अंक 34वर्ष 9जनवरी 2016

एकाकी

 -परशु प्रधान

 

            मैं नये बानेश्वर के बस-स्टाप पर खड़ी हूँ। यह अब कहाँ पहले का बानेश्वर रहा। यह तो पहले का असन-भोटाहिटी लगता है। जिधर देखो लोगों की भीड़ गाड़ियों की धक्का - मुक्की। सभी जल्दी में हैं - न जाने कहाँ जाते हैं और क्या करते हैं ? बाह्रबिसे, धुलिखेल और बनेपा के लिए बसें आती हैं, थोड़ी देर के लिए रूकती हैं व आगे बढ़ जाती हैं। मुझे कहीं जाने की या कुछ करने की जल्दी नहीं है। फ़िल्म देखने की चाह भी नहीं है। कभी भी इस तरह का इंतजार नहीं किया था मैंने जो आज ट्राली बस के लिए कर रही हूँ। बिजली से चलने वाली यह बस शायद बिजली नहीं होने से आ नहीं सकी।  एक घंटे से तो ज्यादा ही हो गए, दूसरी बसें तो आ-जा रही हैं। लेकिन मुझे जो बस चाहिए या आवश्यक है वह नहीं आ रही। मैं हैरान हूँ इतनी अधैर्य तो मैं नहीं थी। फिर ख़ुद से परेशान हूँ क्यों ख़ुद ऐसे इंतजारवाले दिन को न्यौता दिया। कितनी विवश हूँ मैं ! ऐसे ही पड़ी रहती हूँ। समय के साथ ऐसे सरकना, ख़ुद को चलाना मुझे शोभा नहीं देता अभी। पर न जाने क्यों मैं विवश हूँ - बाध्य हूँ।

      नये बानेश्वर के बस-स्टाप पर वैसे खड़ी हूँ जैसे एक पीपल का पेड़ नंगी पहाड़ के चोटी पर खड़ा हो। जैसे एक काले बादल का टुकड़ा प्रकाश की प्रतीक्षा में हो। हाँ उसका नाम प्रकाश ही है। मैं निश्चय करती हूँ - मैं जिसका इंतजार कर रही हूँ वह प्रकाश ही है या आकाश? नहीं प्रकाश है, प्रकाश ही है, मैं इसी निश्चय को बारबार दुहराती हूँ।

      'नमस्ते भाभी कहाँ जा रही हैं?' कोई हँसते हुए पूछ रहा है।

       'नहीं सुन रही हैं क्या? इस भरी दोपहरी में कहाँ जा रही हैं?' वह दुबारा पूछता है। मैं तो उस आदमी से बोलना भी नहीं चाहती। कितना गंदा है वह आदमी! मुझे तो खासा चालू लगता है यह अधेड़ । मेरे भीतर कहीं घृणा उपजती है उसके लिए, पर मैं उसे प्रकट नहीं होने देती और कहती हूँ - 'दोस्त का इंतजार कर रही हूँ।'

      'कैसा दोस्त?' वह बेशर्मी से पूछता है। मैं जानती हूँ वह क्या जानना चाहता है। इसलिए मैं ऐसे ही कह देती हूँ   - 'आप जैसा दोस्त। एक बजे का समय दिया था पर दो बज गए। मेरा तो सारा दिन ख़राब हो गया।'

      वह चाय के लिए बोलता है। मैं मना कर देती हूँ। वह फिर फ़िल्म के लिए आग्रह करता है, ठंडा पीने के लिए कहता है, मैं फिर मना कर देती हूँ। मेरे हठ को सहज बनाकर वह कहता है – 'आज शायद आपने मुझसे महत्त्वपूर्ण दोस्त मिलने वाला है। नहीं तो आप ऐसी न थीं!'

      न ट्राली बस आती है न ही प्रकाश आता है! कितना बोरियत भरा होता है इंतजार, लंबा इंतजार! लंबे इंतजार की निरर्थकता उसी को मालूम होती है जिसने यह भोगा है।

