैरागी जीवन जीनेवालों का परिचय नहीं होता। वैसे साधू कभी परिचय ढूँढ़ते।

मैंने उस साधूको पाससे देखा। साधू मुझे रहस्यपूर्ण लगते हैं। कभीकभार मैं उनकी उस मनस्थिति की कल्पना करता हूँ जिससे वे खुद विरत हो कर वैरागी का भेष धारण करते हैं। आदमी कैसे उस कठोर परिस्थिति की कल्पना कर सकता है ? खुदको इतना तोड़ कैसे सकता है ? मुझे तो लगता है कि यह एक किस्म की आत्महत्या है। तमन्नाएँ, परिवार, समाज, जायदाद, सुख आदि त्यागकर बिलकुल दूसरे ही संसार में लीन हो जाना कम साहसिक काम नहीं है। जिंदगीभर का परिचय इस तरह मिटा देना आसान नहीं है। आदमी संघर्ष ही तो करता है, खुद को बनाने के लिए जिंदगीभर। बहुत देर तक देखता रहा उस साधू को। लगता था यह साधू ऐसा वैसा नहीं है, हाथ में कमंडलु लेकर भीख माँगता फिरनेवाला तो कतई नहीं है।

अचानक एक हलचल हुई और लोग खुदाई की तरफ दौड़ने लगे। ऐसा वक़्त वक़्त पर होता रहता था। खुदाईवालों को कुछ मिल जाता और लोग वहीं जमा हो जाते। ज्यादातर लोग अपने आप में मस्त थे। कोई महाभारत की कथा ऐसे कह रहे थे मानों वे अभी वहीं से आ रहे हैं। कोई भगवान कृष्ण के माफिक गीता का बयान कर रहा था। मुझे लगा समाज आखिर यही तो है।

कीचकवध में मैं पहली बार संवत् 2038 में आया था। मेरे साथ सागर बन थे। सागर बन स्व. हरिबिलास बन के छठवें बेटे थे। उस वक्त वह पृथ्वीनगर में मिल का संचालन किया करते थे। उनकी ससुराल भी पास थी। मैं दो दिन तक यहाँ ठहरा था। उस वक़्त भी लोग किंवदन्तियाँ सुनाया करते थे जो महाभारत से संबंधित थीं। विश्वास तो नहीं होता था पर मैं प्रतिवाद भी नहीं कर सकता था। ईंटों के टुकड़े इधर उधर बिखरे पड़े थे। सागर भाई कहा करते थे – “लोग यहाँ की ईंटें उठाकर ले जाते हैं। बहुतों नें इन ईंटों से घर के चूल्हे बनाए हैं।‘

मैंने कहा था – ‘यहाँ कभी ईंटों का कारखाना रहा होगा।‘

मेरा अविश्वास सागर भाई समझते थे। सागर भाई और मेरे दरमियान उमर का फासला कुछ ज्यादा ही था फिर भी कुछ बातें थीं जो हमें अच्छे दोस्तों के रूप में बनाए रखती थीं। खासकर प्रेत, पुनर्जन्म, योग, ज्योतिष, आदि रहस्यमय विषयों पर हमारी बातें बहुत मिलती थीं। मैं इन बातों में दिलचस्पी तो बहुत रखता था लेकिन मैं पूरा विश्वस्त नहीं हो पाया था।

साधूओं की संगत के कारण सागर भाई चिलम पीने लग गए थे। दारू तो वह पीते ही थे। गाँजा और दारू का पीना उनकी सेहत के लिए बहुत बुरा था। अंततः वह सिरोसिस से चल बसे। उनकी मृत्यु मेरे लिए दुःखदायी घटना रही। उनके बच्चे बेसहारा बन गए थे।

पता नहीं मैं कहाँ से सागर भाई को याद कर बैठा। मन यों ही भावुक हो चला था। ऐसे में फिर लोगों की भीड़ खुदाई स्थल की तरफ उमड़ पड़ी। इसबार भीड़ बड़ी थी। लेखनाथ भट्टराई और भूमिलाल राजवंशी कितनी देर से मुझे ढूँढ़ रहे थे, वहीं आ पहुँचे।

