अङ्क 32वर्ष 6अगस्त 2013

पार्वती, मैं उसकी जान ले लूंगी

-आन्विका गिरी

मैं नंगी थी।

मेरी नंगी छातीमें मुंह जोतकर मेरा शौहर खर्राटे ले रहा था। उसके मुँह से आती शराब की बू सीधे मेरे नाक में घुस रही थी। मैं स्थिर थी। दिमाग शून्य था। मध्यरात्री की निस्तब्धता में भी मैं अपनी सासों की आवाज सुन रही थी। कोई गेट बजा रहा था और मेरी आखोँ की छोर से आँसू बह रहे थे। पहले तो लगा यह गेट बजने की आवाज सिर्फ भ्रम है। मध्यरात्री में कौन आ सकता है ? लेकिन नहीं ! आवाज बढ़ती गई। मैंने अपना बदन उठाना चाहा। लेकिन शौहर का शिर उठा पाना आसान नहीं था। मैं इस बातके लिए होशियार थी कि शौहर को कुछ पता न चले। इस आधी रात में गेट पर आवाज देने कोई चोर तो नहीं आता। कौन है, शायद पड़ोसी ! पर पड़ोसी होते तो फोन करते। जरूर दूसरा कोई है ! कौन हो सकता है ?

आवाज बढ़ती ही जा रही थी। शौहर के जागने के भय से मेरा मुँह सुख गया था। हाथ काँप रहे थे। एकबार तो लगा जगाऊँ इस लौंड़े को। मैं अकेली औरत कैसे जाऊँगी गेट खोलने। क्या पता आजकल के चोरों की यह कोई नई तरकीब हो !

फिर अपने आपको सम्हाला। जल्द से मैक्सी पहन कर बाहर निकल आई। बिल्ली की चाल से गेट के पास पहुँची। कोई लगातार गेट बजा रहा था। बाहर घना अंधेरा था। आसपास किसी के यहाँ भी इन्भर्टर का उजाला नहीं था। सिर्फ अपने घर में इन्भर्टर था जिससे बैडरूम पूरी तरह से उजाला किया जा सकता था और बाहर जरा कम। मेरे शौहर को उजाला जो चाहिए। मैंने चारों ओर देखने की कोशिश की। कहीं कोई पड़ोसी खिड़की से छिपकर तो नहीं देख रहा ? कोई इस आवाज से जाग न बैठा हो ! पर कोई नहीं दिखाई दिया। एक बार पलटकर भी देखा – कहीं मेरा शौहर ही एक हाथ में गिलास थामे मेरे पीछे पीछे तो नहीं आ रहा ! आधी रात में बीबी किस के लिए गेट खोलने जाती है मालूम तो करना ही पड़ता है न। मैंने डरते डरते मुड़कर देखा, मेरी कंपकंपी शायद धरती भी जान गई थी। पीछे एक आदमी नंगा खड़ा था। तकरीबन मेरी पेशाब निकल गई। शिर से पसीना बहकर पैरों पर पहुँच गया। मैं बोलना चाहती थी पर बोल नहीं पाई। लगा मेरी जीभ ही नहीं है। मैं दौड़कर उसके पैर पकड़ माफी माँगना चाहती थी। दौड़ना तो दूर मेरे पैर काँपकर हिले भी नहीं। बदन बर्फ बन गया। बेहोश होने ही जा रही थी कि फिर गेट बजने के साथ ही तीखी आवाज सुनाई दी – "दीदी ! दीदी ! जरा दरवाजा खोलिए न !"

