अंक 33वर्ष 7अक्तूबर 2014

पिछले अंक से जारी

राधा- (पाँचवी किस्त)

- कृष्ण धरावासी

वनभोज-कार्यक्रम के बाद मुझे पूरा विश्वास हो चला था कि कृष्ण सिर्फ मेरे हैं और वे सिर्फ मुझसे अत्याधिक प्रेम करते हैं। कृष्ण के व्यवहार से मुझे लगने लगा था कि उनके मन की संपूर्ण भावनाएँ छलकने लगी हैं। उनके प्रति मेरे शक का निवारण हो गया था। अचम्भा लग रहा था, अब कृष्ण के साथ चाहे जो कोई चिपके, उनके आसपास जितनी भीड़ जमा हो जाए या जो कोई एकांत में उनके साथ चला जाए, मुझे कुछ नहीं होनेवाला था। कृष्ण प्रति मेरे इसी विश्वास से सारी शंकाएँ समाप्त हो गईं थीं। जब मुझे विश्वास हो चला कि कृष्ण औरों के साथ सिर्फ अभिनय कर रहे हैं और उनके प्रति उनमें कोई दिलचस्पी नहीं है, तो मुझमें भी उनसे मिलने की लालसा कम होती गई। लगता था ऐसे ही मन भरा जा रहा है और खुसियों मे डूब रहा है। लगता था कृष्ण मुझमें भरे पड़े हैं और बस गए हैं। मैंने उस दिन कृष्ण को पूर्ण रूपसे प्राप्त किया था। एकांत में मैंने उनकी छाती में शिर टिकाकर मन की सारी बातें कह डाली थीं और उन्होंने मेरे हर सवाल का जवाब इमानदारी से दिया था। उस दिन तक तो मैं यह सोचती थी कि कहीं यह मेरा एक तरफा प्रेम तो नहीं है और लगता था वे मेरे प्रति उदासीन हैं।

मैं कृष्ण से मिलने के लिए उतनी आतुर तो नहीं थी पर मुझे घर में बंदी बना लिया गया था। वनभोज-कार्यक्रम के नकारात्मक प्रचार से मुझे जितना नुकसान हुआ था उतना तो किसी को भी नहीं हुआ था। पिताजी नें माताजी कहलवाकर मुझे घर से बाहर निकलने से मनाही कर दी थी। मैं चूँकी बड़ी हो गई थी और शादी करने योग्य हो गई थी, मुझे ऐसे आवारा छोड़ा तो नहीं जा सकता था, और कृष्ण के संगत में तो कतई नहीं। मातापिता की नजर में मुझसे कम उम्रवाले और मेरे पिताजी से कम हैसियतवाले नन्द रायके पुत्र के साथ प्रेम वा विवाह होना किसी भी हालत में संभव नहीं था। इस बंधन से मुझे बहुत बुरा लगा। संगियों के संग मिलकर मजा करने से मैं वंचित हो गई थी। अपनी चहेती संगियों को दरबार में बुलाकर खेलने और मजे लूटने में छूट थी लेकिन घर से बाहर निकलना वर्जित था।

जो भी हो, बंदी होने की भावना बड़ी पीड़ादायक थी। पहले तो महिनों दरबार से न निकलने पर भी कुछ नहीं होता था, लेकिन जब घर से निकलने को प्रतिबंध लग गया, हर पल यही बात  दिलको कुरेदती रहती है। अब क्या सच में कृष्ण से मुलाकात नहीं होगी ? ऐसी कल्पना मात्र से आँखों के सामनें डरावना काला भविष्य दिखाइ पड़ता। मेरी सखियाँ मेरी नजरबंदी की खबर कृष्ण के पास ले जातीं और उनका आश्वासन मेरे पास ले आतीं। हमारे बीच खबर ले आने और ले जानेके लिए दूतों कमी न होने से प्रत्यक्ष मुलाकात न होने पर भी भावनाओं का लेना देना तो होता ही था। मेरी इस नजरबंदी से मुझे एक फायदा तो हुआ ही - वह यह कि कृष्ण मुझे कितना चाहते थे, यह नापा जा सका।

