अंक 34 | वर्ष 9 | जनवरी 2016 |
एक सवाल कविता के लिए
- मुकुल दाहाल
तुम जितने ही उपेक्षित हूँ मैं।
तुम जितने ही पीड़ित हूँ मैं।
तुम जितने ही अकेली हूँ मैं।
तुम्हारे जैसे ही मेरे इर्द-गिर्द
तारों का साम्राज्य उठ रहा है।
तरंगों का शहर बन रहा है।
तुम्हारे जैसे ही मेरे इर्द-गिर्द
सभ्यताओं के कटड़े हैं।
विचारशून्य जीवों के गोठ हैं।
तुम्हें जैसे ही वे मुझे
तिरस्कार की दृष्टि से तड़का रहे हैं
बेवकूफ समझ धौंस जमा रहे हैं।
तुम्हारे जैसे ही मैं प्रतिरक्षा का
कोई कदम नहीं उठा रही।
तुम्हारे जैसे ही मैं कलात्मक दिख रही हूँ।
सदियौँ पार से
स्वयं-रक्षित मैं
शाश्वत जी रही हूँ।
तुम्हारे और मेरे भोगने से
मिट गई दूरियों ने
एक सवाल को जन्म दिया है।
तुम कविता या मैं स्वयं कविता ?
तुम कवि या मैं स्वयं कवि ?
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नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी
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