अंक 30 | वर्ष 4 | जुलाई 2011 |
यह शहर किसका है
- मनु मंजिल
मैंनै, मत आना
शहर में बहुत तकलिफें है कहा
इधर हर कदम सड़कें चुभती हैं कहा।
खेलने के लिए मैदान, सोचने के लिए एकांत
न होने वाला शहर
जीवन के प्रति अनुदार है कहा।
न गाँव जैसे सबेरे गीत गाते पेड़
न साफ सुथरा तालाब और आईना
न हर मुलाकात में हाल पूछनेवाले और मुस्कुरानेवाले लोग।
शहर -
सबरे ही कौवों को कधों पर लादकर शोर करता है
शुभ मुहूर्त कुत्ते दौड़ाता है
और दिन की सुरुवात करता है कहा
दिनभर प्रताड़नाएँ ठूँसकर
एंबुलेंस दौड़ाता है
और जब रात होती है, अर्ध-निद्रा में
कविता लिखने की तैयारी करता है कहा।
मैंने, मत आना
शहर में बहुत व्यथाएँ हैं कहा
सब कुछ अस्पष्ट,
सिर्फ क्रूरता स्पष्ट दिखाइ देती है कहा
बेरोजगारों की कतार
शहर से कल्पना के छोर तक पहुँचने का
सच भी कहा
आँसूओं की एक गंगा
तकरीबन हर कमरे के अंधेरे में चूपचाप बहती है और खत्म हो जाती है भी कहा
सूरज शाम ढलते ही
दीवारों से मुरझाकर गिरने की बात कही
आँखों में निराशा भर जाने की बात कही
और यह भी कहा
शहर भीड़ जैसे बातें करता है और कुछ समझ नहीं आता
शहर हल्ला करता है
सत्य की आवाज फैलने से रोकता है।
प्रेम की लाश
गंदगी के कन्टेनर में मिलती है भी कहा
लोगों की छाती की मरुभूमि
दूर से दिखाई देती है भी कहा।
लेकिन इतना ज्यादा कहने के बाद भी
तुम आए और कहने लगे
- मैं अब शहर में ही रहूँगा
क्यों ? क्या शहर में ऐसा भी उजाला है जो मैंने नहीं देखा ?
क्या ऐसा रहस्य है, जो मुझे पता नहीं चला ?
होगा, जरूर होगा
नहीं तो दम घूँटकर मेरे निकलने के वक़्त
तुम क्यों आते और कहते
- मैं अब शहर में ही रहूँगा।
कि शहर तुम जैसे रात में सूरज देखनेवालों का है ?
शहर लीद के ढेर में घोड़े खोजने वालों का है ?
आओ दोस्त मैं उठा चला
यह शहर तुम्हारा है।
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नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी।
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