एक दिन ऐसे ही मेरा मन उदास हो रहा था। कृष्ण से इस लंबी दूरी ने मुझमें एक शक पैदा कर दिया था कि कहीँ उनसे मैं मिल पाऊँगी भी या नहीं ? दरबार से बाहर भागकर जानेका साहस मुझमें नहीं था। फिर मैं पिताजी की इज्जत और प्रतिष्ठा को उस तरह कुचल भी नहीं सकती थी। कभी लगता था, मेरा उस रात्रिभोज में जाना बड़ी गलती थी। उस तरह समाज और परिवार की मर्यादा कुचलकर जाना नहीं था। ऐसे नकारात्मक भाव मन में खेल रहे थे। इसलिए बरामदे में बैठकर दूर तक टकटकी लगाए देख रही थी। एक युवती घर के मूलद्वार से चलकर इधर ही आ रही थी। देखने पर लगता था कि मेरी घनिष्ठ सखियों में से कोई चलकर आर रही है। अपनी सखियों में से कोई आता देख मैं खुस हो गई। मुझे लगा कुछ तो मन का बोझ हलका कर पाउँगी।

नजदीक आती गोपिनी के पैरों से घुँगरू आवाज दूर से भी सुनाइ दे रही थी। अँगुलियों में रत्न-जडित अँगूठियाँ शोभा दे रही थीं। हाथ में रत्न-जडित चूड़ियाँ, बाहों में भुजाबंद और गलेमें लटकता मोतियों का हार वक्ष तक लटकता। बाल सूर्यके माफिक दीप्तिमान शिरफूल बालों में शोभा बड़ा रहा था । नाक में मोती जड़ित बुलाकी(नत्थी) झूल रही थी। ऐसे श्रृंगार के साथ मेरे पास आनेवाली तो कोई सहेली नहीं थी। लेकिन उसकी चाल देखने पल लगता कोई पहचानी हुई तो है।

उसे पास आते देख मैं अपना धीरज नहीं रख पाई। मैं उसके स्वागत के लिए उसके पास गई और पहचानने के लिए उसके चेहरे की तरफ देखने लगी। अचम्भा हो रहा था, चेहरा बिलकुल देखा हुआ था, लेकिन मैं याद नहीं कर पा रही थी कौन है। मैं गहरे संकट में फँस गई थी। जितनी कोशिश करने पर भी स्पष्ट न पहचान सकने के कारण मैंने लजाते हुए पूछा - हे सुन्दर सखी, तुम्हे मेरे कक्ष में स्वागत है। कृपया अपना परिचय देकर मेरा अधैर्य शांत करो। तुम जो स्यवम् मेरे पास आई, यही मेरे लिए बहुत बड़े सौभाग्य की बात है। मेरे स्मृति में तुम जैसी सुन्दर युवती का दर्शन याद नहीं आ रहा है। तुम आने का कारण विस्तार से बताओ और यही भी बताओ की मेरी क्षमता के अनुसार तुम्हारे योग्य सेवा(कार्य) क्या हो सकती है ?

