अंक 36वर्ष 10अप्रैल 2017

संस्कृत ढूँढ़ते हुए हाइडलबर्ग

 

- जीवा लामीछाने

 

बचपन में ही सुना था - जर्मनी में संस्कृत की पढाई होती है, संस्कृत के विश्वविद्यालय हैं। मैं आश्चर्य से भर जाता और सोचता - "किस भाषा में संस्कृत की पढ़ाई होती होगी !" संस्कृत भाषा का उद्गम स्थल भारत वर्ष में भी संस्कृत लोप होने के कगार पर है और क्योंकर जर्मन लोग संस्कृत जरूरी मानने लगे। जर्मन नागरिक फ्रेडरिख मैक्समुलर को किस बात ने प्रेरित किया कि उन्होंने पूर्वीय दर्शन का गहन अध्ययन कर ऋग्वेद, हितोपदेश और उपनिषद् जैसे हमारे पूर्वीय ग्रंथों को जर्मन भाषा में रूपांतर किया ? इसी कुतूहल ने मुझे उत्सुक बनाए रखा था।

मानव सभ्यता की सबसे प्राचीन और निरन्तर प्रयोग होने वाली भाषा संस्कृत में चुंबकीय तरंगें हैं, ऐसा लगता है मुझे। पिताजी जब घर में पूजा में पंडितों, बटुकों को लय में संस्कृत पाठ कराते थे, मैं मंत्रमुग्ध होकर सुनता रहता था। अब भी लय के साथ पढ़े जाने वाले संस्कृत के श्लोक और ऋचाएँ  मुझे किसी सुंदर संगीत की भाँति मोहित करते हैं। वैदिक ऋचाओं का अर्थ मैं समझता तो नहीं था लेकिन जब पंडित पढ़ते थे तो उनके मुँह से निकली ध्वनि ही दिल पिघलाने के लिए काफी होती थी।

संस्कृत भाषा के लिए इतना आकर्षण कैसे उत्पन्न हुआ, मुझे पता नहीं। शायद हमारे पुरखे संस्कृत के विद्वान रहे होंगे। जब हम स्कुल में पढ़ते थे तो छठवीं और सातवीं में ही संस्कृत की पढ़ाई होती थी। उसी स्वल्प अध्ययन से ही मैंने संस्कृत के तकरीबन सौ श्लोक याद कर लिए थे जो अब भी अच्छी तरह याद हैं। थोड़ा और पढ़ पाता तो इस भाषा की समृद्धि से कितना कुछ सीख पाता, यही सोचकर मैं अब भी पछताता रहता हूँ।

वैसे तो जब से रसिया में पढ़ने गया, तब से जर्मनी आना जाना लगा रहता था। बहुत ज्यादा व्यस्तता के चलते अपनी इच्छाओँ को अंजाम नहीं दे पाया था। इसी जिज्ञासा ने मुझे संस्कृत भाषा की पढ़ाई और अनुसंधान होनेवाले जर्मनी के विश्वविद्यालयों को इन्टरनेट में खोज निकालने को मजबूर किया। इसी क्रम में कुछ महीने पहले हाइडलवर्ग युनिवर्सिटी, दक्षिण एसियाई अध्ययन संस्थान के इंडोलोजी विभाग के प्रमुख प्रोफेसर डॉ. आक्सेल मिखाएल्स संपर्क में आए। पहले ईमेल में ही मेरी इच्छा का स्वागत करते हुए उन्होंने विश्वविद्यालय भ्रमण करने का न्योता दिया। लेकिन कभी उनकी व्यस्तता तो कभी मेरे वक़्त न निकाल पाने की वजह से कुछ महीने तक हम सिर्फ इमेल में ही बातें करते रहे।

अन्तत: 2015 जुलाई 20 को मुझे हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय भ्रमण करने का अवसर मिल गया। फ्रैंकफर्ट से सिर्फ सौ किलोमिटर की दूरी में स्थित उस सुंदर नगरी में मै पहले भी अनेक बार पहुँच चुका था। लेकिन पहलेवाले भ्रमण पुरातात्विक दरबार और शहर में ही सिमटकर रह गए थे।