तब मालूम हुआ पीछे कोई नहीं था। मैं इतनी भयभीत हो गई थी कोई न होने का अहसास ही नहीं हुआ। सी.एफ.एल के मद्धिम रोशनी में मैंने पुरुषनुमा आकृति को देखा। बदन फिर ठंडा पड़ गया। मैं लंबी सांस खींचने लगी।

"कौन ?" दबी हुई आवाज में मैंने पूछा।

"मैं पार्वती !" उधर से एक औरत बोल उठी।

"कौन पार्वती ?" मैं पहचान नहीं पाई।

"दीदी, मैं जनकपुरवाली पार्वती साह।" उसकी कोशिश थी कि मैं उसे पहचानूँ।

मैं गेट के छोटे से छेद से बाहर देखने लगी। एक औरत खड़ी थी। लगा मैंने उसे कहीं देखा है। वह गेट खुलने के इन्तजार में व्यग्र थी। मैंने आँखें फाड़कर दूर तक देखने की कोशिश की कि शायद उसके पीछे कोई और हो। लेकिन कोई नहीं दिखाई दिया।

"दीदी, दया करके जल्दी खोलो न।" उसने उसी छेद में आँख लगाकर कहा।

उसकी आँखों में आँसू देखकर मैंने गेट खोलने के लिए चाबी ढूँढ़ने लगी। अरे, यह क्या ? चाबी तो शौहर रखता है। हर रात गेट बंद करके वह चाबी अपने साथ ही रखता है। मेरे पास तो कोई चाबी नहीं है।

"ठहरना, मैं चाबी भूल गई। अभी लेकर आती हूँ।" शायद वह हाँ कह गई या मन्जुरी में शिर हिला गई मैं नहीं देख पाई।

मेरा शौहर चाबी कहाँ रखता है मैं आजतक नहीं जान पाई हूँ। वह तकिया बाहों में लेकर खर्राटे ले रहा था। टीवी अभी खुली थी। फैसन चैनल में "मिडनाइट हट" चल रहा था और मोडलें दूसरों को उत्तेजित कर रहीं थीं। टीवी रैक बन्द था, रिमोट भी भीतर ही था। अलमारी भी बन्द थी। ड्रेसिंग टेबिल के सभी ड्राअर बंद। शौहर के पैंट की पाकिट में हाथ डाला तो कंडम मिला। बेड से मैट्रेस उठाकर देखा तो पाया कि दोचार सैक्स कहानियों की किताबें और भड़काऊ मैगजिन मिले।

मैं कोई आवाज किए बगैर चाबी ढूँढ रही थी और पार्वती गेट के बाहर अधीर हो रही थी। वह फिर हाथ से लोहे का गेट पीटने लगी थी। शौहर की नींद में भी कहीं कुछ तो बजा होगा, वह करवट बदलकर सो गया। तकिया उसी भाँति मुक्त हो गया जैसे हर रात मैं मुक्त होती थी।

जितना ढूँढने पर भी चाबी न मिलने से मैं खाली हाथ बाहर निकल गई। प्लास्टिक की कुछ कुर्सियाँ लेकर मैं गेट के पास गई और खड़ी हो गई। फिर उसी छोटे से छेद से बाहर देखने लगी। वह रो रही थी।

"मुझे चाबी नहीं मिली। मैं तुम्हें यह कुर्सी देती हूँ। क्या तुम छलांग लगा सकती हो ?" मैंने पूछा।

"जरूर !" उसने रूवांसी होकर कहा।

फिर वह आनन फानन में गेट ऊपर से छलांग लगाकर भीतर आ गई।

"दैया रे दैया, यह क्या हाल बना रखा है दीदी ?" मुझे ऊपर से नीचे तक देखते हुए वह बोली।

अब मैं चौंक गई। मुझे मालूम हुआ मेरे बाल बिखरे थे। सम्हाल नहीं पाई थी। मैक्सी की आगे की हुक भी खुली हुई थी। ब्रा पहन नहीं पाई थी सो उरोज दिखाई दे रहे थे। शायद लिपस्टिक भी पुती हुई होगी। बिन्दी भी ठीक जगह नहीं होगी।

