अंक 29वर्ष 3जुलाई 2010

शिकार और शिकारी

--विजय चालिसे

वह सुबह से ही सशंकित थी। ग्रामीण सड़क के किनारे में उसका घर था और घर में आज गाँव से आए अनजाने लोगों की तादाद बढ़ गई थी। गाँव में एक महीने पहले भी ठीक ऐसे ही लोग जमा हुए थे। उस रात उसकी चहेती सुंतली गायब हो गई थी। कोई कहता, माओवादी उसे कार्यकर्ता बनाने के लिए ले गए, कोई कहता माओवादीओं से संबंध होने के कारण उसे सुरक्षाकर्मी पूछताछ के लिए ले गए। वह लौटकर नहीं आई थी। सुंतली के माँबाप रोरोकर निढाल हो गए थे। आज दिन के वातावरण से ही वह डर गई थी, कहीं अनिष्ट के बादल तो नहीं छा रहे ?

दिन का उजाला आहिस्ता से रात के अंधकार में तबदील होता गया। बड़ते अंधकार के साथ उसका दिल भी जोर से धड़कता गया। उसके मन में अव्यक्त भय घर कर गया था। क्यों ऐसा हो रहा है, वह सोच नहीं पा रही थी। आज सुबह से ही उसके मन में शक के बादल घिर आए थे, पर क्यों उसका जवाब उसे नहीं मिल रहा था। अपना भय बाप को बताकर खुद हलकी हो सकती थी पर फिर सोचती बूढ़े पिता को दुःखी करना ठीक नहीं।  उस रात भी ऐसा ही अंधेरा छाया हुआ था, अभागे गाँव में। याद आते ही उसका दिल काँप उठता है।

‘बापू, कुछ खाओगो बना दूँ ?’ कहते हुए वह कमरे में गई। मिट्टी के तेल की बाती जलाकर कमरे का अंधकार कम करने लगी। बाती कमरे को ज्योतिमय बनाने की असफल कोशिश कर रही थी। अंधकार के साम्राज्य को चीर पाना संभव नहीं था। कमरे के एक कोने में बकरियाँ जुगाली कर रही थीं, मेमनें माँओंको ढूँढ़ रहे थे। जो कुछ संपत्ति थी उनके पास, वही बकरियाँ थी।

‘क्या खाऊँ, कुछ भी तो अच्छा नहीं लगता। तेरी माँ भी चल बसी। तेरा भाई एक सहारा था, उसे भी जंगल के लोग पकड़कर ले गए। मैं भी बहुत दिनों से काम पर जा नहीं पाया हूँ, क्या होगा घर में जो बनाओगी और मुझे खिलाओगी ?’ बाप की आवाज निराशा भरी हुई थी। उसने महसूस किया उसकी आवाज में भी उत्साह और उमंग गायब थे। लगता था समय के निर्मम प्रहार से वक़्त से पहले ही प्रौढ़ हो गई है।

दो वर्ष पहले दमा से माँ चल बसी थी। माँ की मृत्यु के बाद बाप भी गल गया था। उसने बिछौना पकड़ लिया था। जवान बेटे को गाँव के अन्य लड़कों के साथ जब माओवादी जंगल ले गए तो बूढ़ा बाप माथा पीटता रह गया। जिंदगी का एक सहारा भी छिन लिया गया था। अब उसकी एक ही इच्छा बाकी रह गई थी। बेटी को ब्याह करके अच्छे घर में भेजना था। इतना करने के बाद वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता।

उसने सुना था माओवादी गरिबों के लिए लड़ रहे है। कहते थे वह सब गरिबों का भला करेंगे। फिर वे इस बेसहारा बीमार बाप के एक मात्र छोकरे को अपने साथ लेजाकर क्या भला कर रहे हैं ? किसका भला कर रहे हैं। वह सोच रही थी, कमाकर खिलानेवाले बेटे को छीनकर उन्होंने क्या किया है। बारबार यही सवाल उसके जेहन में उठता था, लेकिन जवाब कहीं नहीं मिलता था।

उसके भाई के जंगल जाने के साथ ही, सुरक्षाकर्मियों का उसके यहाँ आना शुरू हो गया था। वे कहते उसका भाई अपनी इच्छा से माओवादी बना है और उसके बारे में बाप बेटी दोनों को अच्छी तरह मालूम है। जब भी वे आते धमकियाँ देते थे। उनको देखते ही वह डर  जाती थी। उसका दिल दहल जाता था। वह उनके सामने पड़ना नहीं चाहती थी। पर उनकी आँखें सदा उसीको ढूँढ़ रही होतीं। भाई और माओवादीओं के बारे में सवालों से ज्यादा उनकी कामुक आँखें उसे ज्यादा सताती थीं। उनके ईशारे भी बड़े भद्दे और अश्लील होते थे।

रात गहरी होती जा रही थी। बकरियों को दिनभर की मेहनत से जमा की गई घास देकर वह काम खत्म कर चुकी थी। बचे हुए दो पंसेरी मकै के आटे से दो मुट्ठी आटा लेकर उसे पानी में घोलकर आग में चढ़ा दिया। नमक, मिर्च और थोड़ा सरसों का साग मिलाकर सब्जी बनाया। जो बन गया उसे दोनों नें खाया। बाप खाना नहीं चाहता था लेकिन थोड़ा जिद करके खिलाया। वह खुद भी थोड़ा ही खा पायी।