नियत समय पर जब हम प्रोफेसर मिखाएल्स के कार्यकक्ष में पहुँचे तो वे हमारा ही रास्ता देख रहे मिले। इस विदेशी भूमिपर एक विदेशी नागरिक स्पष्ट नेपाली भाषा में अभिवादन कर रहा था और हम सुखद आश्चर्य से रोमांचित हो गए। संस्कृत भाषा के विद्वान प्रोफेसर मिखाएल्स संस्कृत में भी स्पष्ट संवाद कर सकते थे, लेकिन हम ही उतना साहस नहीं दिखा पाए। इससे थोड़ी लज्जा की अनुभूति भी हुई।

हाइडलबर्ग की स्थापना तकरीबन सात सौ साल पहले हुई थी और यह जर्मनी का सबसे पुराना विश्वविद्यालय भी है। विश्वविद्यालय के सभी विभागों में तकरीबन तीस हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं और उनमें से दस नेपाली भी हैं। पैरियोडिक टेबल के निर्माता रूसी वैज्ञानिक दिमित्री मेन्डलिभ, पूर्व जर्मन चान्सलर हेल्मुट कोल, आदि जैसे सैकडों वैज्ञानिक, कवि, डॉक्टर, और लेखक इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थी रह चुके हैं। विश्वविद्यालय के परिसर में फैली भौतिक संरचनाएँ  देखने से लगता है, यह सिर्फ़ विश्वविद्यालय न होकर एक पूरा शैक्षिक और विद्वत् शहर है।

प्रोफेसर मिखाएल्स ने एक रोचक प्रसंग सुनाया जो दक्षिण एसियाई अध्ययन संस्थान बनते वक़्त हुआ था। विश्वविद्यालय ने यह निर्णय किया कि एक ऐसी संस्था खोली जाए जिसका उद्देश्य भारतीय उपमहाद्वीप संबधी अध्ययन करना हो। उसका नाम भारत अध्ययन संस्था रखने की चर्चा चली थी जिसका पता पंडित नेहरू को लग गया था। चूँकी संस्थान में नेपाल, पाकिस्तान, और श्रीलङ्का के विषय में भी पढ़ाई होनी थी, तो उसका नाम दक्षिण एसियाई अध्ययन संस्थान रखने की सलाह पंडित नेहरू ने दी। और उनकी सलाह को माना गया। नेहरू राष्ट्रभक्त नेता थे, इसमें कोई शंका नहीं, लेकिन वे दूसरों के इतिहास को भी सम्मान करने वाले नेता थे। इसलिए उनके प्रति श्रद्धाभाव जग गया।

संस्थान में मानवशास्त्र, इतिहास, राजनीति, विज्ञान, भूगोल आदि में सात विभागों में अध्ययन-अनुसंधान होता है, और इसकी शाखाएँ, काठमांडू, दिल्ली, इस्लामाबाद और कोलंबो में हैं। संस्थान के प्रवेशद्वार पर भारतीय दूतावास से प्राप्त अर्धकद की रवींद्रनाथ टैगोर की प्रतिमा रखी गई है।

इतना ही नहीं, इतनी बड़ी संरचना भी कम पड़ गई है और हमें जानकारी मिली कि अगले दो वर्षों में एकेडेमी ऑफ साइंस के आर्थिक सहयोग से योरोप का सबसे बड़ा ओरिएन्टल स्टडिज सेंटर बनने जा रहा है।

