अंक 35 | वर्ष 10 | जनवरी 2017 |
जब तुम बोलती हो
- मनु मन्जिल
जब तुम बोलती हो
मैं जीवन की सबसे गहरी आवाज सुन रहा होता हूँ।
चाहे पानी बरस रहा हो
चाहे हवा चल रही हो
आवाज संगीत के होंठ छूकर निकलती है
जब तुम बोलती हो।
मेरी चाहत के छोर पर फुल रहा एक ही फूल
आकाश में लटकता एक ही तारा
मेरे जीवन के क्षितिज को छूकर
उड़ रहा एक पक्षी
मन के तालाब में खेलती रहनेवाली एक तरंग
तुम !
जब बोलती हो
पानी की लहर उठकर मरुभूमि के होंठ छूती है
मूरत जगाते हुए जीवन चूमता है
मन उठता है
और स्वर्ग के किनारों पर चलता है
जब तुम बोलती हो।
लगता है, यह संसार तुम्हारे शब्दों में बचा रहे तो काफी है
और जिंदगी
गीत गुनगुनाते हुए इधरउधर करनेवाले तुम्हारे रास्ते की
एक ही मूर्ति हो जाए तो काफी है।
सौंदर्य खुद को बटोरकर अपने घोंसले की तरफ लौटता है
जब तुम बोलती हो,
मैं मरुभूमि, फिर बगीचा ओढ़कर सो जाता हूँ।
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मूल नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी
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