"जल्दी में उठकर आ गई न इसलिए।" मैंने सफाई में कहा और मैक्सी का हुक लगाने लगी।

उसे देखा। वह भी मैक्सी पहनी हुई थी। हाथ में दो लाल चुड़ियाँ। लगता था बिखरे बालोंको हाथों से ही संवार कर बाँधा है। सिन्दूर की मोटी रेखा थी पर बिन्दी नहीं थी। ललाट में लगता था कुछ काला पुत गया है। नाक में नत्थी लगी हुई थी। गले में काले रंग की माला। पैरों पर देखा, चटकने को तैयार नीले फितों वाली चप्पल पहने थी। मैंने फिर उसे ऊपर से नीचे तक निहारा, यादों पर जोर देने लगी, आखिर कौन है यह पार्वती ? कहीं भी तो याद नहीं आती।

मैंने उसकी आँखों पर देखा, लगता था वह किसी गहरी मुसीबत में है।

"दीदी मुझे कुछ खाने को दो। बड़े जोर की भूख लगी है।" उसने पेट पर हाथ रखते हुए कहा।

जो भी हो, उसका हाथ पकड़कर मैं उसे ऊपर किचन में ले आई।

"दीदी...।"

वह कुछ कहने जा रही थी। मैंने होठों पर हाथ रखकर चुप रहने का इशारा किया। फ्रिज में दाल, चावल थे। सो गरम कर उसे मूली की चटनी के साथ परोश दिया।

खाते वक़्त वह चुप रही। मैं उसे ध्यान से देख रही थी। वह जल्दी जल्दी खा रही थी। कुछ पेट भरने के बाद वह कुछ संभल गई थी और मुझे देखते हुए खा रही थी।

"भोर से ही कुछ खाया नहीं था।" चावल चबाते हुए वह बोली।

"भोर से ?" मैं कुछ समझ नहीं पाई।

"मेरा मतलब है सुबह से, दीदी..।" शायद पेट भर जाने के बाद उसे हँसी भी आई, बोली – "दीदी हमारी बात समझ नहीं पाती ?"

"समझती हूँ न..।" मैं भी मुस्कुराते हुए बोली।

उसने दो ग्लास पानी पीया। प्लेट उठाने लगी थी पर मैंने रोक दिया। अब मैं उसे कहाँ सुलाऊँ ? आज की रात, कल शौहर ऑफिस से नलौटने तक मैं उसे कैसे छिपाऊँ ? क्यों छिपाऊँ ? क्या वह कल ही लौट पड़ेगी ?

"दीदी एक नाङ्लो दुकान के लिए कितने पैसे लगेंगे ?" अचानक उसने पूछा।

यह कैसा सवाल है ? आधी रात में ठीक से जान-पहचान भी नहीं हुई औरत से आया सवाल आपको नहीं चौंकाता ? मैं तो चौंक गई। उसके चेहरे की तरफ टकटकी लगाए देखने लगी।

"जल्दी कहो न, मेरे पास पाँच हजार हैं, बाकी आपको देना होगा।" उसकी बोली में अजीब बिनती थी। मैं फिर चौंक गई।

"अब मैं उस कुत्ते के घर कभी नहीं जाउँगी। उस कुत्ते ने मुझे मारा। मेरे पूरे बदन पर जख्म भरे पड़े हैं।" उसने मुझे अँगुली दिखाई।

उसकी अँगुली तकरीबन मेरे नाक के सामने पहुँचने वाली थी कि मैंने शिर को पीछे की तरफ ले लिया। उसने भी अँगुली वापस ली।

"मेरी खता क्या थी, जानती हैं ?" उसने पूछा।

"नहीं।" मैंने शिर हिलाया। कैसे मालूम होता मुझे।

"मैं फिल्म देखने चली गई थी।" वह उतावली हो रही थी- "वह न जानेके लिए कह रहा था। वह खुद तो हर रविवार नई नई फिल्में देखता है। मैंने एक देखा तो मेरा क्या कसूर ? मैं दूसरे मर्द के साथ थोड़े ही गई थी ? मैं तो गाँव के मौगीयों के साथ गई थी।"

