अंक 33वर्ष 7अक्तूबर 2014

पान्डोरा का संदूक

-  कुमुद अधिकारी

'यह पांडोरा का संदूक है, पांडोरा का संदूक है। इसे खोलना नहीं....। इस में दुःख ही दुःख भरे पड़े हैं। हा...हा..हा.. यह पांडोरा का संदूक है...।' आज भी वीरमान हाथ में सिलबंद लिफाला लिए चिल्लाते हुए दौड़ रहा था। चौपाल में बैठे शुकदेव ने वीरमान की आवाज सुनी और उसे धर दबोचने दौड़ चला। वीरमान के हाथ में नया सिलबंद लिफाफे का मतलब होता, नयी चिट्ठी आई है। कुछ देर तक उसके पीछेपीछे दौड़ने के बाद शुकदेव ने वीरमान को पकड़ लिया और उसे सहारा देते हुए, स्नेह से हाथ फेरते हुए उसे घर लेजाकर बिछौने पर सुलाया और वीरमान के हाथ की चिट्ठी लेकर अपने कमरे की तरफ चल दिया।

 

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वीरमान राई उसका नाम।

छोटी छोटी संकरी आँखें, बैठा हुआ नाक, चार दर्जन के करीब मुछें-दाड़ी के बाल, पतले भौँ के साथ तकरीबन चौकोर चेहरा। तिस पर आँखों में चश्मा चढ़ाने की वजह से वह खास क़िस्म से सुंदर दिखता। प्रायशः उसके शर्टका आस्तीन कोहनीतक फोल्ड किया होता था और कमर खुली होती। लेकिन उसका जिंस-पैंट हमेशा नयाँ लगता था। वह अग्रभाग में चोंच जैसी आकृतिवाले जूते पहनता जो हमेशा पॉलिस से चमकाए गए होते। उसे टपबूट पहनकर टक..टक...टक...टक... की आवाज के साथ चलना बेहद अच्छा लगता था। वीरमान से शुकदेव की दोस्ती गहरी थी। और आजकल वीरमान मानसिक तौर पर विक्षिप्त था। शुकदेव ने यथासंभव सहायता तो करी लेकिन वीरमान की अपनी परिस्थितियाँ भी कम बाधक नहीं थीं।

एक ही गांव के रहनेवाले वीरमान और शुकदेव में स्कूल के दिनों से ही दोस्ती थी। शुकदेव जैसे अल्पभाषी और अंतरमुखी आदमी को भी वीरमान ने दोस्त बना डाला था। वह अद्भूत रूपसे वाचाल और चालाख तो नहीं था लेकिन उस की एक खासियत के कारण शुकदेव उससे नजदीक हो पाया था। वीरमान लिफाफा खोले बगैर ही चिट्ठी में लिखी बातों को बता सकता था। समय के साथ उसकी यह कला खासी विकसित हो गई थी।

बचपन से साथ होने पर भी शुकदेव को वीरमान की बहुत सी आदतों के बारे में मालूम नहीं था। पर बाद में जब उनकी दोस्ती बढ़ती गई, तब शुकदेव उसकी आदतों से रूबरू होता गया। बंद लिफाफे की चिट्ठी पढ़ने की जो क्षमता थी वीरमान की, सिर्फ शुकदेव को ही मालूम थी। वीरमान चाहता भी यही था क्योंकि ऐसी बातों को सार्वजनिक करके वह खतरा मोल लेना या हँसी का पात्र नहीं बनना चाहता था। शुकदेव ने भी दोस्त की इस बात को पूरा महत्व दिया था और बात को पूरी तरह गुप्त रखी थी। जब वीरमान और शुकदेव एकांत में मिलते तब ही चिट्ठियों की बात होती।