मैंने आगन्तुक के सौन्दर्य से वशीभूत होकर अत्यंत भावुकतासे अपनी जिज्ञासा रखी। हुआ ऐसा कि खुद बोलते बोलते मैंने उसे बोलने का मौका ही नहीं दिया। मेरे चुप हो जाने पर और उसके चेहरे पर नजर लगाकर देखते रहने पर वह बोलीं - "हे सखे, नंदनगर गोकुल निवास से उत्तर की तरफ मेरा निवास है। मेरा नाम ‘गोपदेवी’ है। मैंने सुशीला के मुँह से तुम्हारी रूप माधुर्य और गुण माधुर्य की खूब व्याख्याएँ सुनीं। इसलिए इस रूपको देखने की बड़ी आकांक्षा जाग ऊठी तो मैं यहाँ आ गई। यहाँ आकर तुम्हें देखने पर मेरा कुतूहल पूर्ण हुआ है। वास्तव में तुम्हारी सुन्दरता अतुलनीय है। मुझे लग रहा है कि तुम स्वर्ग से इस भूतल में उतरी कोई रूप की रानी हो। तुम्हारी ये पतली और लंबी अँगुलियाँ, छरहरा नाक, बड़ी बड़ी आँखें, गुलाब जैसे नर्म और सुन्दर होंठ, अनार के बीज जैसे मिले हुए दाँत। हे सखी, तुम्हें देखकर मैं धन्य हो गई।"

मेरी प्रशंसा करके अपना जो परिचय उसने दिया उससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हुई। क्षणभर पहले की उद्विग्नता और निराशा अचानक गायब हो गए। फिर से बदन में स्फुर्ति लौट आई। उमंग बड़ गया। मुझे लगा मुझे वास्तविक जीवन बोध हुआ है। मैंने उसे गले से लगा लिया। हम बहुत देर तक गले मिले रहे। उसके बाद अच्छी बातचीत हुई। समय किस कदर सरक गया पता ही नहीं चला। नया संबन्ध होने पर भी वह वर्षों से बिछड़ी सखी से हुई मुलाकात जैसा लग रहा था मुझे। पता नहीं क्यों गोपदेवी से हुई मुलाकात मेरा मुझे खुद से हुई मुलाकात लग रही थी।

गोपदेवी ने कहा - "सखी नंदननगर यहाँ से बहुत दूर है, अभी शाम होनेको आई है, मुझे जाना होगा। मैं कल फिर आऊँगी फिर हम दोनों फिर बतियाएँगी।"

वह जाने लगी तो पता नही क्यों मुझे उससे लंबी जुदाई की कड़वी अनुभूति हुई। मैंने कहा - "प्रिय सखी, तुम कल फिर से जल्दी आना और मुझे इस अकलेपन से दूर करना। मैं तुम्हारी आभारी रहूँगी।

उसके जाने के बाद मुझे फिर अकेलेपन ने आ घेरा। फिर से कृष्ण की याद आने लगी। कृष्ण के प्रति मेरा पूर्ण मन फिर से खाली लगने लगा। उनसे मिलने की चाह बढ़ने लगी। मैं रातभर छटपटाती रही। नींद नहीं आ रही थी। वैसे में सबेरे मेरी झपकी लग गई।

मैं नींद में थी जब मुझे कोई झकझोरकर उठा रहा था। जगाए जानेपर मुझे गुस्सा आया क्योंकि मैं बहुत सुंदर सपना देख रही थी। सपने में मैं कृष्ण के साथ वृन्दावन के भाण्डीर उपवन में थी। कृष्ण की छाती में शिर रख कर बैठी हुई थी। अचानक वहाँ भगवान् ब्रह्मा प्रकट हो गए। मैं जल्दी से कृष्ण से अलग हो गई। मैं शर्म से पानी-पानी हो गई। खुद को एक तरफ संकुचित भाव से खड़ा किया। हम दोनों ने ब्रह्माजी को नमस्कार किया। मैंने देखा उस एकांत में भी ब्रह्मा की उपस्थिति से कृष्ण को संकोच बगैरा कुछ नहीं हुआ था। मैं सोचने लगी थी - "कितने निर्लज्ज हैं कृष्ण। इन्हें जरा भी शर्म नहीं।" मैं वैसे ही थी जब मैंनें ब्रह्मा को अपने पास बुलाने का कारण कृष्ण को पूछते हुए पाया। मैं चौंक गई। तो ब्रह्मा कृष्ण के बुलावे पर पधारे हैं !