"सही तो है, तुम्हारा कसूर ही क्या है।" मैंने कहा।

"मुझे बहुत मारा। मेरे शरीर पर लातें बरसाने लगा। मुँह पर भी मारा।" वह रोने लग गई थी। "बाल नोचते हुए वह मुझे आँगन में ले आया और फिर मारा।" मैंने जल्दी से उसे टेबल पर पड़ा रूमाल देना चाहा, पर उसने लिया नहीं।

"उसने मेरी नाक भी नोची। कह रहा था कि अब मैं घर से निकलूँ तो वह मेरी आँखें नोच लेगा।" उसकी रूलाई रूक नहीं रही थी।

"रोना मत।" मैंने उसे फिर रूमाल देना चाहा।

"क्या मैं जानवर हूँ दीदी ? " वह नाक पोंछते हुए बोली – "इसलिए मैं उसका घर छोड़ आई।"

"इतनी सी बात पर ?" मेरे मुँह से अचानक निकल गया।

"इतनी सी बात ?" उसने रूमाल टेबल पर पटक दिया। अगर शीशा होता तो टूट जाता लेकिन रूमाल था। कोई बड़ी आवाज नहीं आई।

"दीदी आप भी कैसी बातें करती हैं ?" वह मेरी आँखों में आँखें डालकर कहने लगी – "आप ही ने कहा था न, मर्दों के अत्याचार सहन न करने के लिए ?"

"मैंने ?" मेरे मुँह से आवाज नहीं निकली। लेकिन वह समझ गई थी।

"आपने जो भाषण महुँवा में दिया था वह मैं भूली नहीं हूँ" उसकी आँखें चमक उठीं – "मर्दों के अत्याचार सहने के दिन गए।"

अरे वाह ! तो यह वह पार्वती है। मैंने फिर उसे देखा। यह वही पार्वती थी जिसके हाथ पकड़कर मैंने कहा था – "शौहर के अत्याचार सहने के दिन गए।" और उसके हाथ में भिजिटिङ कार्ड थमाते हुए कहा था – "कुछ हुआ तो मैं हूँ न !" पर इतना कहने पर ही आज वह मेरे पास चली आई है, विश्वास नहीं हो रहा था।

"मेरे उतना कहने से ही तुम चली आई ?" मैंने पूछा।

"दीदी आपने ही मुझे हौसला दिया है।" वह मेरी आँखों में उभरे अविश्वास पढ़ नहीं पा रही थी इसलिए बोले जा रही थी – "बस दीदी, मर्द के अत्याचार नहीं सहूँगी, उसी दिन मैंने कसम ले ली। सातवीँ तक पढ़ी हूँ। व्यापार करूँगी। दीदी बस एक वकील मिलवा दो।"

"वकील ?"

“तलाक लूँगी उस कुत्ते से।” फिल्मी स्टाईल में उसने कहा।

*

पार्वतीको किचन में ही सुलाकर अपने कमरे में आने के बाद मेरे मन में फिर डर समा गया। मैंने शौहर की तरफ देखा। वह गहरी नींद सो रहा था। नजाने क्यों मैं बिछौने की तरफ न जाकर ड्रेसिंग टेबल की तरफ हो ली। अगर शौहर अचानक जाग गया तो मेरी हालत क्या होगी, यह सोचकर मेरे पैर काँपने लगे। काँपते पैरों से ही मैं आइने के सामने कुर्सी पर बैठ गई।