यों तो वीरमान के पत्र-मित्र बहुत से थे। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं से ढूँढ़कर बनाए गए पत्र मित्र विभिन्न भूगोल और जात-जातियों के थे। वीरमान बहुत ही सृजनशील पत्र लिखा करता था। और इस बात से बहुत दुःखी था कि इमेल ने पत्र विधा को धराशायी कर दिया है। उसके एकाध मित्र तो इमेल के जरिए भी बने थे। लेकिन ज्यादातर उनसे भी वह पत्रों के माध्यम से बी बातें करता था। वह पत्र साहित्यको साहित्य की एक अलग विधा बनाने पर जोर लगाता रहता था। शुकदेव इमेल की काबिलियत, विशेष कर समय की बचत का कायल था फिर भी दोस्ती की खातिर वीरमान के पत्र साहित्य की अवहेलना उसने कभी नहीं की। वह वीरमान की सृजनशीलता पर पूर्ण विश्वास करता था। अनेकों बार शुकदेव ने वीरमान को इमेल की महत्ता भी समझानी चाही और कहना चाहा कि इमेल भी पत्र जैसे ही कलात्मक तरीके से लिखा जा सकता है। लेकिन वीरमान की एकाग्रता और निष्ठा देखकर उसे बदलने की कोशिश करना उसे ठीक नहीं लगा ।

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एक दिन जब शुकदेव अपने घर के सामनेवाले चौपाल में बैठकर आराम कर रहा था तब वीरमान तूँफान की भाँति एक सिलबंद चिट्ठी लेकर आ पहुँचा था। लिफाफे पर भेजनेवाले का नाम देखकर शुकदेवको पता चला की चिट्ठी पद्मा की है। पद्मा मेची कॉलेज की सहपाठिन थी, यों कहें दोस्त थी। शुकदेव भी उसे अच्छी तरह से जानता था। छोटे शरीरवाली, कोरियन चेहरे की पद्मा राई का चेहरा गोरा और थोड़ा लम्बा था। उसकी छोटी-छोटी आँखोंवाले सुंदर चेहरे को कंधे तक गिरते लहराते बालों ने चार चाँद लगा दिए थे। ज्यादातर नीले रङ का कुरता और सलवार पहनने वाली पद्मा का दुपट्टा भी नीला ही पहनती थी। पद्मा  की खासियत एक और थी की वह ज्यादातर लड़कियों के विपरीत किताबें झोले में लेकर चलती थी। उसका झोला काले ऊन से बना था और बीच में ड्रागन का चित्र था जो लाल ऊन से बना था। शुकदेव भी ड्रागन का चित्र झोले में देखकर भौँचक्का रह गया था लेकिन बाद में उसे यह बात सामान्य लगी। अंतरमुखी स्वभाव के शुकदेवको पद्मा से पूछने की हिम्मत कभी नहीं आई।  उसे बारबार लगता की ड्रागन के चित्र और पद्मा के व्यक्तित्व में कुछ न कुछ संबंध तो जरूर है।

'शुकु देखो तो, मैं इस चिट्ठी में लिखी बात को बिना लिफाफा खोले ही बता सकता हूँ।‘ वीरमान की बात शुकदेव के कानों में पड़ी।

'कैसे, क्या कोई जादू-मंतर जानते हो ?' चौंक गया था शुकदेव। उसे कहीं से भी नहीं लगा की वीरमान वो कर सकता है जो बोल रहा है। वह मानवेतर शक्तियों में विश्वास तो करता था लेकिन अपना ही दोस्त ऐसा निकलेगा उसे यकीन नहीं था। फिर आजकल वैसी बातें करनेवालों को पागल करार दिया जाता है। शुकदेव इस बात से अनभिज्ञ नहीं था इसलिए सजग था।

वीरमान फिर बोल उठा- 'मेरी छठँवी इंद्रिय वह काम कर दिखाएगी, तुम देखते जाओ।'

शुकदेव अब भी आश्वस्त हो नहीं पाया था। वीरमान का मन रखने के लिए उसने कहा- 'हाँ, हाँ दिखाओ अपनी ताकत।'

वीरमान बोला - 'तो सुनो इस पत्र में मुझे प्रेम प्रस्ताव भेजा गया है, वह भी सिर्फ दो वाक्यों में।'

शुकदेवको अजीब परेशानी हुई। कहा - 'तुम्हारे कथन की सत्यता मैं कैसे पता करूँ ?'