बनारस विश्वविद्यालय से इन्डोलोजी पढ़े प्रोफेसर मिखाएल्स ने बताया कि वे दो वर्ष काठमांडू में रहकर काम कर चुके हैं। वे 1970 से 2001 तक जर्मन मैनुस्क्रिप्ट परियोजना में जुड़े थे। उन तीन दशकों के समय में उन्होंने एक लाख असी हजार प्राचीन दस्तावेजों के माइक्रोफिल्म बनाए और नेपाल के राष्ट्रीय अभिलेखालय में जमा करा दिया। उन सभी दस्तावेजों के एक सेट नेगेटिव वर्लिन के राजकीय पुस्तकालय में भी सुरक्षित रखा हुआ है। हिंदू धर्म, वैदिक परंपरा आदि विषय में दर्जनों पुस्तकों के लेखक और संपादक ने हमारे धरोहर संरक्षण में जो योगदान दिया था, उसे जानकर हम बहुत प्रभावित हुए।

प्रोफेसर मिखाएल्स बता रहे थे कि कुछ वर्षों से संस्कृत के विद्यार्थीयों की संख्या लगातार बड़ रही है। ज्यादा चाप होने से ग्रीष्मकालिन समय में विशेष कक्षाएँ भी चलाई जाती हैं। जर्मन नागरिकों के अलावा, अमरिका, विलायत, पूर्वी योरोप के देशों से भी लोग संस्कृत अध्ययन के लिए आवेदन देते हैं। उन्होंने बताया कि कुछ बरस पहले दो ट्युनिशियों ने भी संस्कृत की पढ़ाई की ।

हाइडलवर्ग के अलावा जर्मनी में चौदह और विश्वविद्यालयों में संस्कृत की पढ़ाई होती है। विलायत में भी चार विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाया जाता है। ऐसी जानकारी उन्होंने हमें दी।

संस्थान से संबद्ध कुछ लोग हमारे पुराने दस्तावेज व्यवस्थित करने के अभियान में लगे थे। माणिक बज्राचार्य, क्रिस्टोफ जोटर, सिमोन जुबेलिक और निर्मला सन्यासी की टोली नेपाल के राष्ट्रीय अभिलेखालय के पुरातात्विक महत्त्व के दस्तावेजों का "डेटाबेस" तैयार करने में लगे हुए थे। 1768 से 1950 तक के एक लाख पचास हजार दस्तावेजों का अभिलेख तैयार हो चुका था। हमने देखा कि राजा राजेंद्र ने चौतारियों व भारदारोको जो पंजापत्र लिखा था, उसका नमूना और डेटाबेस तैयार हो चुका था जो हमने प्रोजेक्टर में देखा। लगा अब हमारा इतिहास भी आने वाली पीढ़ियों के सिए सुरक्षित रहेगा।

संस्थान के पुस्तकालय में नेपाली, हिंदी और संस्कृतके दुर्लभ किताबों का भंडार है। प्रोफेसर मिखाएल्स के निर्देशन में नेपाल के मुलुकी ऐन में पीएचडी कर रहे राजन खतिवडा बता रहे थे कि उन्हें जो मुलुकी ऐन की किताब नेपाल में भी न मिली थी, वह इस पुस्तकालय में मिल गई थी।

जर्मनी के विश्वविद्यालय अब संसार भर के लिए संस्कृत भाषा के विद्वान् उत्पादन करने के केंद्र बन गए हैं। हार्वर्ड, ऑक्सफोर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में भी जर्मनी के विश्वविद्यालयों से पढ़कर निकले विद्वानों का बोलबाला है।

"किस बात ने आपको संस्कृत पढ़ने के लिए अभिप्रेरित किया ?" मेरे साथी कुमार पंत नें मिखाएल्स से पूछा। जवाब में उन्होंने कहा कि पूर्वीय दर्शन और भाषा विज्ञान की मद्दत से हिन्दू धर्म के साथ साथ बौद्ध धर्म को अच्छी तरह समझने के लिए संस्कृत का अध्ययन अपरिहार्य है। हमारी बातों को अंत करते हुए उन्होंने सुझाव दिया - "संसार की सबसे पुरानी माने जानीवाली सभ्यता, दर्शन और विज्ञान के संरक्षण करने और संभालने के लिए आपलोगों को खुद जुट जाना होगा।"