मुझे बताए बगैर उस एकांत में ब्रह्मा को बुलाकर कृष्ण ने अच्छा नहीं किया। अब तो हमारी प्रतिष्ठा में एक और कलंक लग गया, मैं और डर गई। रात्रि वनभोज मेरी उपस्थिति के कारण रूठे माता-पिता भी याद आए। उस घटना से डरी हुई मैं, इस एकांत के घटना की भविष्य में होनेवाली चर्चा के कारण और डर गई ।

उधर कृष्ण मेरी ओर देखकर ब्रह्मा से कहने लगे थे - " हे प्रभु ! मैं राधा के बिना जी नहीं सकता। राधा और मेरा प्रेम जन्म-जन्मका है। वह मुझसे उमर में बड़ी भी है। वह ब्रज के राजा वृषभानु की बेटी। हमारे माँबाप हमारी शादी के लिए राजी नहीं है। इसलिए प्रभु मैं निवेदन करता हूँ कि आप हमारी शादी विधिपूर्वक करा दें। और इसे गोपनीय ही रहने दें।"

कृष्ण की बात सुनकर मैं अचम्भित हो गई। उन्होंने मुझे इस बारे में कुछ बताया नहीं था। अचानक हुई शादी की बात से मैं थरथर काँपने लगी। मन में जो है और जैसी बातें होती हैं, वैसा करना आसान तो नहीं होता है। हालाँकि कृष्ण मेरे प्राण प्यारे तो थे लेकिन यह बात मुझे बहुत डरावनी लगी। मैंने कृष्ण को एकांत में घसीटकर कहा - "हे कृष्ण, यह अचानक आप क्या कर रहे हैं ? अगर हमारे माँ-बाप को पता चला तो हमारा क्या हसरत होगा, हमारी शादी कहीं और करदी तो हमारा क्या होगा ? इस तरह हमें छिपकर विवाह नहीं करना चाहिए, सखे। जल्दबाजी न करें, बल्कि माँ-बाबुजी को मनाने का प्रयत्न करें।"

ऐसे में कृष्ण ने कहा - "हे राधे ! तुम क्यों चिंता करती हो, मैं सब बंदोबस्त कर लूँगा। तुम अपने मन से सभी शंकाएँ निकाल फेंको और आओ शादी मे शामिल हो जाओ।"

उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और ब्रह्मा जी के पास ले गए। ब्रह्मा विधिवत् अग्निस्थापन कर विवाह की कार्यविधि आरंभ करने ही वाले थे कि किसी ने मुझे झकझोर कर जगा दिया।

इतना अच्छा सपना टूटने पर भीतर मन में कहीं दुःख भी हुआ। सपने में ही सही, कृष्ण के साथ शादी करने से मुझे आनंद तो मिल रहा था। इससे हमें भावनात्मक ऐक्य मिलता। मैं कृष्ण से उसी सपने की बात कर मजे लेती, लेकिन बात बिगड़ गई थी।

मैंने आँख खोलकर देखा। मेरी सेविका सरला मुझे जगा रही थी। मैं अलसाते हुए उठी और बैठ गई। सरला ने कहा - "देखिए, सूरज नारायण कितना ऊपर आ चुके। अभी पूजापाठ, स्नान-ध्यान करना बाकी है। बाहर आपकी सखी गोपदेवी आ चुकी हैं।"

गोपदेवी का नाम सुनते हीं मेरा मन चंगा हो गया, मैं खुस हो गई। इतनी देर तक सोते रहने पर मन में भीतर कही लज्जा भी हो रही थी। खैर जो भी हो, अब मैं इस नव सखी को सपने के बारे में बता सकती थी और नंदभवन के पड़ोसी से कृष्ण का हालचाल भी पूछ सकती थी। यूँ तो कल उनसे कृष्ण के बारे में कोई चर्चा नहीं हुई लेकिन मुझे लगता है की वह कृष्ण की दूत है या मेरी मनस्थिति अध्ययन करने के लिए गोपनीय रूपसे भेजी गई कोई मुखबिर। ऐसा सोचते हुए मैं प्रातःकार्य में लग गई।