वीरमान सहज भाव से बोला - 'अरे भाई खोलकर देखो न चिट्ठी।'

शुकदेव अब भी सहज नहीं हो पाया था। बोला - 'देखूँ ! पढ़ूँ ! तुम्हारा प्रेमपत्र ?'

'देखो, पढ़ो। निश्चिंत हो कर।'

शुकदेव ने लिफाफा फाड़कर चिट्ठी पढ़ी। वीरमान की बात सच हो गई थी। एक छोटी सी चूक हो गई थी वीरमान की। उसने कहा था दो वाक्य थे लेकिन वाक्य तीन निकले। पर अब शुकदेव हैरान था। उसे पहले लगा था वीरमान दिल्लगी कर रहा है। या फिर खुद चिट्ठी लिख कर उसे मूर्ख बनाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन शंकाएँ निराधार हो गईं जब शुकदेव ने लिफाफा देखा, उसे बंद करने का तरिका देखा और भेजने वाले का हस्ताक्षर देखा।

शुकदेव ने पूछा - 'सच यार। कैसे कर पाए यह तुम ?'

वीरमान बोला - 'यार शुकु, मुझे भी मालूम नहीं । लेकिन इससे पहले भी मैंने अनेक बार चिट्ठियों को खोले बिना ही जवाब लिख भेजे हैं। किसी ने अब तक यह नहीं कहा कि तुमने चिट्ठियाँ नहीं पढ़ीं।'

शुकदेव की हैरानी और बढ़ गई थी। वीरमान की मानवेतर क्षमता थी और वह उसे इस्तेमाल भी करता था। उसे वीरमान के घर जाकर उन पत्रों को पढ़ने की इच्छा जाग उठी जिनका जवाब वीरमान ने बिन पढ़े ही दिया है। शुकदेव को यकिन था वीरमान ना नहीं करेगा क्योंकि उसने प्रेम पत्र तक दिखा दिया था। फिर भी शुकदेव को यह बात अच्छी लग भी नहीं रही थी, वह दोस्त की गुप्त बातों को गुप्त ही रहने देना चाहता था। दुविधा की स्थिति से शुकदेव अनमना सा हो गया था।

वीरमान के टेबल के ड्रॉअर में लिफाफे में बंद चिट्ठियाँ भरी पड़ी थीं। नेपाल के साथ भारत, अमरिका, बाङ्लादेश, पाकिस्तान, जापान जैसे देशों आए खत थे। इतनी सारी चिट्ठियाँ देखने के बाद शुकदेव को हैरानी इस बात की हुई कि क्यों वीरमान ने पहले यह बात उसे नहीं बताई ? क्यों पहले प्रेमपत्र से ही यह सब शुरू किया ? शुकदेव की बेचैनी बढ़ रही थी।

'वीरू, क्यों इतने दिन तक यह बात मुझसे छुपाए रखी ?'

'शुकु, ये चिट्ठियाँ अपनी जगह हैं, इनमें लिखी गई बातें भी उतने महत्व की न हों तुम्हारे लिए लेकिन ये सब मेरे लिए अमूल्य हैं। रही बात प्रेम पत्र से शुरूवात की, प्रेम प्रस्ताव से मैं इतना ज्यादा आनंदित हुआ कि लगा छलक पड़ूँगा। वही आनंद तुमसे बाँटने चला आया था यार। फिर तुम मेरे जिगरी दोस्त हो। किसी न किसी को यह बात कहनी ही थी। हमारे प्रेम का एक गवाह भी चाहिए था। इसलिए तुम ही फिट हो गए इसके लिए।'

'ठीक है यार। लेकिन मेरी भी एक शर्त है। अब से तुम्हारी जितनी भी चिट्ठियाँ आएँगी मैं उन्हें खोलकर पढूँगा। तुम्हें तो पढ़ने की जरूरत ही नहीं है।' कहने के लिए तो कह गया शुकदेव पर उसे लगा कि बात ठीक नहीं हुई।