खुली हुई लटें, कहीँ धुली कहीँ गाड़ी काजल। लिपिस्टिक पुतकर उपरी होंठ से थोड़ा ऊपर और निचले होंठ से ठोड़ी तक पहुँची हुई, गले में शौहर के चूसे हुए जगह दाग। आइने में मैंने एक बेचारी औरत को देखा। मैंने आइने को आहिस्ता से छुआ, लगा उसे दर्द होगा। उस बेचारी औरत के आँखों में आँसू भरने लगे। भर कर बहने लगे। नाक से पानी बहने लगा। पानी बहकर नीचे होंठों से भी नीचे, ठोड़ी से नीचे छाती तक बहने लगा। फिर महसूस हुआ मैं रो रही हूँ। इस तरह हर दिन रोते हुए मैंने आज तक पाँच वर्ष गुजारे हैं।

इसी रुलाई से पहले मैं पार्वतीसे जनकपुर में मिली थी।

पढ़ाई लिखाई में माँ-पिताजी ने कभी कुछ नहीं कहा। कोई रोक-टोक नहीं थी। नौकरी भी पढ़ाई के दौरान ही शुरू की थी। महिला अधिकार की वकालत करनेवाली एक एनजीओ मैं ऑफिसर थी। मेरे माँ-पिताजी ने, जिसने मैंने जो माँगा दिया, एक दिन रमेश को मेरा शौहर बना दिया। मैंने खुसी-खुसी स्वीकार किया। कहानी तो सीधी होनी चाहिए थी, पर नहीं हुई।

*

शादी के पहले दिन रमेश शराब के नसे मे धुत्त आ पहुँचा। पहले सोचा, शादी का पहला दिन, शायद दोस्तों के साथ बैठकर थोड़ा पी गया। थोड़ा नर्वस भी हो गया होगा। मैं तो फिल्मों की भाँति बिछौनें में सुहागरात का इन्तजार कर रही थी। वह आया। लड़खड़ाते हुए आया। अपने साथ शराब की तेज बू भी लाया और कमरे भर फैलाया। मैं खुद को सम्हाल रही थी।

वह लड़खड़ाते हुए मेरी तरफ आया।

“कपड़े खोल।” मेरे पास बैठते हुए बोला।

“जी।” मुझे लगा वह दिल्लगी कर रहा है। अरेंज मैरिज हुई थी हमारी। दो एक बार मुलाकातें हुई होंगी। इतने में कोई कैसे इतना खुलता है ? मैंने फिर सोचा – “यह शौहर तो मेरा ही है, लेकिन एक शौहर पहली रात में ही कुछ न कहकर सीधे कपड़े खोल कैसे कह सकता है ?”

“सुना नहीं तुने ?” वह थोड़ा अकड़कर बोला।

फिर भी मैं विश्वास नहीं कर सकी। मेरे मनसे मैंने कहा – “यह मुझसे दिल्लगी कर रहा है।“ मैं चुपचाप बैठी रही।

“कपड़े खोल। सुनती नहीं है क्या ?” उसने मेरो दोनों बाजू पकड़कर झकझोर डाला – “या तू मेरी अवज्ञा कर रही है ?”

मैं चौंक गई। मैंने उसकी आँखों में देखा। वह एक राक्षस दिख रहा था। बड़ी बड़ी आँखें फैलकर और बड़ी हो गई थीं। सफेद गाल गु्स्से से लाल हो गए थे। वह तुम से तू में आ गया था और यह तय था कि वह दिल्लगी नहीं कर रहा था।

“यह क्या कर रहें है आप ?” मैं रूवाँसी सुनाई दी – “छोड़ दीजिए मेरा हाथ। मुझे दर्द हो रहा है ?”