मैंने सरला से कहा - "उन्हें अच्छी तरह से स्वागत कर अतिथि कक्ष में रखो, मैं अभी आई।"

जल्दी से नित्यकर्म निपटाकर अतिथि कक्ष में पहुँचने पर पाया कि वह कमरा ही उजाला करके बैठ हुई है। उन्हें देखते ही मन की पीड़ाएँ सब बिखरे बादलों की भाँति बिखर गईं। मैं खुद से अचंभित हो रही थी, सिर्फ एक ही दिन पुराना तो था हमारा परिचय, फिर भी इतना गहरा प्रभाव। मैं उनके पास जाकर बैठ गई। उनका हाथ अपने हाथ में लेकर अँगुलियाँ सहलाते हुए मैंने कहा - "हे सखी ! मैं तुम्हें रातभर याद करती रही। पता नहीं क्या हुआ, जब से तुम गई, मुझे तुम्हारा वियोग सताने लगा। रातभर अच्छी तरह से सो भी नहीं सकी। सबेरे झपकी लग गई थी, मगर सरला ने तुम आई हो कहकर जगा दिया। अब तुम आ गई हो तो मुझे खुशी का कोई ठिकाना नहीं मिल रहा। मुझे गुम हुई कोई बहुमूल्य चीज हाथ लग गई है, प्यारी सखी।"

मैं लगातार बोल रही थी। गोपदेवी चुपचाप सुन रही थीं। मुझे लगा मेरी बातों ने उन्हें गंभीर बना दिया है। उनके चेहरे पर कल की भाँति चंचलता न होकर धैर्य और गांभीर्य दिखाई दे रहे थे। मुझे लगा कहीं मैंने अशोभनीय और अप्रिय वचन तो नहीं कह दिया ? फिर मैंने पूछा - "हे गोपदेवी ! क्या तुम्हें मेरे वचन अप्रिय लगे ? तुम क्यों ऐसी गंभीर और मौन हो ? ऐसा गांभीर्य तुम्हें नहीं सुहाता। कलवाली तुम आर आजवाली तुम में बहुत ज्यादा फर्क है। कहीं कल तुम्हें यहाँ से देर से लौटने पर माँ-पिताजी ने डाँटा तो नहीं ?"

गोपदेवी ने अपना गांभीर्य कायम रखते हुए कहा - "मैं परसों सुबह दही बेचने के लिए बरसानुगिरिके दर्रे के रास्ते से जा रही थी। मैं जल्दी में इसलिए थी कि मुझे दही बेचने का काम खत्म कर ननिहाल जाना था। इसलिए मैं जल्दी-जल्दी उस रास्ते से जा रही थी। अचानक नंद राय के पुत्र कृष्ण मेरे रास्ते पर आ गए। कृष्ण बहुत ही नटखट, शरारती, दूसरों के दुःख और समस्या नसमझनेवाले, जब चाहो तब दिल्लगी करनेवाले, खराब आदतों वाले हैं। उन्होंने गाँव भर की लड़कियों की चैन छीन ली है। तुम्हें शायद मालूम हो, पिछले महीने शुक्ल त्रयोदशी के दिन रातभर सब लड़कियों को बहला फुसलाकर जमाकर जंगल में रख दिया। दूसरे दिन उस खबर से सारा गाँव आतंकित हो गया। सभी अभिभावक अपनी लड़कियों को कड़ी निगरानी में रख रहे हैं। नंद राय और उनकी पत्नी भी कृष्ण के शरारत से परेशान दिख रहे हैं।"

वह कुछ देर चुप रहीं। फिर एक लंबी सांस खीचकर बोलने लगीं - "गाँव भर यह बात फैल चुकी है कि तुम भी उस वनभोज की रात्रि पूरी रात कृष्ण के साथ थी। तुम जैसी सुशील, शांत, धीरज रखनेवाली राजकुमारी कैसे उस जंगल में उस बदमास के संगत में पहुँच गई ?" वह फिर कुछ देर चुप रहीं।