'बहुत अच्छे। शुकु !' वीरमान ने कहा तो शुकदेव का संकोच छू-मंतर हो गया था।

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उसके बाद शुकदेव के घर के सामनेवाला चौपाल शुकदेव और वीरमान के दोस्ती और वीरमान-पद्मा के प्रेम का गवाह बना हुआ है। अब तो वीरमान के नाम आई हर चिट्ठी शुकदेव वैसे ही पढ़ता है जैसे उसने पहली चिट्ठी पढ़ी थी। ऐसा करने पर हर बार शुकदेव विस्मित हुआ है, हर बार उसे लगा है की उसके अंदर नई भावनाओंका संचार हुआ है, नई शक्तियाँ उभर आई हैं। इस काम का दूसरा फायदा यह भी हुआ कि दोस्तों की मुलाकात बार बार होने लगी। इन दोनों के भावनात्मक संबंध में भी इजाफा हुआ है।

एक दिन शुकदेव चौपाल में आराम कर रहा था। अचानक वीरमान कंधे पर एक मेमने को लादे दौड़ते हुए चला आया। वह साथ में लिफाफा भी लेकर आया था। वीरमान का चेहरा खुसी से दमक रहा था। वीरमान के कंधे पर छोटे से मेमने को और उसके चेहरे की आभा को देखकर शुकदेव को लगा, चिट्ठी में जरूर कोई खुसखबरी है। उसने लिफाला खोला और मुसकुराते हुए वीरमान से बोला - 'यार वीरू, बधाई हो।'

'थैक्यू, थैक्यू, शुकु।'

'लगता है कल ही तुम्हारी शादी हुई थी।'

'सचमुच। पता नहीं कैसे वक़्त इतनी जल्दी बीत गया। दो बरस हो गए। मैं अब पद्मा से मिलने फिक्कल जाऊँगा। अच्छा तो मैं चला।' कहते हुए मेमने को कंधे पर डालकर वीरमान प्रसन्नता से ओतप्रोत घर की तरफ चला गया। शुकदेव को ऐसी छोटी संवादो की आदत पड़ गई थी।

वीरमान और पद्मा की शादी के कुछ महीने बाद पद्मा फिक्कल चली गई थी। उसने वहाँ पढ़ाना शुरू कर दिया था। एमरेल्ड एकेडेमी ने अच्छी-खासी तनख्वाह देकर उसे वहाँ बुलाया था। भूटान में पढ़ी लिखी होने के कारण उस की अंग्रेजी अच्छी थी। एकदूसरे के प्रति गहरे आकर्षण और गहरे प्रेम के बावजूद वीरमान और पद्मा एकसाथ रह नहीं पाए। दोनों ने समझदारी कर ली थी क्योंकि सुंदर भविष्य का निर्माण करना था और उसके लिए पैसा चाहिए था। जब पद्माको अच्छा ऑफर आ रहा था को ठुकराने का सवाल ही नहीं था। इधर वीरमान कैंडल्स बनाने के घरेलू उद्योग में लग गया था।

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वक़्त के साथ चौपाल में शुकदेव और वीरमान की मुलाकातें कम होने लगीं। शुकदेव भी अब व्यस्त रहने लगा था। लेकिन जब भी नई चिट्ठी आती वीरमान दौड़ते हुए चौपाल में जरूर आता चाहे कुछ देर के लिए ही हो। इसी क्रम में वीरमान के अनेक पत्र मित्रों को शुकदेव अच्छी तरह से पहचान गया था। चिट्ठियों के माध्यम से ही शुकदेव को पढ़ाकू वीरमान की पसंदीदा अंग्रेजी किताबों के बारे में पता चला था। वैसे वीरमान और शुकदेव में किताबों की चर्चा तो होती लेकिन ज्यादातर नेपाली किताबों के बारे में ही बात चलती।

वक़्त गुजरता गया।

एक दिन वीरमान चेहरे में अजीबोगरीब भाव लेकर चौपाल में आया। शुकदेव को लगा वीरमान के चेहरे में सुखदुःख के दोनों भाव हैं। दुःख और सुख का यह मिश्रण ने शुकदेव को हैरानी में डाल दिया था। वीरमान कुछ बोल नहीं रहा था।

'कहो वीरू, क्या हुआ ?'