“कपड़े खोल। फिर छोड़ दूँगा।” वह गरजने लगा।

“अगर न खोलूँ तो ?” आखिर मैं एक नारीवादी संस्था की ऑफिसर थी। वैसे क्यों डरने वाली थी। मैं अपने बचाव में खड़ी हुई।

“मैं जबरन कर सकता हूँ।” उसने कहा –“अगर खुद ही कपड़े खोलती है तो तू भी मोज करेगी, नहीं तो मैं मजा लूटूँगा। तेरी मर्जी। दो मिनट सोच।“ इतना कहकर उसने मेरा हाथ छोड़ दिया।

दो मिनट। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। पिताजी याद आए, माँ याद आईं। कैसा आदमी ढूँढ़ा मेरे लिए ! कैसे नहीं पहचाना मैंने इसको। मैं तो नारीवादी संस्था में काम करती हूँ। महिला-अधिकार की बात करती हूँ। अब मेरे कदम क्या हो सकते हैं ?

“दस सैकेंड बाकी।” उसने मेरी आँखों के सामने दसों उँगलियाँ नचा दी।

“मैं तुम्हें और तुम्हारे घरको छोड़ रही हूँ।” मैंने फैसला सुना दिया। मैं उठी और दरवाजे की तरफ बढ़ी।

दरवाजा बंद था।

“खोलो। दरवाजे खोलो।” मैं चिल्लाने लगी। अचानक कहीं बड़ी वाल्यूम में गीत बजने लगा। मेरी चिल्लाहट उसी गीत में खो गई।

जब मैं होश में आई तो कमरे में मेरे सिवा कोई नहीं था। मैं नंगी थी। जमीन पर पड़ी हुई थी। बेहोशी में कितना रोई पता नहीं लेकिन होश में आते ही फिर आँसू बहने लगे। मैं बड़ी मुश्किल से उठी। मेरे बदन के साथ मेरा दिमाग भी उठा। जल्दी से कपड़े पहने। मुँह पोंछा। मैं जल्दी से जल्दी वहाँ से निकलना चाह रही थी। मैं दरवाजे की तरफ जा ही रही थी कि मेरी नजर दीवार में टंगी एक कागज पर पड़ी।

“इस कमरे से बाहर जाने से पहले टेबल में रखी सी.डी. पासवाले कम्प्यूटर में डालकर देखना।“ लिखा हुआ था।

सीडी में मेरा बलात्कार किया हुआ दृश्य कैद था। अपने ही बलात्कार का दृश्य देखकर मैं चुप रही। बिलकुल चुप। आज तक मैं चुप हूँ। क्योंकि उसने मुझे धमकी दी है कि वह इसे इंटरनेट पर लिंक करेगा और ब्लू फिल्म भी बनाएगा। वह ऐसा कर सकता है। वह जो भी कर सकता है।

मैं उसकी सम्मानित पत्‍नी। अभी तक एनजीओ में नौकरी कर रही हूँ। महिला-अधिकार और महिला-सशक्तिकरण के बारें में बोलती हूँ। माँ-पिताजी मुझे खुस देखते हैं। वैवाहिक बलात्कार का कानून पास करानेवालों में से मैं भी एक हूँ। मैं हर दिन घर से निकलती हूँ, मेरे पास एक कार है, थाने के पास से गुजरती हूँ, अनेक नामी वकील भी पहचान रखे हैं। मैं चिल्लाकर बोल सकती हूँ, बहुतों को चुप करा सकती हूँ। मेरे पास महँगी साड़ियाँ हैं। मेरे दोस्त जब मेरे घर आते हैं तो मेरा शौहर चाय बनाता है। रेस्ताराँ में कुर्सी खीँच कर मुझे ससम्मान बिठाता है। मेरे हर जन्मदिन पर वह पार्टी रखता है। मेरे पास मोबाइल फोन भी है। मैं सीधा महिला बालबालिका तथा समाज कल्याण मन्त्री से बात कर सकती हूँ। मगर मैं चुप हूँ।