गोपदेवी के बात से मेरा बदन शिथिल होता गया। मन डर से काँप उठा। कृष्ण के विपक्ष में उठे हर शब्द मेरे दिलमें चूभते गए। फिर भी धैर्य के साथ सुनती गई।

वह बोल रही थी - "गली में निकलकर अचानक उन्होंने मेरा रास्ता रोका। मैं अकेली थी, सहम गई, डर गई। गाँव की लड़कियाँ और दूसरी औरतें भी उनसे डरने लगीं थीं। मैं चल रही थी पर मुझे रूकना पड़ा और मैं असमंजस में पड़ गई। अब क्या करना है सोच भी नहीं पाई थी कि उन्होंने मेरा हाथ फटाक से पकड़ लिया। बाँये हाथ से दही का बर्तन थामे थी शिर में। भय से मेरा बदन काँपने लगा। मैंने कहा - 'हे कृष्ण इस एकांत में सुबह-सुबह क्यों मेरा रास्ता रोक रहे हो ? मैं जल्दी में हूँ। मुझे दही पहुँचाकर लौटना भी है, हटो, मेरा रास्ता छोड़ो।"

उन्होंने कहा - "हे रूपसी, हे मनमोहनी, हे सुंदरी। तुम कितनी पत्नी-योग्य हो। मैं तो महसूल उठानेवाला आदमी हूँ। तुम मुझे महसूल दिए बगैर कैसे दही ले जा सकती हो?"

मैंने कहा - "अभी मेरे पास तुम्हें देने के लिए कोई रकम नहीं है, लौटकर आऊँगी और दे दूँगी, अभी मेरा रास्ता छोड़ो।" लेकिन वह और रास्ता रोकते हुए कहने लगे - "महसूल के रूपमें मुझे दही भी दे सकती हो।"

मुझे गुस्सा आ गया। मैंने उन्हें एक तरफ धकेलते हुए कहा - "दूर हटो। मेरा रास्ता मत रोको। नहीं तो अभी चिल्ला-चिल्ला कर गुहार मागूँगी।"

इतना सुनते ही उन्होंने मेरे शिर से दही की हांडी छिनकर जमीन में पटक दिया। हांडी टूटकर बिखर गई। हांडी के छोटे टुकड़ों में बची दही खाकर उन्होंने मुझे खीँचा और झाड़ी की तरफ ले गए।

जातका ग्वाला, देखते ही कुरूप और काला, कुबुद्धि दुष्ट नें मुझे बिन भरोसे कर दिया सखी ! मैं गुहार तक नहीं लगा पाई। रोते हुए घर पहुँची। माँ को सब वृतांत कह सुनाया, लेकिन उन्होंने मेरी बात का विश्वास ही नहीं किया। कहने लगीं - "तुम बातें बना रही हो। गाँव के सब लड़कियों की चालाकी मैं समझ गई हूँ। जब जी चाहा सो किया और अभी बहानेबाजी।"

“मैंने सुना था, तुम कृष्ण से बहुत प्यार करती हो, उसे पाने के लिए अनेक यत्न करती हो। और उसी यत्न के कारण आजकल दरबार में नजरबंद हो। मुझे लगा मैं तुमसे मुलाकात करूँगी, तुम्हें अपने मन की व्यथा कहूँगी, उस दुष्ट की आदतों के बारे में तुम्हे बताउँगी। कल तो यह सब मैं कर नहीं पाई और आज सुबह ही आ गई। सखी ! तुम मेरी बात का विश्वास करो। वह आदमी दुष्ट है। उससे बचो। वह हम स्त्रियों के अस्तित्व से सिर्फ खिलवाड़ करता है। हमें खिलौने समझता है।“

