अंक 31 | वर्ष 5 | मई 2012 |
किताब
- भीष्म उप्रेती
आश्चर्य है,
अक्षर नहीं हैं आज किताबों में
कहाँ गए इतने अक्षर
एकसाथ, अचानक ?
सुबह-सुबह
काले बादल उठ रहे हैं चारों तरफ से
मैले बोरे ओढ़कर सड़क-पेटी में
सो रहे हैं बच्चे कचरे के पास,
अस्पताल से बाहर सड़क में
भयानक रोग से मर रही है युवती,
पैबंद भरे कपड़े से
ठंड से बचाव कर रहें है कुली हिमाल में
और एक वक़्त के खाने में
खुद को बेच रहे हैं लोग।
मैं एकएक करके सोच रहा हूँ हर दृश्य
चेतना को जोर से कोड़े मारकर
खुद खट्टा होते हुए, पकते हुए
खो रहा हूँ, अनुभूति के पूरे जंगल में
कितना पढूँ सिर्फ किताबें
वक़्त को पत्र-पत्र उधेड़कर
आज मैं लोगों के दुःख पढूँगा
आज मैं लोगों की जिंदगी पढूँगा
अक्षर नहीं है आज किताबों में।
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नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी
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