'..............' बिन कुछ बोले वीरमान ने चिट्ठी शुकदेव को पकड़ा दी। चिट्ठी पद्मा की थी।

'कहो न चिट्ठी में क्या है ?'

'...............'

'नहीं कहोगे ?'

'..............'

शुकदेव के बारबार पूछने पर भी जब वीरमान ने कुछ नहीं बताया तो शुकदेव ने लिफाफा फाड़कर चिट्ठी निकाल ली।

चिट्ठी में अमरिकाद्वारा पद्मा की वीज़ा स्वीकृति की बात लिखी गई थी। साथ ही पद्मा ने इस बात पर भी जोर देकर लिखा था की अमरिका पहुँचते ही वह वीरमान को बुलाने की प्रक्रिया शुरू कर देगी। शुकदेव चौंक गया। चिट्ठी पूरी पढ़ने पर ऐसा लगता था मानों यह सब इन दोनों की समझदारी से हो रहा है। पद्मा बेटी के साथ भूटानी शरणार्थी के तीसरे मुल्क में पुनर्वास कार्यक्रम के तहत अमरिका जा रही थी।

शुकदेव को अच्छी तरह मालूम था वीरमान से शादी करने के बाद पद्माको नेपाली नागरिगता मिली थी। फिर कैसे वह भूटान की नागरिक के हैसियत से वह अमरिका जा सकती है। कहीं कुछ गड़बड़ तो है, जो शुकदेव जानता नहीं है। भारी दिल से उसने वीरमान से पूछा - 'वीरू, यह कैसे संभव हुआ ? तुमने तो कभी यह सब बताया नहीं।'

वीरमान बोला - 'माफ करना यार , ऐसा नहीं है कि हम तुम्हें बताना ही नहीं चाहते थे। परिस्थितियाँ ही ऐसी बनीं कि हम तुम्हें बता नहीं पाए। जब भूटानी शरणार्थीओं की पुनर्वास की बात चली तो हमने भी सपने देखने शुरू कर दिए। अमरिका अच्छा विकल्प है, भूटानियों के लिए। फिर मैं भी तो एक अदना सा नेपाली हूँ, यार। मेरे भी कुछ सपने हैं। अगर इस तरह से जाया जा सकता है तो क्यों न जाएँ। कुछ ऐसा ही सोचकर मैंने और पद्माने कागजी तौर पर डिवोर्स कर लिया। कागजी तौर पर ही पद्मा अभी बेसहारा है, उसे उसके पति ने छोड़ दिया है क्योंकि वीरमान ने उससे धोखे से शादी की थी। पद्मा जब अमरिका पहुँचेगी तो अपने संबंधियों की मदद से मुझे किसी तरह वहाँ बुलाएगी। मैं भी यहाँ से कोशिश करूँगा। वहाँ जाकर फिर कागजी तौर पर शादी कर लेंगे।'

वीरमान कह तो रहा था लेकिन उसके चेहरे पर पश्चाताप के लक्षण दिख रहे थे और उसकी बोली भी अजीब सी हो गई थी।

'पर तुमलोग क्यों अमरिका जाना चाहते हो ? क्या कमी है यहाँ ?'

'शुकु, तुम ही बताओ क्या है यहाँ ? तुम नया कुछ नहीं कर सकते। झगड़े, लूट-खसोट, अपहरण, चोरी, डकैती। जान-माल कुछ भी सुरक्षित नहीं। माँ बहनें महफूज नहीं। युवा पीढ़ी भी दिग्भ्रमित है, ड्रग एडिक्ट्स हैं ज्यादातर। कॉलेजों में पढ़ाई सिर्फ नाम के लिए, पढ़ना भी किसलिए, सर्टिफिकेट जो लेना है। पोस्ट ग्रेजुएट अपना नाम भी सही नहीं लिख सकता। क्या आस लेके जीऊँ... मैं अकेला देशभक्त हो कर क्या करूँगा यार..?'