वह चुप हो गई। उसकी बातों से मैं पसीने लथपथ हो गई । मुँह सुख गया। मन थर थर काँपने लगा। बहुत देर तक बोल नहीं पाई। मुझे चुप देख वह कहने लगी – “हे सखी, शायद मेरी बातों ने तुम्हारा दिल दुखाया है, मुझे क्षमा कर दो।“

“मुझे तुम्हारी बातों ने दिल नहीं दुखाया है सखी। लेकिन मुझे इस बात का डर है कि मुझसे वियोग के कारण उनमें यह विक्षिप्तता आ गई है। मुझे लगता है, उन्होंने तुम्हें तुम समझकर तुम्हारा रास्ता नहीं रोका है बल्कि तुममें मेरा रूप देख लिया हो, और दुर्व्यवहार करने लगें हों। मैं उनके तरफ से तुमसे माफी माँगती हूँ। हे सुंदरी, हे रूपसी, कृपा करके मेरे लिए ही  सही कृष्ण को माफ कर दो। तुम्हें मालूम नहीं है सखी, मैं कृष्ण से कितना प्यार करती हूँ और वे कितने गुणवान, बुद्धिमान और सुंदर है। यह तुम समझ नहीं पाओगी। तुमने उन्हें सिर्फ बाहरी नजरों से देखा है। बाहरी नजरों में तो सिर्फ वे काले, दुबले, शरारती ग्वाले लगते हैं। लेकिन जब प्यार में भितरी नजर खुल जाती है तो, बाहरी रूपका कोई अर्थ नहीं रह जाता। तुमनें मुझे होशियार किया, मैं बहुत खुस हूँ। मैं कृष्ण को समझाऊँगी। एक बार के लिए माफ कर दो।“ मैंने उनसे हाथ जोड़कर माफी माँगी।

मेरी वैसी हालत देखकर वह हँसने लगी। मैं कुछ देर असमंजस में पड़ गई। उसके साथ हँसना है कि नहीं, तय नहीं कर पाई। बहुत देर बाद उन्होंने मुझे गले लगाया और कहने लगीं – “राधे ! तुम कितनी भोली और अच्छी हो ? तुम अभी तक मुझे नहीं पहचान सकी ?”

अचानक वे अपने स्त्री-वस्त्र खोलने लगीं। उन वस्त्रों के भीतर पुरुष वस्त्रधारी युवक कृष्ण खड़े थे। मैं शर्म से पानी-पानी हो गई। आँखें भर आईँ। क्रोध, खुशी, ग्लानि, मिलन सब एक साथ हो रहे थे। मैंने आँखें मूँदकर उन्हें गलेसे लगा लिया। फिर नजाने कितनी देर तक उनकी गोद में सोए रही। जब जागी तो कृष्ण मेरे बाल सहला रहे थे।

उन्होंने कहा – “प्रिय, तुमसे वियोग मैं कैसे सह सकता हूँ ? इतने लंबे समय तक तुम्हारा यहाँ नजरबंद रहनेपर मुझपर क्या बीती, तुमनें नहीं सोचा ? जब मेरा धैर्य जवाब दे गया तो तुमसे मिलने के लिए ही मुझे यह रूप धारण करना पड़ा।“

मैं उन्हें एकटक लगाकर देखती रही। बहुत देर बाद उठी और कहा – “कृष्ण हम कैसे इस मुश्किल में रहेंगे ? मैं कैद में हूँ। मेरा दरबार से बाहर जाना निषेध है।“

“मैं ऐसे ही तुमसे मिलने आता रहूँगा, प्रिय।“

“यह कैसे संभव है। अगर तुम्हारा भेद खुल गया तो मुझे कितनी मुश्किल होगी !”