'तू हुमागाईँ के साथ चला आया और मैं उधर ही छूट गया। इस जगह को देखा भी नहीं था। किस्मत से भूमिजी से मुलाकात हुई और आ पहुँचा ? बाकी दोस्त कहाँ हैं ?' लेखनाथ बोला।

'चारों ओर बिखरे पड़े हैं। मैं भी यों ही भीड़ में रम रहा हूँ।' मैंने साधू की तरफ इंगित करते हुए कहा - 'काँल्दाई, उस साधू को अच्छी तरह से देख। चेहरे पर कैसी ओज है। अनूठा व्यक्तित्व है इसका।'

लेखनाथ टहलने के बहाने उसके पास गया। कुछ देर तक साधू को देखता रहा और लौटकर कहने लगा - 'हाँ, असल में यह सामान्य साधू नहीं है। लगता है, कोई विशिष्ट अनुसंधाता है।'

'वही तो, मैं बहुत देर से देख रहा हूँ।'

कहीं से लोकराज जी ऐन वक़्त पर टपक पड़े। हँसते हुए कहने लगे - 'हेडमास्टर साहब भी ! कब पहुँचे ?'

'आप सब लोग तो मुझे छोड़कर निकले थे। बड़ी मुश्किल से आया हूँ।'

लोकराज जी ने कहा - 'कहते हैं, कुछ नयाँ मिल गया है, अनूठी चीज है। मैं भीड़ के कारण जा नहीं पाया।'

'क्या मिला है ?'

'कहते हैं लोहे का संदूक मिला है। पूरा नहीं निकला है। खोद रहे हैं।'

'उसे निकालने में घंटों लग जाएँगे। मिट्टी उठानी होगी। यह ध्यान रखना होगा कि संदूक को कोई खरोंच न आए।' मैंने कहा।

लोगों का कुतूहल स्वाभाविक था। अब तक की खुदाई में वैसी कोई खास चीज नहीं मिली थी। कौन से युग का क्या है, कुछ पता नहीं चल पाया था। चूँकी अब संदूक ही मिल गया था, किसी रहस्य का परदाफ़ाश होनेवाला था। संदूक देखते ही ज्यादातर लोगों को यही लगा था कि अवश्य कोई गाड़धन होगा। लोग सोने चाँदी के गहनों और पैसों की बातें कर रहे थे। कुछ लोगों ने तो मन ही मन लार टपकाना शुरू कर दिया था।

खुदाई स्थल पर भीड़ ज्यादा होने के कारण पुलिस लोगों को हटा रही थी। जैसे ही भीड़ कुछ छंट जाती, लोग फिर जमा होना शुरू कर देते थे। अब वहाँ पत्रकारों का जमघट था। हम भी उन्हीं की तरफ लपके। पुलिस हमें रोकना चाह रही थी लेकिन हमारे परिचय-पत्र काम कर गए। जब हम पहुँचे तो संदूक तकरीबन आधा दिख रहा था।

चार लोगों ने आहिस्ता से संदूक को गड्ढे से बाहर निकाला और किनारे पर रख दिया। अचानक चारों ओर से तालियाँ बजने लगीं। लोग फिर जुटने लगे थे पर पुलिस अब सख़्त हो गई थी।

संदूक मोटे लोहे की पत्तियों से बना था। भारी भी था और उसमें ताला नहीं लगा था। संदूक को ऊपर लाया गया। पुरातत्वविद् उद्धव आचार्य जी ने घोषणा की कि आज की खुदाई का काम रोक दिया जाए। लोगों की हैरानी बड़ रही थी। खुदाई के सदस्यों में भी लंका विजयी हनुमान जी के चेहरे जैसी ज्योति फैल गई। लोग चुप थे। रहस्यसे बँधे हुए थे और तसवीर में जैसे बिना हिले खड़े थे।

खुदाई के सदस्यों के बीच बातचीत होने लगी। चिंतामणि भाई ने उद्धवजी को कहा - 'इस संदूक के भीतर क्या है, एक बार देखना तो पड़ेगा। इतने लोग यहाँ जमा हैं। इसे खोला नहीं गया तो शंकाएँ, उपशंकाएँ जन्म ले सकती हैं। आपलोगों पर आरोप भी मड़ा जा सकता है। बहुत से लोगों का मानना है कि यह गाड़धन है, जिसमें सोने-चाँदी के गहनों के अलावा स्वर्ण मुद्राएँ हो सकती हैं। इसलिए शंका निवारण हेतु ही सही इसे एकबार खोलना जरूरी है।'