वीरमान बहुत देर बोलता रहा। शुकदेव के पास जवाब नहीं थे। जो जवाब थे उसे नहीं लगा उनसे वह वीरमान को मना पाएगा। शुकदेव को एक रत्ती भी विश्वास नहीं हो था, वीरमान ऐसा करेगा। उसने तो कभी अमरिका के सपने नहीं देखे। अमरिका जाकर जीवन फिर शून्य से शुरू करना होता। वंधु-दोस्त, पड़ोसी, अपने लोग, अपनी मिट्टी, अपने त्यौहार कुछ भी तो मिलनेवाला नहीं था। अमरिका में तो भौतिक सुविधाएँ तो थीं वह भी जान लेवा परिश्रम करने के बाद ही मिलतीं। शुकदेव को लगा कितना अच्छा होता अगर वीरमान इस झमेले में नहीं फँसता। फिर पद्मा को क्या हुआ ? अब कैसे वीरमान को बुलाएगी ? किस नाते से बुलाएगी ? डिवोर्स तो हो चुका था उन दोनों का। अमरिका में तो कागजी डिवोर्स और असली डिवोर्स जैसी चीज कुछ अलग तो नहीं होती। डिवोर्स होता है तो कागज में लिखते हैं नहीं तो नहीं। इतना तो शुकदेव भी जानता था।

अब शुकदेवको दूसरी चिंता भी खाए जा रही थी। यह वीरमान इमेल तो चलाता नहीं। पद्मा की चिट्ठी का इंतजार करेगा यह। एक मिनट में होनेवाला काम महीनाभर लगेगा। पद्मा भी वीरमानको चिट्ठियाँ ही लिखती थी। वीरमान को तो शुकदेव मना नहीं सकता लेकिन पद्मा को जरूर मनाएगा। अमरिका जाने से पहले एक इमेल आई.डी. बना ले। कमसेकम शुकदेव के साथ तो वह संपर्क में रह पाएगी। वीरमान और पद्मा को उसकी सख्त जरूरत पढ़ सकती है।

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फिर एक दिन पद्मा का पहली चिट्ठी भी आ पहुँची। अमरिकी डाक टिकट लगी हुई और पद्मा की लिखी हुई। वीरमान सायद ज्यादा ही खुस नजर आ रहा था। शुकदेव को चिट्ठी देकर वह हौले से मुसकुराया।

इतने दिनों तक चिट्ठियाँ पढ़ते पढ़ते शुकदेव ने वीरमान से पूछना ही छोड़ दिया की चिट्ठी में क्या है। वीरमान के चेहरे के भाव ही बता देती कि चिट्ठी में खुस खबरी है या दुःख की बात। बाकी डिटेल्स के लिए शुकदेवको चिट्ठियाँ पढ़नी होतीं।

पद्माके पहले पत्र में अमरिका की भौतिक समृद्धि और आधुनिक जीवन शैली का शानदार वर्णन था। चिट्ठी की भाषा और पद्माका आत्मविश्वास से शुकदेव को लगा पद्मा और वीरमान की कोशिश व्यर्थ नहीं जाएगी। मन के किसी कोने में शुकदेव आशंकित भी था लेकिन उसने आस भी कभी नहीं छोड़ी।

वीरमान पद्मा की चिट्ठियों का इंतज़ार करता था और उधर शुकदेव पद्मासे इमेल के जरिए बात करता था। पद्मा के इमेल से पता चलता उसका अमरिकी जीवन शुरू हो गया है और वीरमानको उधर बुलाने के लिए जीतोड़ कोशिश कर रही है। वीरमान को दोस्त के तौर पर बुलाने के लिए विजिटिंग वीजा के लिए भी कोशिश कर रही थी पद्मा। छोटी सी बेटी के साथ अमरिका में संघर्ष की कहानियाँ लिखतीं थी।

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कुछ महिनों बाद पद्मा की चिट्ठियाँ आने का क्रम पतला होता गया। वीरमान भी चिट्ठियों के इंतजार में विचलित होने लगा था। एक महीने से ज्यादा होने पर उसकी छटपटाहट बढ़ जाती थी। वह अब बारबार चौपाल में आता और शुकदेव के साथ चुपचाप घंटो बैठा रहता। वह बहुत अनमना हो चला था और एक ही तरफ टकटकी बाँधे देखता रहता था। उसका कैंडिल बनाने का उद्योग भी आर्थिक मंदी की मार में पढ़ गया था। खर्चा बढ़ रहा था लेकिन बिक्री नहीं बढ़ी थी।