“इसकी चिंता मत करो। तुम तो मुझे दो दिन से नहीं पहचान पाइ तो और मुझे क्या पहचानेंगे। मैं हर दिन तुम्हारे साथ रहूँगा।“

उनकी बातें मुझे अच्छी भी लगी और नहीं भी।

मैंने कहा – “मैं तो एक पुरुष से प्रेम करती हूँ। मुझे एक जांबाज, निडर, साहसी कृष्ण के प्रति आशक्ति है। तुम नारी-रूपा और स्त्री-स्वभाव भेषधारक के प्रति मेरा कोई लगाव नहीं है कृष्ण। मेरे सामने जवां युवक के रूपमें आने का वातावरण तैयार करो, कृष्ण। सदा औरतों के भेष में स्त्री श्रृंगारयुक्त होकर चेहरा छुपाए चोर की भाँति मेरे सामने मत आओ। तुम्हें इस रूपमें देखकर मेरे भीतर की स्त्री शिथिल पड़ गई है। ऐसे समलिंगीय रूपमें प्रेमभाव नहीं होता कृष्ण।"

मेरी बात सुनकर वे गंभीर हो गए।

मैंने कहा - "तुम क्यों मुझे शादी कर नहीं ले जा सकते ? भगाकर क्यों नहीं ले जा सकते ? अगर तुम मेरे प्रति पूर्ण रूपसे वफादार हो तो, कुछ बंधनों को तो तोड़ना ही होगा। हे प्रिय, तुम मुझे अब ज्यादा मत तड़पाओ। मुझे इस कैद से मुक्त करो।"

मेरी आँखें भर आईं। आवाज रोने जैसी हो गई। कुछ देर की मौनता के बाद मैंने आज सबेरे मैंने देखे हुए सपने की बात भी बताई। सपने की बात सुनते ही, उनके चेहरे पर मुस्कान फैल गई और लेकिन तत्काल कुछ नहीं बोले।

लंबी मौनताके बात गंभीरता से बोले - "राधा ! तुमने मेरी आँखें खोल दी। असल में मैंने हमारे प्रेम को इस गंभीरता से लिया नहीं था। मुझे तो लगा था कि हम इस संकट घड़ी में आ ही नहीं पहुँचेंगे। फिर भी हमें एक मुश्किल है - अभी हमारे भाग जानेका, या फिर शादी करने का वक्त नहीं हुआ है। इतना घबराने की, जल्दबाजी करने की भी जरूरत नहीं है। तुम धैर्य धारण करो। अगली बार मैं तुम्हें इस रूप में नहीं, अपने असली रूपमें मिलने का वादा करता हूँ। मनमें कुछ मत रखो। तुम्हें हमसे कोई नहीं छुड़ा सकता।

मैं उनके चेहरे को देखती रही। मुझे मिलनेवाला, मेरे जीवनका अभीष्ट वही रूप और वही शरीर तो था, लेकिन फिर भी उतने नजदीक होकर भी उनतक पहुँचने के लिए एक विधियों का कठोर यज्ञ-कर्म जो करना था। इतने नजदीक होकर भी दूरी का यह अहसास कितना असह्य होता है, जान रही हूँ।

कृष्ण उठकर जाने की तैयारी में लगे। उन्होंने फिर से स्त्री रूप धारण किया और एक रूपवती स्त्री के रूप में रूपांतरित हो गए। वह जाने लगे तो मुझे दिल्लगी सुझी - "प्रिय सखी गोपदेवी ! दुष्ट कृष्ण के कलुषित हाथों से बचने की कोशिश करो। वह फिर तुम्हें झाड़ी की तरफ न ले जाएँ।"

हम दोनो ही खिलखालाकर हँस पड़े। मैं हैरान थी, क्योंकि इसबार कृष्ण के हँसने की आवाज बिलकुल लड़ियों जैसी थी।

...

अगले अंक में जारी...

 

नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी।

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टिप्पणियाँ

आर्यम देवकोटा
अति उत्कृष्ट ! writer has very well understood the feelings of Radha and extreme lights of krishna. I would like to congrats him for making us to feel.

ravikumar
bahut sunder laga dil ko chu gai


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