अंक 35वर्ष 10जनवरी 2017

पुरस्कार

-डॉ. राजेन्द्र विमल

बुद्धकालिन जीवन शैली को आधार बनाकर जो उपन्यास लिख रहा था वह आधा ही पूरा कर पाया हूँ। मोबाइल की आवाज है कि रुकती ही नहीं है।  मोबाइल बज रहा है, बजा जा रहा है, बज्ने दो। अब तो कोफ़्त होने लगी है। इस वर्ष का "विजय श्री" मुझे दिए जाने की घोषणा हुई है, बधाईयाँ बरस रहीं हैं। कितना हँसूं, किस किस को धन्यवाद कहूँ !

वैसे तो बधाईयाँ न आएँ तो भी अच्छा नहीं लगता। गुस्सा आता है - इतने महान पुरस्कार को शुभेच्छुक महत्त्व नहीं देते, मुर्दे कहीं के ! मुझे लगता है, संसारभर आज मेरी ही चर्चा होनी है। कोई छोटा-मोटा पुरस्कार तो नहीं है यह। साहित्यका सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार ! दो लाख का पुरस्कार !!

हर बधाई में मुझे एक बोतलका नशा चढ़ जाता है। आज सात दिन हो गए, यह नशा उतरा नहीं है। फिर कोई आ जाता है - तारिफों के पुल बाँधता है, और एक गिलास पिला देता है। मैं फिर मतवाला हो जाता हूँ। मेरा पूरा संसार पुरस्कार की खुशी में मतवाला हो चुका है।

मैं एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार का साधारण इन्सान हूँ। जिन्दगीभर कभी एक साथ दो लाख हाथ नहीं लगे। पोस्ट ऑफिस के क्लर्क की हैसियत ही क्या होती है !

जिस दिन से मैंने कविता में तुकबंदी शुरू की थी, मुझे सपने में भी नहीं लगा था की यह खेल मुझे इतना महान बना देगा। मेरे लिए तो यह एक आनंददायक खेल ही था। शब्दों के चयन में, अनुप्रास मिलाने में,लोगों को सुनाने में वाहवाही मिलने में, पत्रिकाओं में छप जाने में मुझे जो आनंद मिलता था वह वर्णन से परे था। वाहवाही से ज्यादा एक कवि के लिए क्या पुरस्कार हो सकता है, कुछ भी नहीं। मैं इसी पुरस्कार को पाकर मस्त रहता। इस समय के  विजयश्री  पुरस्कार ने तो मुझे पागल ही बना दिया था। तेंजिंग के सगरमाथा के शिखर पर पहुँचने की अनुभूति हो रही है। नेपाल में कोई पद पाकर इतनी खुशी नहीं मिलती, जितनी खुशी इस पुरस्कार से मुझे मिली है।

अब घर में तैयारियाँ शुरू हो गयीँ। पुरस्कार ग्रहण करने जो जाना था। पत्नी बोली - "पुराने सलवार, कुर्ते और टोपी में भी कोई जाता है, ऐसे महान पुरस्कार लेने ! अपनी इज्जत ना सही, पुरस्कार की इज्जत तो रखनी पड़ेगी न ! आखिर दो लाख तो आ ही जाएँगे। दूकानदार भी अब उधार देने से कतराएँगे नहीं। कान्तिपुर पढ़कर पुरस्कार की खबर तो पा ही चुके होंगे। अब एक नया सूट, नई कमिज, नया टाई, और नए जुते-मोजे खरीद ही लीजिए।"

पहले तो मुझे पत्नी की बात नहीं भायी। कोट लगाकर भी मैं जुजुमान, न लगाऊँ तो भी मैं जुजुमान। गांधी जी कहते हैं - सादा जीवन, उच्च विचार । सूट ने नहीं, मुझे मेरी प्रतिभा ने महान बनाया है। लेकिन बीवी की दिनरात की चिखचिख ने मुझे उसकी बात मानने पर मजबूर ही कर दिया। ठीक ही तो है, ऐसा सोचकर मैंने रेमंड के कपड़े खरीदकर सूट सिलवाया, कमिज सिलवाया, टाई खरीदा और नए जुते-मोजे खरीदे। खर्चा लगा - बीस हजार। समारोह में ऐसे ठाटबाट कर जाने की शान की क्या बात ! गजब का आत्मविश्वास जाग ऊठा। भाषण में अपनेआप गहन बातें निकलती गईं। बातें गहन थीं या श्रोताओं को मेरे सूट-टाई की वजह से गहन लगीं, पता नहीं। जो भी हो, हर हर्फ के बाद हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँजता रहा। दूसरे दिन नेपाल के सभी अखबार अनेक मुद्राओं की मेरी तसवीरों से भरी पड़े थें।

टीभी चैनल के प्रतिनिधियों ने मुझसे सवाल दागे - "पुरस्कार में इतनी बड़ी रकम मिली है, उसका उपयोग कैसे करेंगे ?" दानवीर कर्ण की गंभीर मुस्कान ओढ़ते हुए मैंने कहा - "नेपाली वाङ्मय के संवर्द्धन में लगाऊँगा", मन में तो यही संकल्प पहले ही दृड़ हो चुका था। मैं दुष्ट नहीं हूँ। दानशीलता, त्याग, धैर्य, साधना, मानवीयता जैसे गुण मैं संस्कार में ही लेकर आया हूँ। जिन्दगी जीतनी ही अभावग्रस्त क्यों न हो, मुझमें इतनी क्षुद्रता नहीं थी कि मैं उस रकम को व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धी में लगाऊँ।