उसकी आँखों में नींद नहीं थी। रात की निस्तब्धता में इन्द्रावती की आवाज और तीखी हो रही थी। पड़ोसियों के यहाँ भौक रहे कुत्ते भी रात को और भयावह बना रहे थे। कहीं दूर एक कुत्ता रोया और उसका डर भी शनै शनै बड़ने लगा। लगा आज गाँव में कुछ अनिष्ट होनेवाला है। पहले  भी ऐसा हुआ है। जब भी कुत्ता भौँका है, गाँव में अनिष्ट हुआ है। इसलिए वह डर गई थी। जिस रात सुंतली गायब हुई थी, वो रात भी आज के रात जैसी ही थी। हे भगवान ! फिर वैसी घटना कुछ न हो। आज कैसे अचानक भगवान का नाम ले गई वह। जीतोड़ काम करने पर भी हर दिन भूखा रहना पड़ता था उन लोगों को। गाँव के लोगों की धर्मभीरूता का फायदा शोषक उठा रहे थे। इस बात को वह जानती थी। उसे भगवान के नाम से चिढ़ थी क्योंकि उसकी नजर में भगवान धनियों का साथ देते थे। वह हर बात भगवान पर नहीं छोड़ सकती थी। यदि भगवान हों भी तो उसे न्याय देंगे, ऐसा विश्वास नहीं था। भगवान तो सिर्फ शक्तिशालियों का साथ देते हैं, धनियों का साथ देते हैं। ऐसा विश्वास उसका था। आज फिर अचानक भगवान का नाम लेना उसे अजीब लगा। दुःख से लदी जिंदगी होने के बावजूद वर्षों अवचेनत मन में, दिमाग में उसकी आस्था यही थी, उसका परिवेश वही था, शायद इसी कारण उसके मुँह से अमूर्त और अदृश्य भगवान का नाम निकल आया। 

अनेक कोशिशों के बावजूद वह सो नहीं पा रही थी। कितनी बार करवट बदला पता नहीं चला। वक़्त कितना गुजर गया वह भी पता नहीं चला।

बाहर कुत्ते फिर भौँके। कुत्तों के भौंकने के साथ ही बूटों की आवाजें आने लगीं। रात की नीरवता भंग हो गई थी।

‘ऐ...  दरवाजा खोल, जल्दी। नहीं तो तोड़ देंगे।‘ कर्कश आवाज सुनाई दी। भीतर तक सिहर गई वह। साहस करके दरवाजे के पलड़ों के बीच से बाहर झाँक कर देखा तो पाँच-छह खाकी वर्दी पहने राईफलधारी दिखाई दिए। वह जान नहीं पाई वे कौन थे।

‘दरवाजा क्यों नहीं खोल रहा ? किसे छिपाकर रखा है भीतर ?’ दूसरा उत्तेजित स्वर उभरा। उसकी रहीसही हिम्मत भी जवाब दे गई। सिटकनी गिराते वक़्त उसके हाथ थरथर काँप रहे थे।

पूरा गाँव आतंकित था। ऐसे में कोई घर से बाहर कदम रखने की सोच भी नहीं सकता था। यों कहा जाए, मौत का भय इस कदर छा चुका था कि पड़ोसी को सहायता कर लोग जोखिम मोल लेना नहीं चाहते थे। निरपेक्ष कायरता ने सबकी बोलती बंद कर दी थी।

दरवाजा खुलने के साथ ही एक के बाद एक बूट-बर्दीधारी भीतर ढूके। भीतर का परिवेश उनकी टार्च की रौशनी में नहा गया। वह इस वक़्त उजाले से डर रही थी। एक कोने में उसका बाप आतंक से आँखें फाड़कर देख रहा था। दूसरे कोनें में बंधी बकरियाँ और मेमने चौँककर उछलने लगे थे। आनेवाले लोगों ने घरका कोनाकोना छान मारा। जब उन्हें लगा कि कोई नहीं है, नजरें अब उसके ऊपर गढ़ने लगीं। वह टार्च की रोशनी में नहा गई।

      भूखे भेडिए की तरह उनकी नजरे उसे खाने लगीं। उनमें से एक ने उसपर अचानक हमला बोल दिया। निरीह बाप के सामने वह लुटी गई। एक के बाद एक उन पशुओं ने उसे बाप के सामने भोगा। वह जान नहीं पाई कि वह जिंदा है या मुर्दा। अपने सामने बेटी इज्जत लुटती देख कब बाप ने आँखे मूँद ली पता नहीं चला।

      ‘सर ! शायद यह मर गई।‘ पाशविक प्यास बुझानेवाला अंतिम बर्दीधारी बोला। कुछ क्षणों के लिए निस्तब्धता छाई रही।

      ‘फॉर्मूला चार लगाना !’ तीखी आवाज में आदेश देकर एक चला गया। वातावरण को फिर नीरवता ने निगल लिया।

      दूसरे दिन सुबह, गाँववाले उसकी लास के सामने बैठकर आँसु बहा रहे थे। ऊधर उसके घर में बूढ़े बाप की लास कोई बिरादरीवाला देख रहा था। कैसे बूढ़ा मिजार मर गया, इसका जवाब कहीं नहीं था। उसी वक़्त रेडियो में समाचार आया – ‘कल रात इन्द्रावती नदी किनारे आतंकवादीओं के साथ मुठभेड़ में एक आतंकवादी महिला मारी गई। बाकी सब आतंकवादी फरार हो गए।‘

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नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी।

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