      इंतजार के साथ मैं 'कल' याद करती हूँ। अचानक शहर की तरफ़ निकल गई थी। शहर, यानिकी भोटाहिटी, असन, नये सड़क और रत्‍नपार्क पहुँच गई थी। लोगों की भीड़ में कहीं खो गई थी। काम कुछ खास नहीं था। खास ख़रीदारी भी कुछ नहीं थी। अकेले डेरे पर रहते हुए कभी थकावट सी महसूस होती है। मस्तिष्क थक जाता है और मन जाड़े की नदी की तरह बन जाता है। फिर निकल गई थी शहर की तरफ़, जहाँ अपने आपको खोया जा सकता है, बहुत सी अनजानी आँखों के बीच, निर्दोष और पवित्र आँखों के बीच। रानीपोखरी के फ्लाइओवर ब्रिज में बैठकर मानवाकृतियों के समुद्र में बहुत देर तक डूबी रही। पैसे नहीं थे। थोड़े से मूँगफली के दानों से भूख को बदला। पर 'आप यहाँ क्यों हैं?' कहकर पूछनेवाला कोई नहीं था। न ही 'क्यों अकेली बैठी हैं, चलिए चाय पीते हैं।' कहनेवाला था। मुझे लगा - मेरे जैसे यंत्रणा और पीड़ा की आँखों को लेकर संत्रासपूर्ण जीवन जी रही औरतें जहाँ कहीं हैं। मेची महाकालीभर जहाँ कहीं हैं, पूरे देश भर हैं। देर हो रही थी फिर भी मैंने रत्‍नपार्क के भीतर की तरफ़ देखा। वहाँ न फूल थे, न झरने थे। वहाँ की सारी खुशियाँ मानो समाप्त हो गई थीं। यह पार्क, बेकार बैठे युवकों और युवतियों के लिए व़क्त गुजारने का स्थान बन गया था। पिछले कुछ वर्षों से बहुत से विषयों और घटनाओं से चर्चित होने के कारण मैं थोड़ा सचेत हो गई थी। क्यों ऐसी बातें मेरे अंदर प्रवेश कर गईं, मुझे मालूम नहीं। सही मायने में मैं नेपाल के साधारण से गाँव की सरल औरत थी 'सरला'। पर कुछ वर्षों से ख़ुद को और दूसरों को सोच समझ पाने की काबिलियत मैंने पा ली है। आकाश के सुनेपन को आत्मसात करके उसके कुछ अर्थ समझा सकती हूँ। लेकिन ये मैं नहीं कर सकती - मजबूत दीवार से टक्कर मारना, वेगवान नदी की धारा में बह जाना और किसी बड़े पेड़ से चिपक जाना।

      अब तक ट्राली बस नहीं आई है। क्या पता आज दिनभर न भी आए। कहीं से आवाज़ आती है - 'ट्राली बस तो यहाँ बिन रूके चली गई। बहुत भीड़ थी बस में।' उस आवाज़ को निश्चित करने के लिए मैं किसी से पूछती हूँ 'ट्राली बस बिन रूके चली गई क्या?' वो आदमी 'हाँ' या 'ना' कुछ नहीं कहता। अपने पग जल्दी बढ़ाता हुआ वह आगे निकल जाता है। बस बिन रूके चली गई ! अब क्या होगा। मैं घबरा  जाती हूँ।

      मुझको चकमा देकर चली जानेवाली इसी बस में हमारी मुलाकात अचानक कल हुई थी। मेरे बगलवाले सिट में बैठे हुए उस आदमी ने ही बातों का सिलसिला शुरू किया - 'कहाँ तक जा रही हैं?'

      'नए बानेश्वर तक' मैंने सहज रूप में जवाब दिया था।

      बात को आगे बढ़ाते हुए उसने कहा -'लगता है कहीं हमारी मुलाकात हुई है! कहीं नौकर थीं आप?'

      'वर्षों पहले आयल निगम में थी। नौकरी से अलग हुए भी एक युग बीत गया।' मैंने अपना इतिहास उसके सामने रख दिया फिर उसे गौर से देखने लगी - नीचे से ऊपर तक, पैर से सिर तक। उसके सिर में असली ढाका की टोपी थी। वह अच्छे कपड़ों में था और लगता था सभ्रांत व्यक्ति है। मैंने उसके चेहरे को देखकर उसके उम्र का अंदाज़ा लगाया। शायद पचास से ऊपर हो। पर उम्र के बारे में मैं हमेशा ही कमजोर रही हूँ। फिर उसने नम्र स्वर में कहा -'मैं भी बानेश्वर तक ही जा रहा हूँ। सूरज डूबनेवाला है-घबराइएगा नहीं। हाँ आपने आयल निगम कहा मैं भी कभी आयल निगम में था। ज़माना बीत गया।' उसने थोड़ी देर रूककर फिर कहा -'हाँ अवश्य ही मैंने आपको वहीं देखा होगा। उस समय की बातें तो सपने जैसे लगते हैं।'

      'नया बानेश्वर.........नया बानेश्वर...' बस के कंडक्टर ने आवाज़ लगायी तो मैं होशियार हो उतरने के लिए तैयार होने लगी। वह गंभीर स्वर में कहने लगा - 'आपसे थोड़ी देर और बातें करने को दिल कर रहा है। अभी यहाँ न उतर कर क्यों न थोड़ा आगे तक चले जाएं?'

