अंक 35वर्ष 10जनवरी 2017

कुंठा

- डॉ. रवीन्द्र समीर

वातावरण भी नए सदस्य के आगमन में इंतजार में बैठा है। वह प्रसव पीड़ा से छटपटाती रही। धरती के कैनवास में काला रंग पोतने का क्षण, लगातार चिल्लाती रही - "मर गई रे..... मर गई.... माँ रे ... मर गई। अब तो तुझे छूने भी न दूंगी।.... कोई बचा लो रे मर गई...। ठहर तुझे...। इस पीड़ा से छूटने तो दे....थ। तू पति नाम के प्राणी का मुँह भी नहीं देखूँगी। आ...आ...।"

अगर पति नजदीक होता तो शायद बघिनी के समान नोंच डालती। लेकिन मारने के लिए नहीं।

थोड़ी देर बाद नए आदमी की पहली रुलाई सुनाई दी - "उहाँ......उहाँ......उहाँ.....।"

धरती में उषा की पहली किरण के साथ उसकी रुलाई ने विश्राम लिया। पत्नी की प्रसव पीड़ा से उसका मन खट्टा हो गया। अज्ञात ग्लानि और पश्चाताप उसे खदेड़ते रहे।

पति शिशु की देखरेख में बहुत ध्यान देता। पत्नी को तेल मालिश करने के लिए धाई की व्यवस्था भी की। नियमित रूप से जच्चे व बच्चे के स्वास्थ्य परीक्षण के लिए उसने घर में ही माहौल तैयार किया। पौष्टिक आहार की व्यवस्था की। कुछ कसर नहीं छोड़ा।

समय अपनी गति में चलता रहा। पत्नी तकरीबन पहली जैसी हो गई। उसमें जोश आ गया, शक्ति आ गई और वासना जग गई।

मध्य रात्रि में उसने पति को गुदगुदी लगाई - "क्यों आजकल आप कमजोर हो गए क्या ? कुछ जोश, शक्ति नहीं है ?"

उसकी आँखों में पत्नी की प्रसव वेदना दृश्य तैर रहे थे और कानों में वेदना के स्वर गूँज रहे थे। वह गहरी साँस लेकर करवट बदलकर सो गया।

दूसरी रात पत्नी की कुंठा फट पड़ी - "अगर ऐसी ही नामर्दी की चाल रही तो, मैं कल ही मायके चली जाऊँगी।"

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नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी 

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