पुलिस में रिपोर्ट करने, उसे तलाक देने, उससे अलग रहने, चुपचाप विदेश जानेकी बातें भी मैंने सोची। गुंडों से उसे मरवाने तक की योजना बनाई। वह जब खर्राटें ले रहा होता तो मैं चाकू हाथ में लिए उसकी तरफ निशाना करती। फिर भी मैं कुछ नहीं कर सकी। मैं थक जाती। पहले वर्ष तो खुदकुशी करने की भी सोची। विषपान करके, लटककर, नाड़ी काटकर मरने की बात भी सोची। पर कुछ नहीं कर पाई। कभी न सोची हुई चीज से लड़ाई लड़ना मेरे वश की बात नहीं रही। मैं बहुत डरी हुई हूँ। अब तो आदत सी हो गई है।

हर दिन जब मैं काम पर निकलती हूँ, वह मुझे फोटो और भिडियो की बातें करता है। फिर दाँत दिखाकर मुझे शुभ दिन कहता है। मैं गेट से बाहर निकलकर थूकती हूँ। इसके सिवा मैं कुछ नहीं कर सकी हूँ।

हर रात बत्ती के उजाले में वह मुझे नंगी बनाता है। दीवार के कोने में खड़ी करवाता है, कभी आगे कभी पीछे मुड़ने को कहता है। अनेक उत्तेजक फिल्में दिखाता है, मैं देख देती हूँ। कहानियाँ पढ़ता है, सुन देती हूँ। लिंग चलाने के लिए कहता है, चला देती हूँ, चूसने के लिए कहता है, चूस देती हूँ। वह मुझे आगे से भोगता है, पीछे से भोगता है। मैं ठीक रिमोट से चलनेवाली गुड़िया की भाँति सब करती जाती हूँ। माँ को, पिताजी को, वकील को, दोस्तों को या और किसी को कुछ भी नहीं कह सकती।

कुछ देर पहले भी वही सब करके सोया है। मैंने किसी को कहा नहीं है।

*

“पार्वती।” मैंने उसे जगाया।

वह गहरी नींद में थी। मैंने उसे कहा कि मैं पाँच हजार दे दूँगी और वकील से मुलाकात भी करवा दूँगी। वह निश्चिन्त हो गई। मैंने जब उसे हिलाया तो वह आँखें खुजलाती हुई उठी।

“तुम्हें शौहर का डर नहीं लगा।” मैंने पूछा।

“क्या कह रही हैं दीदी ?” उसकी आवाज अभी भी उनींदापन था। 

“तुम्हें शौहर का डर नहीं लगा।” मैंने फिर पूछा।

“उस कुत्ते का ?” अब वह जाग गई थी – “दीदी, डरकर मैं क्यों जियूँगी ? फिर उसमें और मुझमें क्या फर्क रह गया ? क्यों पूछ रही हैं ?” फिर चौँककर पूछने लगी – “वो कुत्ता मेरा पीछा करते करते यहाँ भी आ गया क्या ?”

“नहीँ,” मैंने उसके कंधों पर हाथ रखते हुए कहा – “अगर आ गया तो ?”

“देखना दीदी,” वह उँगली दिखाते हुए बोली – “मैं उसकी जान ले लूँगी। क्या समझ रखा है मुझे ?”

उसकी आँखें जल रही थीं। उन आँखों में वही हिम्मत दिखाई दी जो किसी की जान भी ले सकती है।

किचन से नीचे कमरे में जाने के लिए 32 सिढ़ियाँ उतरते वक़्त मैंने पार्वती की आँखों को याद किया, उसने जो कहा वह याद किया – “देखना दीदी, मैं उसकी जान ले लूँगी।”

नीचे जब कमरे में पहुँची तो सुबह के चार बजे थे। शौहर करवट बदलकर सोया था। मैं बाथरूम गई। मुँह धोया। बाल सँवारे। पैन्टी व ब्रा पहने। और फिर पाँच वर्षों में पुलिस को फोन करने का साहस जुटा पाई।

पुलिस के साइरन से पार्वती और शौहर दोनों नींद से जाग गए।

मेरे कमरे में नंगा आदमी देखकर पार्वती पूछने लगी – “दीदी, यह कौन है ?”