अग्रजों के आशीर्वाद और समकालीन और कनिष्ठों की शुभकामनाओं की वर्षा से मेरी आत्मा सराबोर गई थी। मैं ईश्वर और संसार के प्रति ऋणी हो गया था। मैं अलौकिक आनंदातिरेक से चंचल गति, उत्फुल्ल दिल और उदात्त मन लेकर घर लौट गया। सच में, उस दिन धरती के किसी भी प्राणी के प्रति मेंरे मन मे शिकायत नहीं थी। मैं पूर्णरूप से कुंठामुक्त था। मन में सकारात्मक भाव और दिव्य तृप्ति की अमृतधारा लगातार बह रही थी।

घर के दालान में पहुँच ही पाया था की दोस्त झुंड में पधारने लगे। वे छोटी सी पार्टी आयोजन करने की मांग कर रहे थे। आननफानन में नारायण जी को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई। पार्क भिलेज में भव्य आयोजन किया गया। तकरीबन सौ साहित्यकार आमंत्रित थे। जब एक लाख का बिल हाथ लगा तो मेरे दिल में भूस्खलन हो गया, लेकिन मैं मुस्कुराते रहने को बाध्य था।

मैं काठमांडू से जनकपुर हवाइजहाज में आया था। पत्नी तुनक गई थी - इतना बड़ा पुरस्कार पाने पर भी उसे कुछ खरीदकर न ला देनेपर। बड़ा बेटा दाँत का डाक्टर तो हो गया था लेकिन उसका अपना क्लिनिक नहीं था। एक डैंटल चेयर खरीदकर देने और थोड़े पैसे देने की सोच रहा था। छोटा बेटा बोला तो कुछ नहीं था लेकिन उसका भी तो हक बनता ही था। दशहरा शुरू हो गया था। भाइ, बहुएँ, भतिजे-भतिजियाँ, नाती-नातिन सब अपनी आश लगाए बैठे थे। भगवान् और भगवती की कृपा से ही इतना बड़ा पुरस्कार मिला था, इसलिए पिताजी और माँ इस दशहरे में सत्यनारायण की पूजा करवाने और दश दिन तक रूद्री और चंडी की पाठ लगवाने की सोच रहे थे।

पुरस्कार मिलने के दो महिने बाद मैंने हिसाब लगाया -

क) मयलपोस, सलवार और टोपी खरीद -१,५००/-

ख) टैक्सी का किराया -२,००/-

ग) साहित्यकार पार्टी - १,००,०००/-

घ) पत्नीका नेकलेस - ५०,०००/-

ङ) बड़े बेटेका क्लिनिक - १,००,०००/-

च) दशहरे में दोनों बेटों के लिए सूट - १६,०००/-

छ) दो बहुओं और नाती-नातिन के कपड़े - ३,५००/-

ज) सत्यनारायण पूजा + रूद्रीपाठ - २०,०००/-

झ) भतिजे-भतिजियाँ और भाइ-बहुको उपहार - २५,०००/-

ञ) भूमिगत पार्टी के लिए गोपनीय चंदा - १,००,०००/-

कुल जमा ४,१६,२००/-

मुझे दो लाख सोलह हजार दो सौ रूपए का घाटा लग चुका था। फिर नेपाली वाङ्मय के श्रीवृद्धि के लिए दो लाख का कोष स्थापना करने का मेरा सपना। मेरी नैतिकता मेरा दिल आठों प्रहर कुतर कुतरकर खा रही था। मैं अशांत हो चला था। अगर यह पुरस्कार न मिलता तो मेरा उपन्यास पूरा हो गया होता।

टेलिफोन की घण्टी फिर बज उठी - "हेलो, हेलो !"

"जी !"

"इट इज केट स्पिकिंग फ्रॉम लंदन..."

"हुजूर को बधाई हो। आपके आधे उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद मैं कर चूकी हूँ। आलोचक कहते हैं - यह उपन्यास आधा नहीं है, बल्कि अपने आपमें पूर्ण उपन्यास है। मैं इसे कॉमनवेल्थ अवार्ड के लिए प्रस्ताव कर रही हूँ। यह अवार्ड पाँच हजार पांउड का है। नेपाली.....!"

"इस प्रेम के लिए तुम्हें धन्यवाद केट। मैं हृदय से ही आभारी हूँ। लेकिन, कृपया इस उपन्यासको पुरस्कार के लिए प्रस्तावित मत करना। पाठकों की वाहवाही से बढ़ा कोई पुरस्कार नहीं है। पुरस्कार पाने से नशा चढ़ता है। साधना खण्डित हो जाती है। रचनाधर्मिता मर जाती है। मुझे लगने लगा है, अब लिखने का कोई अर्थ नहीं। मुझे जितना मिलना था मिल चुका। मैं यह उपन्यास पूरा करूँगा। उसका मूल्यांकन मेरे जीवित रहते नहीं, मर जाने के बाद करना। अभी पाठकों को शाबाश कहने दो, वही है सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार। पुरस्कार और सम्मान के लिए खर्च की जाने वाली ऊर्जा और समय मैं साहित्य साधना में लगाना चाहता हूँ।"

मैं बके जा रहा था और उधर से फोन कटने की आवाज आई.."टुट....टुट"।

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नेपाली से अनुवाद : कुमुद अधिकारी  

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