ऐसे में शुकदेवको वीरमान के लिए ज्यादा वक़्त निकालना होता था। वह अपनी व्यस्तताओं के चलते वीरमान को चौपाल में या और कहीं अकेला नहीं छोड़ सकता था। दोस्ती को सिर्फ औपचारिका में बाँधे रखना वह कभी नहीं चाहता था। वह जानता था उसके त्याग और धैर्य ही वीरमान को सही रास्ते पर ला सकेंगे।

एक दिन शुकदेव चौपाल में बैठा था। वीरमान भावविहीन चेहरा लेकर आया और पद्मा का पत्र शुकदेव को देकर बोला - 'शुकु, कहीं गलत हो गया है। पद्मा तो मैक्सिन बन गई है। वह तो गोगोल के साथ छुट्टियाँ मनाने चली गई है।'

आज कुछ अनूठा हुआ है। बिन पूछे ही वीरमान ने चिट्ठी में क्या है बता दिया था। बहुत दिन हुए थे वीरमान को बोले हुए। शुकदेव सावधान हो गया। पूछा - 'कौन मैक्सिन ? कौन गोगोल ? गोगोल तो रसियाई लेखक हैं। फिर गोगोल को मरे हुए दशकों बीत गए। फिर छुट्टियाँ ? कैसी बातें कर रहे हो वीरू ?'

वीरमान चुपचाप बैठा रहा। शुकदेव ने चिट्ठी खोलकर देखी तो वैसा कुछ नहीं था। पद्मा ने वीरमान को बुलाने के लिए स्पॉन्सर्स ढूँढ़ रही थी और वीजा के लिए आवेदन भी दिया था। शुकदेव को अजीब सा लगा, उसे दुःख भी हुआ। क्योंकि इतने दिनों के बाद वीरमान ने सही नहीं कहा था। वीरमान ने एक बात कही और चिट्ठी में निकली दूसरी। कहीं वीरमान वीमार तो नहीं है ? पर वह वीमार लगता तो नहीं था। अब तक तो  सामान्य था।

उधर पद्मा ने शुकदेव से वीरमान की चिट्ठियाँ न मिलने की शिकायत की थी।

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चौपाल में बैठा हुआ शुकदेव वीरमान के पदचाप से चौँक गया। वीरमान दौड़ते हुए आया था। वह हतास और रुआँसा दिखता था। उसके हात में पद्मा की सिलबंद चिट्ठी थी।

'शुकु, मैं बरबाद हो गया यार। पद्मा अब पद्मा नहीं रही। वह तो मौसमी हो चुकी है। मौसमी गोगोलको धोखा देकर दिमित्री के साथ रोमांस करने लग गई है। वह तो दिमित्री के साथ सो भी चुकी। ओ .. शुकु।' शुकदेव के पूछे बिना ही वीरमान बोलने लग गया था।

वीरमान के हाथ से चिट्ठी लेकर उसे चौपाल में बिठाया शुकदेव ने। उसे सहारा दिया। उसके कंधों पर हाथ फेरे। वीरमान के आँसू पोंछे और हाथों को सहलाता रहा। शुकदेव का यह काम दोस्तों के बीच प्रेम की नई गहराई दिखा रहा था। जो दिख रहा था वह सिर्फ शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता था। शुकदेव को पद्मा याद आ रही थी और साथ ही उसके झोले में बने ड्रागन के बिंब की गुत्थी सता रही थी।

शुकदेव ने वीरमान को उसके घर पहुँचाया। चिट्ठी खोलकर देखा। ऐसा कुछ नहीं था जो वीरमान ने बताया था। कम ही सही पद्मा से इमेल में तो संपर्क में ही था शुकदेव। कुछ बात होती तो पद्मा जरूर कहती। पद्मा ने लिखा था कि वीरमान की स्पॉन्सरसीप की बात लगभग अंतिम चरण में पहुँच गई थी।