      मैं तो उतरने के लिए उठ चुकी थी। बस में बहुत भीड़ थी। 'आपको जल्दी में तो नहीं है न?' वह फिर अनुरोध कर चुका था और फिर मैं अपने ही सीट पर धम्म से बैठ गई। नए बानेश्वर से बस आगे निकल चुकी थी। बस में चढ़नेवालों और उतरनेवालों की भीड़ बनी हुई थी और बहुत शोर था। पर हमारे भीतर की मनस्थिति व वातावरण बिलकुल अलग थे। वह पहले से गंभीर दिखता था और मुझ जैसी चुलबुली औरत भी गंभीर बन गई थी।

      बस आगे जा रही थी। हम दोनो ही गंभीर व चुप थे। मैं सोच रही थी नौकरी के वर्षों में प्रकाश कौन से विभाग में था और मुझे कैसे पहचानता था। शायद वह भी ऐसा ही कुछ सोच रहा होगा चूँकि वह सीरियस दिख रहा था। हम बहुत आगे बढ़ चुके थे पर मालूम नहीं था कौन-सा स्टाप है। बस क़रीब -क़रीब खाली हो गई थी।

      'कहाँ उतर रहे हैं हम?...........मुझे देर हो रही है।' मैंने मौन तोड़ा।

      'आज डिनर मेरी तरफ़ से। कहिए कौन से रेस्तरां में चलें ?' यह सवाल मेरे लिए अप्रत्याशित था। मैं तो घबरा गई और सहज होने की कोशिश करने लगी - 'मैं ख़ुद डेरे पर बनाकर खा लूँगी, आप क्यों तकलीफ़ करते हैं।'

      'इसका मतलब आप डेरे में अकेली रहती हैं और ख़ुद खाना बनाकर खाती हैं?' क्या जवाब दूँ इस सवाल का मैं कुछ देर सोचती रही और फिर मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया।

      'मैं भी डेरे में अकेले ही रहता हूँ....क्यों न मेरे यहाँ ही डिनर लिया जाए?' उसने आसानी से कह दिया। इस सवाल का जवाब भी मैं दे नहीं पायी। मैंने सिर्फ़ ना में सिर हिला दिया। उसने शायद मेरी स्थिति भाँप ली। मैं उसको समझने की कोशिश कर रही थी और शायद वह मुझे।

      हम ट्राली बस के आखिरी स्टाप सूर्यविनायक में आ पहुँचे थे। बस का कंडक्टर ऊँची आवाज़ में हमें उतरने के लिए चेतावनी दे रहा था - 'सूर्यविनायक आ गया। सबलोग उतर जाएं।'

      उसने भी कंडक्टर की आवाज़ सुनी होगी। पर वह जल्दी नहीं कर रहा था। उसने फिर गंभीर आवाज़ में कहा - 'हम नहीं उतर रहे।' बस फिर लौट चली उसी रास्ते। हम कुछ सहज हो चुके थे। उसने फिर कहा -'सरला! ज़िंदगी कितनी अच्छी है! तुमसे मुलाकात के बाद मैं फिर पुराने समय में लौट गया हूँ। उन रोमांटिक पलों में बदल गया हूँ।'

      प्रकाश भावुक हो चला था और 'आप' से 'तुम' पर चला आया था। फिर मुझे लगा उसमें ह्विस्की का प्रभाव कुछ बाकी है। ह्विस्की के उस अजीब से गंध से मैं वर्षों से रूबरू हूँ। अब बस खाली - सी हो गई थी। कौन जाए इस जाड़े में शहर की तरफ़? उस खाली वीराने में सिर्फ़ प्रकाश की आवाज़ आ रही थी - 'हमें नए बानेश्वर में उतरना है, किसी अच्छी सी रेस्तरां में जाना है और आज नया साल का जश्‍न मनाना है - शताब्दी का ही नया साल - इस युग का नया साल।'

      मेरी आँखों के सामने अनगिनत चेहरे आते रहे और गुम होते रहे। उन चेहरों पर मैं अपनापन पाती - कहीं कुछ एक -सा है, कुछ जुड़ा है और कुछ बढ़ गया है। मैं सोच नहीं पा रही थी - कौन सा चेहरा सच्चा है और कौन सा झूठा? कौन - सा यथार्थ है और कौन - सा भ्रम !