“बलात्कारी” मैंने रमेश की आँखों में नजरें गढ़ाकर कहा। वह अपने कपड़े ढूँढ़ रहा था। पुलिस ने उसे कपड़े लगाने तक का वक़्त दिया था।

“इसने किसका बलात्कार किया ?” वह फिर पूछने लगी – “यह आपके घर में कैसे घुस आया ?”

“पाँच वर्षों से यह मेरा बलात्कार कर रहा है।“ मैं अचानक चिल्ला उठी – “मेरा शौहर होकर भी यह हर दिन मेरा बलात्कार कर रहा है।”

मैं अपने लिए शायद पहली बार चिल्लाई थी। पार्वती को विश्वास नहीं हो रहा था। वह जड़वत हो गई थी।

पुलिस रमेश को घसिटते हुए ले जा रही थी और वह मुझे आँखे तरेरकर देख रहा था। बहुत यत्‍नके साथ मैंने खुद को सम्हाला। उसकी आँखों में देखते वक़्त मेरी पलकें नहीं झुकीं।

मैं पार्वती को पूरी बात समझा नहीं पाई। वह विश्वास ही नहीं कर पा रही थी कि मेरे जैसी समाजशास्त्र में पोस्टग्रैजुएट, शहर में पली बड़ी, नौकरी करने वाली औरत शौहर का वैसा निकृष्ट अत्याचार सहन कर पाँच वर्ष चुपचाप बैठेगी। दिनभर मेरे मायके से आए अपनों की, रमेश की घरवालों की, घर की तलाशी लेते पुलिस जवानों की आँखों से बचकर एक कोने में दुबककर पार्वती मुझे देखती रही। वह मुझे तबतक एक टक देखती जबतक उसकी आँखें भर नहीं जाती, फिर दूसरी मुड़ती, फिर मुझे देखती।

*

अदालत में रमेश के विरूद्ध तलाक, बलात्कार, यातना और गाली बेइज्जती के मुकद्दमे दायर कर मैं लौटी थी और पार्वती के साथ बालकनी में बैठी थी। मैं रमेश का घर छोड़ माँ-पिताजी के साथ रहने के लिए जाने वाली थी। माँ पार्वती को भी ले जाने के लिए मंजुर हो गई थी। भीतर कमरे से रेडियो की आवाज आ रही थी। रेडियो जॉकी फोन पर फर्माइशें ले रहा था।

“भैया मुझे गीत नहीं सुनाना है।” एक मधेशी आवाज सुनते ही पार्वती सजग हो गई। “एक मैसेज देना है, बहुत जरूरी है।” रेडियो जॉकी ने अनुमति दी तो वही आवाज फिर सुनाई दी।

“पार्वती, तुम कहाँ चली गई ? मैं हाथ जोड़कर माफी चाहता हूँ। पिलिज मेरी बात समझो। मैं अब तुम्हें नहीं मारूँगा। तुम्हारी कसम। घर लौट आओ। मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ।”

मैंने पार्वती कि तरफ देखा। उसकी आँखों में गंगा भर आई थी।

कमलेश पार्वती को लेने काठमांडू आया। पार्वती खुब खुश हुई। माँ तो कह रही थी यहीँ कुछ व्यापार करे। लेकिन वे चले गए।

मैं फैसले का इंतजार कर रही हूँ। आजकल मस्त सो जाती हूँ। कभी कभार आधी रात में चौंकते वक़्त रमेश दिखा तो भी मैं खुदको सम्हाल सकती हूँ।

आज भी पार्वती की बात मुझे याद आती है – “देखना दीदी, मैं उसकी जान ले लूँगी।”

***

नेपाली से रूपान्तरः कुमुद अधिकारी

 

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टिप्पणियाँ

Devi nangrani
Kahani ka Aagaz pathneeyata ke agh aria mein le Gaya aur ant par lekar chola.


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