आदिम युग के लोग ध्वनि संकेतों से संवाद करते थे। फिर चित्रलिपि का विकास हुआ। ऐसा माना जाता है कि उसके बाद तकरीबन पाँच हजार साल पहले संस्कृत भाषा का जन्म हुआ। विश्व के दो सबसे बड़े धर्म हिन्दू और बौद्ध के अधिकांश ग्रंथ संस्कृत भाषा में ही लिखे गए हैं। ये ग्रंथ साहित्य, अध्यात्म, दर्शन और ज्ञानविज्ञान के भंडार हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में बोलीजाने वाली अधिकांश लोपोन्मुख भाषाओं की जननी संस्कृत मानी जाती है। इतना ही नहीं, कम्बोडिया, थाइलैंड, इन्डोनेसिया तक संस्कृत भाषा की जड़ें फैली हुई हैं। भाषाविदों के अनुसार अनेक योरोपीय भाषाओं कि उत्पत्ति भी संस्कृत से ही हुई है। संस्कृत सिर्फ भाषा न होकर एक परंपरा, संस्कृति, और विचार भी है। इस भाषा के प्रति आदरभाव प्रकट करते हुए भारत में दो साल पहले हुए लोकसभा चुनाव के बाद सुषमा स्वराज, डॉ. हर्षवर्द्धन, उमा भारती आदि सांसदों ने संस्कृत में ही शपथ ग्रहण किया था।

नेपाल में कुछ सालों से संस्कृत को प्राचीन और मियाद गुजरी हुई भाषा मानकर हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है और वहिष्कार का अभियान भी चलाया जा रहा है। हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय भ्रमण करने के बाद, मुझे लगने लगा है कि अपने सनातन परंपरा, संस्कृति और भाषा विकास के विरूद्ध नियोजित ढंग से धावा बोला जा रहा है। बहुत कम बोली जाने वाली भाषा होकर भी संस्कृत लैटिन जैसी मृत भाषा नहीं है। चाहे हम संस्कृत के मर्म को न समझ पाने के कारण, इसे मृत भाषा कहते रहें, लेकिन प्रोफेसर मिखाएल्स जैसे हजारों विद्वान् और हाइडलबर्ग जैसे सैकड़ों विश्वविद्यालय इसे और इसके मर्म को मरने नहीं देंगे।

भाषा के प्रति पूर्वाग्रह रखने से हमें बहुत बड़े ज्ञान के भंडार से हाथ धोना पड़ेगा। शायद भविष्य में ऐसे दिन भी आएं, जब हमारे बच्चों को ही अपनी भाषा सिखने के लिए योरोप की तरफ जाना पड़े। हमारी सभ्यता और हमारा धरोहर पतंजलिकृत योग पश्चिमी राष्ट्रों में योगा बन जाने बादे ही हमारी आँखें खुली हैं। हर लोपोन्मुख चीजों को संरक्षण देने के लिए अनेक अभियान चलानेवाले हमलोग, इतनी सुंदर और समृद्ध भाषा की मृत्यु की कामना क्यों कर रहे हैं ? इन सबका भीतरी रहस्य हम समझ नहीं पा रहे हैं।

ऐसी ही भावनाओं से विचलित और असहाय हो रहे मेरे मन को संस्कृत के उन्नयन में जो कार्य प्रोफेसर मिखाएल्स कर रहे थे, उसने थोड़ा सा ही सही दिलासा दिया। हमारी भावी संतति के लिए अपनी भाषा की जननी संस्कृत, और उसमे अन्तर्निहित ज्ञान, दर्शन और संस्कार का अंश दिखाने के लिए जो कार्य प्रोफेसर मिखाएल्स कर रहे थे, उसके लिए उन्हें हृदय से नमन करते हुए हम हाइडलबर्ग से विदा हुए।

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नेपाली से अनुवाद : कुमुद अधिकारी

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