      अब जब मैं बस स्टाप पर इंतजार कर रही हूँ तो भी यकीन नहीं कर पा रही कौन -सा यथार्थ है और कौन - सा भ्रम । कभी लगता है - यह सब भ्रम है, मिथ्या है और कभी यह सब सच है, सत्य है और अविनाशी   है। एक बस आकर बिन रूके ही चली गई और दूसरी का नामोनिशान नहीं है। मैं उसी बेंच में वैसे ही पड़ी हूँ। गाड़ियों की वही अफ़रातफ़री और लोगों की भीड़! चलनेवालों में वही त्रास, वही असहजता, वही भय समाया हुआ दिखता है।

      मैं नए बानेश्वर में उतरकर उसी प्रकाश के पीछे हो ली थी मानो मैं उसकी बीवी हूँ। फिर रेस्तरां में एक दो पैग चढ़ाने के बाद प्रकाश अपने आप में नहीं था। 'मेरी घरवाली जर्मनी में है, वहाँ की बड़ी सी रेस्तरां में काम करती है, लड़का भी वहीं चला गया। वे दोनों मुझे मार्क भेजते हैं, डॉलर भेजते हैं और मैं कुछ काम नहीं करता। मैं क्यों काम करूँ ? मेरे लिए करने को क्या है?'

      'सरला! आज कितने वर्षों बाद तुम अचानक मिली हो। कितना भाग्यशाली हूँ मैं- मेरी पहली प्रेमिका मिल गई। मेरे हृदय के किसी कोने में तुम थी सरला! तुम्हारे प्रेम का फूल अभी तक मुरझाया नहीं है। मैं तुम्हें लम्बा कीस देना चाहता हूँ।'

      रात गहरी होती जा रही थी। मैं डेरे पर देर से पहुचुँगी - यही चिंता मुझे सता रही थी। उसने मुझे भी दो - चार बोतल खाली करने को विवश कर दिया। प्रकाश अपनी गति पर था - 'मेरा घर यहीं है नए बानेश्वर में। मैं तुम्हें वहीं रखूँगा। हुआ ही क्या है आखिर! मेरी सारी जायदाद तुम्हारे नाम कर दूँगा। अब फिर एक बार डिप कीस।'

      मुझे लगा वह रात ऐसे ही काटना चाहता है। रेस्तरां बन्द होने को था और वह चिल्लाए जा रहा था - 'अपनी पसंद की दिलरूबा मिलने पर भी देर होती है कहीं? रेस्तरां बंद करते है। मैं बंद कर दूँगा इस रेस्तरां को, खत्म कर दूँगा।'

      'मैं अब चलती हूँ - डेरे में कोई नहीं है।' मैंने धीरे से कहा।

      'फिर तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। अपनी पुरानी गर्लफ्रेंड के साथ चलूँगा। वाह! कितनी खुशनुमा रात होगी! कितने मीठे सपने होंगे! मीठी-मीठी बातें होंगी।' प्रकाश फिर दूसरी कीस के लिए तैयार हो रहा था।

      'नहीं तो मेरे यहाँ चल। अपने घर चल। क्या नहीं है इस ज़िंदगी में- जहाँ कहीं उजाला। कहाँ है अंधेरा? अकेले रहने पर अंधेरा होता है, अकेले सोने पर अंधेरा होता है।' वह चिल्ला रहा था। वह होश में था और बहोश भी था। मैं वहाँ से बच निकली दूसरे दिन बस स्टाप पर मिलने की बात कहकर।

      डेरे में रातभर सोचती रही - इतने विशाल संसार में हम सभी अकेले हैं, एकाकी हैं। जैसे तैसे मौत की काली परछाई का इंतजार कर रहे हैं। रात को ही मैंने तय कर लिया - प्रकाश ने आयल निगम में कभी काम नहीं किया, उसकी बातें मनगढ़न्त हैं, भ्रमपूर्ण हैं, वह सिर्फ़ बहानेबाजी कर रहा है।

      प्रकाश नहीं आया। किसी बस में भी नहीं आया। कोई ट्राली बस भी उसे नए बानेश्वर तक ला नहीं सकी। वहाँ से मैं अपने डेरे की तरफ़ बढ़ गई फटाफट। पर न जाने क्यों दिल भारी हो गया। पत्थर जैसा ही हो गया। पहले कभी ऐसा हुआ हो, मालूम नहीं है। फिर लगा - हम सब दुनिया की भीड़ में अकेले हैं, अपनेपन और संबंध के खोखले भ्रम पाले हुए हैं। एक बस में यात्रा कर रहे यात्रियों जैसे हो गए हैं।

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मूल नेपाली से रूपांतरः कुमुद अधिकारी

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