वीरमान का कमरा अस्तव्यस्त था। लगता था बहुत दिनों से उसने चीजों को सम्हालकर नहीं रखा है। किताबों और पत्रपत्रिकाओं को सहेजकर रखनेवाले वीरमान के कमरे की यह हालत होगी, उसने कभी सोचा भी नहीं था। कैंडिल पैकेट के लेबल्स, अखबार, पत्रिकाएँ, किताबें जहीं तहीं बिखरी पड़ी थीं। वहीं शुकदेव ने देखा एक किताब कुछ अलग पड़ी थी। वह किताब थी-  झुम्पा लाहिडी की नेमसेक। शुकदेव ने उस किताब का नाम तो सुना था पर पढ़ने का मौका नहीं मिला था। उसके पास किताब नहीं थी और वीरमान ने भी बताई नहीं थी। शुकदेव ने किताब उठाया और वीरमान को विछौने में सुलाकर अपने घर की तरफ चल दिया।

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शुकदेव बहुत ही अन्यमनस्क होकर चौपाल में बैठा हुआ था। उसे अपने दोस्त वीरमान पर तरस आ रही थी। उसकी आँखें भी भीगी हुई थीं। कैंडिल का व्यवसाय धरासायी हो जाना, अमरिका के सपने और पद्मा से भौतिक दूरी यह तीन बातें समस्या की जड़ मालूम पड़ रहीं थीं। शुकदेव को लगा शायद और भी वजहें हों। वह दोस्त जरूर था वीरमान का, लेकिन सभी अंतरंग बातें उसे मालूम नहीं भी हो सकतीं थीं। अब वीरमान को कैसे उबारा जाए यही शुकदेव की चिंता की बात थी। वीरमान की हालत आजकल और भी बिगड़ गई थी। हर नई चिट्ठी आने पर वह 'यह पांडोरा का संदूक है, पांडोरा का संदूक है। इसे खोलना नहीं....। इस में दुःख ही दुःख भरे पड़े हैं। हा...हा..हा.. यह पांडोरा का संदूक है...।' चिल्लाते हुए दौड़ने लगता था।

वीरमान की लिफाफा खोले बिना ही चिट्ठियाँ पढ़ने की क्षमता गायब हो चुकी थी। शायद उसका दिमाग उसे साथ नहीं दे रहा था।

शुकदेवको पता नहीं था यह दोष किसका है। वीरमान पद्मा को झुम्पा लाहिडी के उपन्यास नेमसेक के पात्रों से तुलना करने लग गया था। कभी वह मैक्सिन की बात करता कभी मौसमी की। उसे लगता पद्मा इन्हीं पात्रों में रूपातंरित हो गई है और वैसे ही काम कर रही है, जैसे वे कर रहे हैं। यही बात उसे विक्षिप्त कर देती थी। और वह बरबराते हुए इधरउधर दौड़ने लगता था। नेमसेक अमरिका में एक बंगाली परिवार की संघर्ष की कहानी है और जो उसके पात्र करते हैं वह अमरिकी समाज का हिस्सा है, इतना तो शुकदेवको पता चल गया था। लेकिन वीरमान को यह बात समझाने में देर हो चुकी थी। घर में विद्रोह कर वीरमान ने पद्मा से शादी की थी। प्रेम-विवाह के गवाह के हिसाब से उसकी कुछ जिम्मेदारी तो बनती थी पर कितनी ? वह तय नहीं कर पाया था।

 

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शुकदेव ने घर जाकर चिट्टी को उलटा पुलटाकर देखा। वह द्विविधा में था, चिट्ठी खोले या ना खोले। बहुत देर की सोचने के बाद शुकदेव ने चिट्ठी न पढ़ने का निश्चय किया। उसे लगा इस सिलबंद लिफाफे के अंदर वीरमान और पद्मा की उज्ज्वल भविष्य छिपा हुआ हो सकता है। खोलने पर कहीं बिगड़ न जाए।

शुकदेव ने कुछ सोचा और पद्मा को इमेल लिखने बैठ गया।

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