उद्धवजी ने कहा - 'ठीक है, ऐसा है तो जिला प्रशासन, पुलिस, जनप्रतिनिधि और आप पत्रकार लोगों को गवाह रखकर मैं इसका ढक्कन खोलूँगा।'

सभी ने हामी भरी। जिला प्रशासन प्रतिनिधि के लिए चन्द्गगड़ी फोन किया गया। पता चला प्रमुख जिला अधिकारी टीकाराम अर्याल खुद एस.एस.पी शिवकुमार खड्का के साथ आ रहे हैं। बड़ी बेचैनी और कुतूहल के साथ उनका इंतजार आरंभ हुआ। पुरातत्व विभाग के लोग, कागज तैयार करने में लग गए। इंतजार ज्यादादेर तक करना नहीं पड़ा। प्रमुख जिला अधिकारी और एस.एस.पी को लोगों ने करतल ध्वनि के साथ स्वागत किया। वातावरण खुशियाली से भरपूर और विजयोन्मुख हो चला था।

वैसे देखने पर टीकाराम अर्याल प्रमुख जिला अधिकारी जैसे दिखते नहीं थे। अध्यात्मिक अध्ययन और ज्ञान से भरपूर उनका व्यक्तित्व किसी पंडित के माफिक लगता था। जिले में होनेवाले धार्मिक मेलों, गोष्ठियों और कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति होती थी और वह गीताज्ञान की व्याख्या करते थे। लोगों को प्रमुख जिला अधिकारी से कोई डर नहीं था, वे बेधड़क उनसे बातें करते थे। लोग उन्हें अनूठे प्रशासक के रूप में पहचानते थे। चूँकि वे कविताएँ भी लिखते थे उनका साहित्यिक व्यक्तित्व भी ऊँचा था।

एस.एस.पी शिवकुमार खड्का भी झापावासियों के बीच अनूठे बर्दीधारी माने जाते थे। बहुत सरल और मिलनसार थे। अच्छे चालढाल के साथ मधुर बोली से उन्होंने सबका मन मोह लिया था। शायद यही उनकी लोकप्रियता का कारण था। अपने जुनियरों को 'आप' कहकर पुकारने वाला बर्दीधारी इनके अलावा कोई नहीं था, ऐसा लोगों का मानना था। इनकी जीवन कहानी दुःखद थी। इन्होंने बावर्ची से पुलिस में नौकरी शुरू किया था और अब एस.एस.पी बन गए थे।

झापा जिले के प्रशासन में प्रमुख जिला अधिकारी और एस.एस.पी की जोड़ी खूब जमी थी। प्रायशः हर कार्यक्रम में ये साथसाथ दिखाई देते थे और यही लोगों को अच्छा लगता था।

इन दोनों के साथ पुराने स्थानीय प्रतिनिधियों और पत्रकारों कागज पर हस्ताक्षर किए। पत्रकारों के तरफ से हाम्रो पत्रकार समूह, झापा के पूर्व सभापति रामनाथ बाँस्कोटा और वर्तमान सभापति माधव विद्रोही ने हस्ताक्षर किए।

संदूक आहिस्ता आहिस्ता खोला गया। जंग लगे संदूक को खोलने में अच्छी ताकत लगानी पड़ी। ढक्कन जमीन पर रखने पर सभी की आँखे संदूक के भीतर देखने लगीं। लोग अधीर हो रहे थे। उद्धवजी ने आहिस्ता से ऊपरी काली परत को हटाया। काली परत कपड़े की बनी हुई थी जो अब धूल में तब्दील हो गई थी। काली परत के नीचे कुछ कडी चीज थी।

उन्होंने मेहनत से धीरे धीरे उस चीज को बाहर निकाला। उस चीज को लपेटकर जो कपड़ा रखा गया था वह तो धूल हो चुका था। उस चीज को देखने से लगता की वह किसी धातु के पत्तियों से बनी है। उनमें कुछ लिखा था। लोग खुश हो रहे थे, आखिर कुछ तो जानकारी मिली।

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क्रमशः अगले अंक में..........

 

नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी

 

 

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